Thursday, December 31, 2009

माँ, प्यारी माँ! ४

" अम्मा ! आज जो ख़बर दी आपने, दिल एकबार फिरसे धक्-सा रह गया है...अम्मा अभी तो आपसे कितना कुछ कहना है...लिखना शुरू किया तभी, ऊपरवालेसे दुआ की थी, कि, आप मेरा लिखा पढ़ सकें, इतनी मोहलत तो मिले मुझे...

"आपका एक ख़त अपने सामने लिए बैठी हूँ...एक माँ ने अपनी बेटी को दिया प्रशस्ती पत्रक....बोहोत,बोहोत पहले मेरी बेटी ने मुझे, बडेही भोले भावोंसे, कुछ लिखके पकडाया था....मेरे लिए वो नायब tribute था....मैंने उस छोटेसे निबंध को उसकी teacher के पास पढनेके ख़ातिर दिया और मुझे वापस नही मिला...अब मैंने आपके इस खतको laminate करके रखा है...पहले तो उसकी प्रतियाँ निकाल लीं....

" आप लिखती है,'उस रोज़, मै ऐसेही फुरसत से सोचते बैठी थी...बरामदा खामोश था....कई ख़याल दिलकी राहोँ से गुज़रते रहे.....और जाना कि, उनका रुख तुम्हारी ओर हुआ....मै अनायास तुम्हारी कई सारी बातें याद करती रही...

"याद आता रहा, कि, तुमने हम सभी के लिए कितना कुछ किया है...खुले,बड़े दिलसे, बदलेमे कोई अपेक्षा न रखते हुए.....खुशीसे ओतप्रोत होते हुए....एक सम्पूर्णता से बस निछावर ही निछावर करती गयीं....

"चाहे वो मेरी अनगिनत बीमारियाँ हो, तुम्हारी छोटी बेहेनका ब्याह हो या, छोटे भाई का ब्याह हो...दादी अम्माकी सर्जरीस हों....या और कुछ....जोभी हो... खुले दिल और हाथोंसे तुम सभी को देतीही देती गयीं....सिर्फ़ हमीं लोगों को नहीं...तुम्हारे संपर्क में आनेवाले हरेक को तुमने खुले दिलसे दिया ही दिया...अपना-पराया,ये भेद किए बिना...जिसने जब माँगा, और गर वो युम्हारे पास था, उसे मिलही जाता...इतनी निरपेक्ष?

"जब, फुरसत के लम्हात होते हैं, मै तुम्हारेही बारेमे सोचने लग जाती हूँ....तुम्हारे लिए दुआएँ करती रहती हूँ...ख़ास करके , सूनी-सी दोपहर में या रातको सोनेसे पूर्व...मनसे ढेरों दुआएँ निकलती हैं....

"तुम मेरी सबसे अधिक, ख़याल रखनेवाली, सबसे अधिक समझदार बेटी हो...सबसे अधिक ज़िम्मेदार......
ढेरों प्यार सहित
अम्मा' "

"अम्मा! और लिखना बाकी है...इत्तेफ़ाक़ देखिये! अभी, अभी, लिखते,लिखते,एक गीत लताके सुरों में सुन रही थी...मानो अपना कलेजा उँडेल दिया उसमे लाताजी ने........अल्फाज़ कुछ इस तरह के थे,'
वो जो औरों की ख़ातिर जिए मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला? उन्हें क्या मिला?
जैसे बादल बरसता हुआ,
प्यास सबकी बुझाता हुआ,
जैसे चंदन सभीके लिए,
अपनी खुषबू लुटाता रहा...
वहीँ तुम, अपना जीवन लुटाती रहीं....

पर तुम्हें प्यार किसका मिला,
ख्वाब देखे हमारे लिए,
एक पलभी अगर सो गयीं,
तुम हो माँ सारे परिवार की,
सबकी फिकरों में तुम खो गयीं..

तुम ना ब्याही, ना मेहंदी रची,
और न माथेको टीका मिला '
वो जो औरोंके ख़ातिर जिए,मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला, क्या sssss मिला sssss?

" अम्मा ये ख़त पढ़ ,मेरी आँखों में कई बार आसूँ छलके...कई बार इसे सीनेसे लगाया... पता नही ,और कितनी बार लगाए रखूँगी.......
"खैर! आप ब्याही तो गयीं...और इसीलिये तो मेरी, और मेरे भाई बेहेन की माँ बनी.....लेकिन इसके अलावा, हर वो क़ुरबानी दी, जो इस गीत से बयाँ होती है....और उससे भी अधिक...

अभी तो कितनी बातें करनी हैं...कईं बातों की माफ़ी भी माँग लेनी है...
क्रमश:

Tuesday, December 22, 2009

माँ, प्यारी माँ...!३

> "अम्मा, आज बेहद थक गयी हूँ...फिरभी रायभान के बारेमे लिखनेका मोह टाल नही पा रही हूँ...
हाँ, वही क़िस्सा बयाँ करनेके खातिर आज लिखना शुरू किया....

पता नही क्यों,रायभान को बस्ती परके सारे बच्चे, हिक़ारत से देखते थे...उसके साथ बुरी तरहसे पेश आते थे...जैसे कि,वो बतख की कहानी...उन बतखों मे एक हँस था..जिसे सब कुरूप कहते थे....रायभान की माँ, हमारे घरमे काम करती थी....

"सब बच्चे हमारी घरकी सीढियों पे बैठ, कुछ खेल रहे थे...मै बगीचे से आयी और सीढीयाँ लाघते हुए, रायभानको एक लात मार दी...बेचारेने," अरे, हटता हूँ, हटता हूँ," कहा और हट गया...
अम्मा, आप सब देख रहीँ थीं...आपने अन्य बच्चों को एक तरफ़ बिठा दिया ...मुझे और रायभानको अपने सामने बुलाया...
"मुझसे बोलीं," इसके सामने कान पकडके १० बार उठक बैठक करो, और हर बार माफी माँगो...कहो,कि, ऐसी हरकत फिरसे कभी नही करोगी..!"
"बेचारा रायभान बडाही सकुचाया-सा एक कोनेमे खड़ा हो गया...
"आपके आगे मना करनेका तो सवालही नही था..जैसा आपने कहा वैसाही मैंने किया......

उसके बाद आपने सब बच्चों को अपने,अपने घर भेज दिया...
मुझे अपने पास,प्यारसे लेके बैठीं और कहा," देखो बेटा, खुदाके आगे सब बच्चे एक जैसे होते हैं...और तुम्हें उसे लात मारके ख़ुशी मिली? तुमने हरकोई उसके साथ ऐसीही चाल चलता है ये देखा और वैसाही किया...हैना? '
"अम्मा, ये शत प्रतिशत सच था...मै खामोश बैठी रही...मेरी उम्र थी कुछ ३ सालकी...लेकिन मैंने ग़लत बात की है, ये मै खूब समझ गयी...

"उस रात मेरे गलेसे खाना उतरा नही..दादा पूछते रहे,कि, मै क्यों खाना नही खा रही...
आपने कहा," कोई बात नही गर एक रात नही खायेगी तो...उसने शामको दूध तो लेही लिया है...फलभी खाया है...नही खा पा रही,तो उसे सो जाने देते हैं।'

"दूसरे दिन सुबह हुई,तो मैंने अपनी माँ और पिताको घरसे नदारत पाया....दादी को पुकारने लगी...वो आ गयीं....
मैंने उनसे पूछा," अम्मा और बाबा कहाँ गए हैं? और वनुमासी,(रायभान की माँ,) क्यों नही आयी? आप क्यों नाश्ता बना रहीं हैं?"

दादीअम्मा ने कहा," तुम्हारे अम्मा -बाबा किसी वजहसे अस्पताल गए हैं...!"

बाबा तो कुछ देर बाद लौट आए...आप नही लौटी....
शाम हुई तो मैंने ज़िद की," दादी अम्मा मुझे बस्ती परके बच्चों के साथ खेलना है...उन्हें बुलाओ ना...और रायभान से मुझे,'डम डम डिगा,डिगा ये गाना भी सुनना है..."

दादी अम्माने मुझे समझाते हुए कहा, " आज नही...अभी कल देखेंगे....! चलो आज मैही तुम्हें कहानी भी सुना दूँगी, और खाना भी खिला दूँगी.."

"अम्मा आप देर रात किसी वक़्त आयीं ...मुझे ठीकसे पता नही चला, लेकिन आपको मेरी बग़ल मे पाके बड़ा सुरक्षित लगा..

"सुबह मेरी आँखें खुली, तो फिर आप मेरे पास नही थीं ...मुझे बस्ती परसे रोने धोनेकी आवाजें आ रहीं थीं...मै कुछ समझ नही सकी...जानती थी,कि, बस्तीपरके कई मर्द अपनी बीबिओं को मारते हैं..ऐसेमे वो रोती,रोती माँ या दादी के पास आती थीं..अब जब माँ ख़ुद बस्तीपे मौजूद है,ये मुझे बताया गया, तो मुझे बेहद हैरानी हुई,...माँ के होते हुए भी क्या उन औरतोंको मारा जा रहा है?

मैंने दादी अम्मासे कहा," मुझे बस्तीपे जाना है...मुझे जाने दो ना.....!"

"दादीअम्मा ने मुझे अपनी गोदीमे लेके कहा," अभी नही...शामको देखेंगे......"
"लेकिन आप कलसे मुझे रोक रहीं हैं..मुझे वो गाना सुनना है रायभान से...उसे तो बुला लो ना..!"मैंने अपनी ज़िद कायम रखी......
"अंतमे दादी अम्मा ने शायद सोचा कि, मुझे चंद बातें औरोसे पता चलें, उस बनिस्बत, वो खुद्ही बता दें तो बेहतर होगा......
"वो कहने लगीं,तो मैंने गौरसे उनके चेहरेकी ओर देखा...उनकी आँखों मे पानी था..होंठ काँप रहे थे,....... उन्हों ने कहना शुरू किया," बच्चे, रायभान अब फिरसे यहाँ कभी नही आयेगा.......!"
"लेकिन क्यों? मैंने उसे लात मारी थी इसलिए? मैंने माफी तो माँगी थी..दादी अम्मा आप उससे कहो ना,कि, मै फिरसे ऐसा नही करूँगी.." मुझे अब रुलाई-सी आने लगी थी...

"दादी अम्माके आँखों से अब पानी बहने लगा था...वो बोलीं," रायभान अब भगवान् जी के पास चला गया है! वो दोबारा हमें कभी नही दिखेगा....!"
मेरा मन एकदमसे धक्-सा रह गया..मै इतना जानती थी,कि, एकबार जब कोई "भगवान्" या "खुदाके" पास जाता है तो फिर कभी नही लौटता...! मुझे यक़ीन हो गया कि,वो मुझीसे रूठके चला गया....मेरे बाल मनपे जो उस समय गुज़री, उसका बयान करना कठिन है.....

"बादमे पता चलता रहा...वनुबाई ने चुल्हेपे बड़े-से पतीलेमे, नहानेके लिए पानी गरम करने चढाया था...रायभान और उसकी छोटी बेहेन छबी, वहीँ पे शायद कुछ उधम मचा रहे थे...वो खौलता पानी, चुल्हेपरसे उलट गया और दोनों बच्चों पे जा गिरा...छबू तो बच गयी...रायभान ईश्वर को प्यारा हो गया....

"मुझे याद है, मै, बोहोद दिनों तक सदमेमे चली गयी थी..खानेके लिए जैसे मुझे बिठाया जाता था, मुझे उबकाई आ जाती थी..मुझे अन्य एक बच्चे ने बताया था,कि, रायभान को भूक लगी थी, इसलिए वो अपनी माँ के पास पोहोंचा था..रोटी माँगते हुए...मुझे अब तो याद नही,कि, मै कितने दिन खाना नही खा पायी....

"अम्मा, अगर आप उस शाम मुझसे माफी ना मँगवाती,तो ताउम्र मै पश्च्यातापकी अग्नीमे जलती रहती...कभी खुदको माफ़ करही नही पाती...आजभी वो सारी बातें मेरे मनमे ऐसे अंकित हैं, जैसे कल परसों घटी हों....

सोचती हूँ, मैंने ऐसी हरकत कीही कैसे? क्या सवार था मुझपे? सिर्फ़ किसी अन्य की देखा देखी कर दी? लेकिन,जब कभी मुझे ये बात याद आती है तो शर्मसार हो जाती हूँ...जब कभी, डम डम डिगा, डिगा ये गीत बजता है,तो रायभान का भोला-सा चेरा सामने आ जाता है..."
क्रमश:

Friday, December 18, 2009

माँ, प्यारी माँ ! २

आजसे अपनी माँ के साथ, सीधा संभाषण ही करूँगी...जैसे अपनी बेटीसे करती रही हूँ...मूक...वो सुने ना सुने...चाहती हूँ, कि, ये आलेख मेरी माँ ज़रूर पढ़ें...ईश्वर, ये मौक़ा मुझे ज़रूर देना...ये सँवाद अनसुना ना रह जाय...

"अम्मा...आपकी आजकल, पहले शायद कभी नही आती थी, इतनी याद आने लगी है...
आपकी नवासी का एक छोटा-सा किस्सा सुनाती हूँ आपको..शायद पहले ज़रूर सुनाया होगा, पर फिर एकबार...

कुछ ४ साल की आयु थी उसकी...किसी बातपे मुझसे नाराज़ हुई, और अपना पलंग ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगी...
मैंने कहा," बेटा, जानती हो ये कितना पुराना पलंग है? जब तुम्हारे नाना छोटे थे, तो वो इसमे सोते थे....उसके बाद जब मै छोटी थी, तो मुझे इसमे सुलाया जाता था...बादमे तुम्हारी,मासी, मामा, सब इसीमे सोते रहे...आज वो तुम्हें मिला है..."
जैसे, जैसे मै उसे बता रही थी, वो स्तब्ध होती जा रही थी...आँखें फटी जा रही थीं....! पलंग हिलाना भी बंद हो गया...!
मुझसे बोली," माँ! जब तुम छोटी थीं, तो हम दोनों की देखभाल कौन करता था?"
मै जोरसे हँस पडी,बोली," जब मै छोटी थी,तो तुम दोनों इस दुनियामे नही थे!"
उसकी आँखें औरभी गोल, गोल हो गयीं...बोली," तो फिर हम कहाँ थे?"
"तुम भगवानजी के पास थे,"मेरा उत्तर ....
बेटी: "तो फिर हमें वहाँसे यहाँ कौन लाया?"
मै: " तुम दोनों हमें बोहोत पसंद आ गए...इसलिए तुम्हें हम भगवानजी से माँग के इस दुनियामे ले आए.."

कैसा निष्पाप, भोला बचपन था उसका....
अम्मा ! जब मै छोटी थी, तो मुझेभी ऐसाही लगता था...अपनी माँ हमेशा बड़ी ही रही होगी...याद है आपको मै आपसे कैसे,कैसे सवाल किया करती थी?

मेरी कँघी कर रहीँ थीं आप..मुझे इतना याद है, कि, मेरी छोटी बेहेन का जन्म तब नही हुआ था...मैंने पता नही क्या बात कही, और आप जोरसे हँस पड़ीं..
मैंने आपसे, बड़े अचरज से पूछा," अम्मा, जब आपकी माँ आपके पास नही हैं, तो आप हँस कैसे सकती हैं? आपको रोना नही आता?"
आप फिर एकबार हँस पड़ीं, बोलीं:"एक दिन तूभी मुझसे दूर होगी और फिरभी तू हँस पायेगी...खुदा करे, ऐसा हो....!"

मै खामोश हो गयी...ऐसाभी कभी हो सकता है? माँ साथ न हो? घरमे रिकॉर्ड प्लेएर पे एक गीत हमेशा सुना करती थी मै...शमशाद बेगम का गाया हुआ...."छोड़ बाबुल का घर, मोहे पीके नगर, आज जाना पडा,आज जाना पडा, याद करके ये घर, रोयीं आँखें मगर ,मुस्कुराना पडा, आज जाना पडा.."
याद है,मैंने आपसे पूछा था," अम्मा ! 'बाबुल" का " घर क्या होता है?"
अम्मा: ""बाबुल"का घर मतलब अपनी माँ घर, अपने पिता का घर..."
मै:" और 'पीका' घर मतलब?"
अम्मा:" पीका" घर मतलब, जैसे,ये घर मेरे लिए है...ये घर मेरी माँ का घर नही..मै शादी करके,फिर यहाँ रहने आयी....ये मेरे 'पतीका" मतलब 'पीका" घर है....तेरे 'बाबा' मेरे 'पी' हैं..!"
मै:" क्यों? आपको अपना घर क्यों छोड़ना पडा? नानीअम्मा को बुरा नही लगा आपको यहाँ भेज देना? और वो गानेवाली को क्यों जाना पडा? उसके साथ किसीने ज़बरदस्ती की? उसको रोना भी आया फिरभी उसको क्यों जाना पडा?"

मुझे याद है, आप बोलीं थीं:"एक दिन तुझेभी जाना पडेगा..इसी तरह...और शायद तू खुशीसे जायेगी...हो सकता है, जाते समय रो दे......"
मैंने वो ख़याल अपने मनसे पूरी तरह झाड़ दिया...ऐसा होही नही सकता...मै अपनी माँ, दादा, दादी और इस घर को छोड़ के कहीँ भी नही जा सकती...बल्कि, नही ही जाऊँगी...!

लेकिन, चलीही गयी...हाँ, रोई तो बोहोत...घरको तो भूल पाना ....वो तो खैर , नामुमकिन है...!..उस घरमे कितनेही बदलाव हो गए, लेकिन मुझे, वो घर वैसाही दिखता है, अपने सपनों में, जैसा तब था..जब आपका और मेरा ये सम्भाषण हुआ था...

इतने बरसों बादभी,मुझे "अपने घरके" तौरपे वही घर दिखता है! मुझे अपने ससुराल वालेभी गर सपनेमे दिखते हैं, तो उसी घरमे....! मुझे आजतक कोई अन्य घर दिखाही नही!
और ये बात आपकी छोटी बेटीके साथभी होती है...इतनाही नही..हमें किहीम भी और वहाँ का समंदर भी ( मेरे परदादाका एक घर किहीम, इस गाँव के, समंदरके किनारे, था....मुम्बईके पास), अपने खेतको लगी ज़मीनपे दिखता है...और सिर्फ़ मुझे और कुन्नुको नहीँ...आपके बेटेको भी किहीम का समंदर वहीँ नज़र आता है,अपने सपनोंमे... !!!उसे अपना घर छोड़, अन्य घर जाना नही पडा, तो उसे बचपनका घर सपनेमे दिखना लाज़िम है..लेकिन हम दोनों लड़कियोंको???

पता है आपको अम्मा...जब दादा के गुज़र जानेके बाद, दादीअम्मा कुछ रोज़ मेरे पास आके रहीँ,तो हमारी ये सपनों में घर दिखने वाली बात निकली...हैरान रह वो बोलीं," मुझे मेरा मायका छोडे ७२ सालसे अधिक हो गए...लेकिन, सपनेमे मुझे वही खम्बात का घर दिखता है..!"

सोचो तो ज़रा...दादाके साथ उनकी ज़िंदगी कितनी खुश गँवार गुज़री...! जिस दिन दादा गुज़र गए, वो उन दोनोकी शादीकी ७२ वी सालगिरह थी...! जिस दिन साथ जुड़े , उसी दिन बिछडे...!
लड़कियाँ क्यों "पराया धन" कहलातीं हैं? उनकी जड़ें कितनी अधिक उस भूमी, उस घरसे जुडी होती हैं, जहाँ, उनका बचपन गुजरता है...जहाँ उन्हें अपने यौवन मे पनाह मिली होती है..!!!जहाँ उन्हें सुरक्षित महसूस कराया जाता है...या जाना चाहिए...

वो एक शाम मुझे आजतलक नहीँ भूली...मै अपने दादा-दादीके साथ खेतपे घूमने गयी थी...वहाँसे लौटी तो आप रसोईकी सीढीपे खड़ी मिली..मै आपके क़रीब गयी,तो आपने मेरा माथा चूमा....उस एक प्यारे चुम्बनने मुझे कितना सुरक्षित महसूस कराया...मै इतने बरसों बादभी नही भूली...!

और एक बात के लिए मै आपकी ताउम्र शुक्र गुज़ार रहूँगी....ना जाने उस वक़्त आप मुझसे वैसा नही करवाती ,तो, मै ज़िंदगीभर कितना अधिक पछताती...३ सालकी उम्र होगी मेरी...फिरभी वो वाक़या मेरे ज़हन मे अंकित होके रह गया...नाभी रेहता, गर उसके अगले दिन जो घटा ,वो, ना घटा होता...आजभी सिहर जाती हूँ..आजभी अपनी प्यारी माँ के आगे नतमस्तक हो जाती हूँ...
आपके सदाही रुण मे रहना चाहती हूँ...चाहूँगी..."

Wednesday, December 16, 2009

माँ, प्यारी,माँ! १

बेटीपे लिखा..एक माँ ने..अब एक बेटी अपनी माँ को याद कर ,उसके बारेमे लिखना चाह रही...
चाह तो बड़े दिनों से थी..और ऐसा नही,कि, पेहले लिखा नही..पर ये कुछ नए सिरेसे..एक बेटी, जो,माँ होनेका दर्द झेल रही है....और अपनी माँ का दर्द समझ रही है..उसका बड़प्पन याद कर रही है..उसकी कई बातें, आज मेरे सामने एक दीप शिखा बन खड़ी हो गयीं हैं...

कई बार चाहा,कि, एक औलाद, मुझेभी, याद करे,कुछ इसीतरह, जब भी, किसी अन्य को अपनी माँ को याद करते हुए,पढा,या सुना...शायद, वो मेरी किस्मत नही...
इस आलेखमे, कुछ उन्हीं के अल्फाज़ ,जो,खतों के रूपमे मेरे पास हैं...या बोलोंके रूपमे मुझे याद हैं...उन्हीं को ,उजागर करना चाह रही हूँ..लेकिन,सिर्फ़ उतनाही नही...औरभी बोहोत कुछ...

वोभी मेरे लिए,कितनीही बार फानूस बनी...अपने हाथ जला लिए,ऐसा करते, करते...ज़रूरी नही था,कि, मैनेही उन्हें जलाया हो...लेकिन,हाँ, जाने-अनजाने ये ख़ता मैंने ज़रूर की है...

उनका हर किया,अनुकरणीय ही था,ऐसाभी नही...लेकिन, वो नही था, येभी,कई बार, उन्होंने ने ख़ुद दिखलाया...
आज इससे अधिक लिखनेका समय नही....उनके बारेमे,इत्मिनानसे ही लिखना होगा..दिल भर,भर आता है...
उनपे, उतारा गुस्साभी याद आता है..अपनी हताशा भी याद आती है....

क्रमशः

Tuesday, December 15, 2009

बुलबुल का घोंसला...!



इस बोनसाय के पेड़ के साथ बडीही मधुर यादगार जुडी हुई है....इस बात को शायद १० साल हो गए...एक दिन सुबह मै अपने इन "बच्चों" के पास आयी तो देखा, इस पेड़ पे बुलबुल घोंसला बना रही थी...!कितने विश्वास के साथ....! इस पँछी का ऐसा विश्वास देख, मेरी आँख नम हो आयी...मैंने रात दिन कड़ी निगरानी राखी...जब तक उस बुलबुल ने अंडे देके बच्चे नही निकाले, मैंने इस पेड़ को बिल्लियों और कव्वों से महफूज़ रखा...!
इस परिंदे ने एक बार नही दो बार इसपे अपने घोंसले बनाये...! परिंदे तो उड़ गए, घोंसले यादगार की तौरपे मेरे पास हैं! इसी पेड़ पे रखे हुए नज़र आते हैं, गर गौरसे देखा जाय तो...! लेकिन उन घोंसलों की अलग से एक तस्वीर कभी ना कभी ज़रूर पोस्ट करूँगी...!

इस पोस्ट को नाम देने का दिल करता है सो ये," मेरे घर आना ज़िंदगी..!".....कई बार आना ज़िंदगी....मेरे अपने पँछी तो उड़ गए...दूर, दूर घोंसले बना लिए...लेकिन परिंदों, तुम आते रहना .....अपने घोंसले बनाते रहना...वादा रहा...इन्हें मेरे जीते जी, महफूज़ रखूँगी...!

Saturday, September 12, 2009

गिल्हेरी..१) ये वो नही!

इन यादों की शुरुआत होती है बचपनसे...slide में एक गिल्हेरी दिख है ना? पर ये वो नही...जिसका क़िस्सा बताने जा रही हूँ....

११/१२ साल की उम्र रही होगी मेरी..एक दिन एक गिल्हेरी का बच्चा मुझे और मेरी माँ को नीम के पेड़ के नीचे गिरा मिला...मादा थी..बेचारी तड़प रही थी...अन्य पँछी उसे चोंच मार रहे थे...हमने उसे उठा लिया...नरम कपडेमे लपेट मरहम लगाया...स्याही के dropper से दूध पिलाया...और तभी से उसका नाम सोनू पड़ गया...

या तो माँ की साडी में घुसी रहती या जब मै घरपे होती तो मेरे blouse या frock के collar में छुपी रहती...भूक लगती तो चिकुड देती...धीरे वो इधर उधर आँगन में घूमने लगी...लेकिन जब कभी," सोनूsssssss"...ये आवाज़ सुनती,जहाँ होती दौडी चली आती...ऐसेमे मै उसे कभी मूँगफली , कभी आटा तो कभी कुछ और, खिला देती...फलों की शौकीन तो ये जाती रहती ही है...जिनकी हमारे घरमे कमी नही थी..दादा ने सैंकडो पेड़ लगा रखे थे...

रात में सोने के लिए वो ज़रूर घरमे घुस आती...छोटा-सा मोधा था, उसके नीचे हम री और कपड़े के तुकडे डाल देते और ये उसके नीचे सो जाती।

गरमी का मौसम था। हमारे बिस्तर-बिछौने घरके बाहर लगे थे। लेकिन इसे उसी कालीन पे, मोढे के नीचे सोना होता।

हमारे यहाँ एक औरत काम करती। अक्सर बिछौने वही लगाती। सुबह बाहर से बिछौने उठा लाई और मोढा हटा के उसपे गद्दा पटक मारा...सोनू दम घुट के , दबके मर गयी...

मुझे याद है, मै बड़ा रोई थी...!

लेकिन slide में दिखने वाली गिलहरी और ही है...उसकी कहानी अगली बार...

Friday, August 14, 2009

ये कहाँ आ गए हम...?७ अन्तिम

उस शाम पे आके अटकी हूँ...उस वक़्त , जब मेरे कनोंपे वो ख़बर टकराई...मुझे समझ नही आ रहा था कि मै क्या प्रतिक्रिया करूँ...मेरी क्या प्रतिक्रया होनी चाहिए...??
सबसे पहले तो मैंने वंदन और निम्मीकेही नंबर घुमाए...क्या कमाल था कि दोनों " पोहोंचके बाहर" थे...!! ऐसाभी क्या इत्तेफाक़??उठाके कहाँ दे मारूँ इन उपकरणों को ...? ये नज़दीकियों के साधन, जब दूरियाँ पैदा कर दें, तो इनका क्या फायदा? किसे कहूँ, कि रुको...अभी इन साधनों द्वारा दी जा रही जानकारीपे विश्वास ना करो? जिनसे कहना चाह रही थी...जिनसे सत्य जानना चाह रही थी...उन्हीँ से संपर्क नही हो रहा था...

मैंने निम्मीके सास -ससुरसे पहले संपर्क करना चाहिए??क्या उनके कानों तक तो ये ख़बर नही पोहोंच गयी? गर पोहोंच गयी हो तो मै क्या कहूँगी...? मेरे पास कहनेको क्या रहेगा....?
जब मुझेही उस खबरकी यथार्थता मालूम नही, तो मै क्या कह सकती हूँ? ये, कि आप अभी उस खबरपे विश्वास न रखें...?

और गर नही मिली वो ख़बर तो मेरी परेशानी, मेरी अधीरता वो भाँप नही जाएँगे? और गर निम्मी या वंदन, दोनोसे उनका संपर्क नही, तो क्या मुझसे नही पूछ बैठेंगे...कि मैं कुछ जानती हूँ, उन दोनोंके बारेमे ?
सहजही पूछा जानेवाला प्रश्न होगा वो...तब मै क्या कहूँगी? के कुछ नही जानती? जब बादमे पता चलेगा कि, मै जानती थी...तो फिर क्या जवाब दूँगी? सिर्फ़ ये कि, उस खबरकी सच्चाई नही जानती थी?

मैंने मेरे पतीसे सबसे पहले संपर्क करना चाहिए...कैसी अजीब बात है...मै जब, जब बेहद शशोपंज मे रही हूँ, हर वक्त अकेली रही हूँ...इसमे कभी कोई मेरे साथ नही होता...क्या ये मेहेज़ एक इत्तेफाक होता है या ईश्वर हरबार मेरी परिक्षा लेना चाहता है?

मैंने इन्हें फोन लगाना शुरू कर दिया...." आप जिस व्यक्तीसे संपर्क करना चाह रहे हैं, वो इस वक्त पहुँचके बाहर है.."...उफ़ ! बार, बार यही एक वाक्य मेरे कानोंसे टकराता रहा...निम्मी और वंदन से तो संपर्क पहलेही नही था...

क्या ख़बर थी वो? ख़बर थी...किसी वंदन के सहयोगी द्वारा किया गया वो फोन था...." वंदन की प्रथम पत्नी गर्भवती है...वंदन केही बच्चे की माँ बनने वाली है...!!"

ऐसे कैसे हो सकता है? ऐसी बात वंदन करही नही सकता...लेकिन वो फोन क्यों नही उठा रहा है? वो तो अगली सुबह निम्मीके पास पोहोंचने वाला था....तो निम्मीसे संपर्क क्यों नही कर रहा??

और निम्मी ....? वो मेराभी फोन क्यों नही उठा रही ?? मेरा फोन बजबजके बंद हो रहा था...कितनी बार कोशिश कर चुकी थी....क्या उसे मेरे पहले ये भयंकर ख़बर मिल गयी?

और येभी कि, वंदन अब उसके पास नही लौट सकता? उसने येभी मान लिया कि, निम्मी या निम्मीके परिवारवाले उसे माफ़ नही करेंगे? के गर उसे अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभानी होगी तो उसे, उसकी प्रथम पत्नीके पासही लौटना होगा...? तो क्या निम्मीके प्रती उसकी कोई ज़िम्मेदारी नही? उसकी प्रथम पत्नी कैसे उसपे ये ज़िम्मेदारी डाल सकती है, जब वो कोई छोटी बच्ची नही...? अपने पतीसे कानूनन बिभक्त हो चुकी है...निम्मी वंदन की क़ानूनन ब्याहता है....

जोभी हो, वंदन की ज़िम्मेदारी है, कि, आमने सामने बात साफ़ करे....जिस विश्वासके साथ निम्मीने उसे उसकी भूतपूर्व पत्नीके पास भेजा था....उतनीही ज़िम्मेदारी से , उसने अपना बर्ताव रखना चाहिए था...

सुबह हो गयी....लेकिन मै किसीसेभी संपर्क नही कर पायी....लग रहा था, जैसे मै किसीभी वक़्त अपने होश खो बैठ सकती हूँ....और एक दिन बाद मेरे बच्चे, जो दोनों शेहेरके बाहर थे, लौट आएँगे...मै उनसे अपनी हालत तो नही छुपा सकती...वंदन की कितनी इज्ज़त करते हैं दोनों...उन्हें क्या कहूँगी??

एकेक पल, मानो एक सदीकी तरह गुज़र रहा था....पर वक़्त थम नही रहा था...उसी रफ़्तार से गुज़र रहा था....मुझे चाहे एक पल,एक युग लगे....शांत, स्तब्ध मौहौलमे, मेरे कमरेकी घडीकी टिकटिक सुनायी दे रही थी....मेरे हाथसे फिसल रहे लमहोंका कितना अधिक एहसास करा रही थी....

मेरे घरमे कितनी विलक्षण ख़ामोशी थी....कान कितने अधीर थे कि, कहीँ कोई इंसानी वजूदका एहसास हो...कुछ तो आवाज़ हो...एक बार तो फोन बजे...चाहे कहीँ से हो....अपने मोबाइल से मै चिपकी हुई थी....चाय बनाऊँ ? कॉफी बनाऊँ? पियूँ ? बेहतर लगेगा? नही...बनानेकी ताक़त नही है...कामवाली औरत को छुट्टी दे रखी थी....

पडोसमे जाऊँ? क्या कहूँ वहाँ जाके? जिनके आगे मैंने वंदन को एक फ़रिश्ता बनाके पेश किया था....उन्हें ये कहूँ कि वो फ़रिश्ता क्या...एक घटिया से घटिया आदमीकी तौरपे सामने आ रहा है....बेज़िम्मेदार, डरपोक...

लेकिन मुझे अभी सच पता था? सचमे ऐसा हुआ था? बेहतर होगा, मै ख़ामोश रहूँ....लेकिन ये इंतज़ार मेरी जान ले रहा था...असह्य लग रहा था........टिक टिक....खामोशी को भेदनेवाली यही एक आवाज़.....

मै लेट गयी...पैर...पैर क्या, अब तो पूरा जिस्म काँप रहा था...
और फ़ोन बजा...मै ऐसे झपटी, जैसे चीता किसी शिकारकी तरफ़ झपटता हो....फोन मेरे पतीका था...

" क्या कर रही हो? तुम्हारी आवाजमे इतनी परेशानी क्यों है?",इनकी आवाज़...
" परेशान हूँ...बेहद...आपसे कितनी बार संपर्क करनेकी कोशिश कर चुकी...क्या आपको मेरे sms भी नही मिले?" मै बरस पड़ी ...
" नही तो..मुझे तो हैरानी हो रही थी कि, मै फोन करता जा रहा था, और मुझे मेसेज मिल रहा था," पोहोंचके बाहर...", इनका उत्तर...
"कमाल है...मुझे आपकी ओरसे यही मेसेज मिल रहा था...खैर !आप अभी के अभी, पहले वंदन और फिर निम्मीसे संपर्क करनेकी कोशिश कीजिये....उनसे..."
मै इन्हें निर्देश देने लगी....

"लेकिन बात क्या है? मुझे पहले ये तो बताओ...क्या परेशानी है? ऐसी क्या जल्दबाज़ी है...? हो क्या गया है तुम्हें?", इन्होंने टोक दिया....
मैंने संक्षेपमे इन्हें सारी बात बता दी....ये कुछ समय स्तब्ध हो गए....फिर बोले,
"मेरी निम्मीसे बात हुई.....निम्मीको ये ख़बर दी गयी है....वो पूरी तरह टूट गयी है....मै जानना चाह रहा था तुमसे...कि तुम्हें कुछ आगेकी बात पता है....निम्मीने मुझसे कहा,' मै तो वंदन को माफ़ कर दूँ...पर मुझसे बात तो करे....मै समझ सकती हूँ...इंसान है...उसने उस औरतसे कभी प्यार किया था...लेकिन मुझसे बात तो करे....'..."
इन्हों ने मुझे ख़बर दी।

"तो निम्मीने आपसे बात की..मुझसे नही...? कमाल है...? उसने एक पलभी नही सोचा कि, जब मुझे ख़बर मिली होगी तो मुझपे क्या गुजरेगी..?"अब मुझे निम्मीपे गुस्सा आने लगा....
" देखो, जो मेरे साथ हुआ...वही उसके साथ...उसेभी तुम्हारा नंबर नही मिल रहा था...और ना मुझे पता था, ना उसे, कि तुम्हें किसीने ख़बर दी होगी...", मेरे पतीने मुझसे बताया...

"तो अब हमें क्या करना चाहिए? कैसे पता चलेगा कि, सच्चाई क्या है? कौन बतायेगा? आप वंदन का फ़ोन तो मिलाएँ...", मै बताने लगी....
"तुम्हें क्या लगता है..मैंने वंदन को फ़ोन नही लगाया होगा...? "इन्होंने पूछा....
"चलिए ठीक है...जब मुझे येही नही पता था कि, आपसे निम्मीका संपर्क हुआ, तो मै और क्या कह सकती थी...?"मैंने जवाब दिया....

निम्मीकी प्रतिक्रया सुन, मुझे कुछ तो तसल्ली मिली...गर वंदन सीधे संपर्क करे,तो बात बन सकती है....एक सदमाही सही...हम सभीके लिए...लेकिन, जीवन आगे तो बढ़ सकता है....
उस राततक मेरे पती और बच्चे लौट आए....बच्चे अपनेआपमे इतने मशगूल थे, कि घरमे क्या हालत हैं, उन्हें महसूस ही नही हुआ...थके हुए थे...जल्दी सोभी गए...एक और रात गुज़र गयी....

अंतमे वो लम्हा भी आ गया जब वंदन हमसे रु-बी-रु हुआ....मै बता नही सकती कि, वो दिन मेरे लिए क्या लेके आया....

सारी बातें साफ़ होने लगीं...जो हमें बताया गया था, वो पूर्ण असत्य था...वंदन की पत्नी बीमार थी...वंदन उसे अस्पताल ले गया था...
और जिस व्यक्तीने वो ख़बर दी...वो? उसने क्यों ये सब कहा....वंदन ने उसे नोटिस दे दी थी....जिस अस्पतालसे वंदन जुडा हुआ था, उस अस्पतालमे उस व्यक्तीने कुछ बोहोतही अनैतिक हरकत की थी.....बस उसी बातका उसने बदला लेना चाहा..और हमारे अत्याधुनिक संपर्को के ज़रियों ने, उसने सोचाभी नही था, उतना उसका काम आसान कर दिया...

मेरा ईश्वरके ऊपर, उस विराट शक्तीके ऊपर, तो विश्वास औरभी बढ़ गया...लेकिन, इन संपर्को के ज़रियोंपर कितना विश्वास हमने करना चाहिए....ये सवाल खड़ा कर दिया...आगाह कर दिया उन ४८ घंटोंने....हमें जबतक हमारा अपना, अपने मुहसे कुछ नही कहता....वोभी आमने, सामने...किसी औरपे विश्वास नही रखना चाहिए...हमारी ज़िंदगी तबाह हो सकती है...

दुआ करती हूँ, ऐसा भयानक दौर किसीके ज़िन्दगीमे ना आए.....आज वंदन और निम्मी हमें उतनेही प्यारे हैं...जितनेकी कभी थे....अच्छा हुआ..मुझे ईश्वरने सही बुद्धी दी, कि, मैंने निम्मीके सास-ससुरसे संपर्क नही किया...वरना, उन्हें, उनके बुढापे मे ना जाने कितना अधिक सदमा मिल जाता....अच्छा हुआ कि, उस व्यक्ती के पास उनका नंबर नही था....वरना उसने उन्हें जीते जी मार दिया होता....
समाप्त।

Monday, August 10, 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ६

निम्मी तथा उसका परिवार जब हमारे शहर से बिदा हुए तो लगा, जैसे कोई अपने नैहरसे विदा ले रहा है.....निम्मी इसतरह मेरे गले लगके रोई कि, हर आँख रो दी....अजीब आलम था...माँ-बाबूजी उसके लिए खुश थे...अपने आपके लिए कहीँ एक और बिछोह्का ग़म मनमे छुपाये हुए...

वंदन भी गया.....शायद उसके लिए इतनी दुविधा नही थी...

ब्याह्की तारीखभी तय हो गयी...एक माहके अन्दर, अन्दर सब होना था...और जितना मैंने सोचाभी नही था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे सबकुछ हो गया...ब्याह मेरे घरसे हुआ...विदा किया, निम्मीके सास ससुरने ...जो हमेशा उसके माता पिता रहे....उसकी बेटियाँ, मानो उसकी सखियाँ बन गईं थीं........

उन्हें उनकी पाठशालाकी पढाई होनेतक अपने दादा दादीके पासही रखना तय हुआ था...और निम्मीभी कुछ रोज़ वंदन के साथ बिता, उन्हींके पास चली आयी....

वंदन ने अपनी वैद्यकीय practice के लिए , निम्मीके ससुरालके पासका एक महानगर चुन लिया...केवल दो घंटों का फासला था....
हरेक चीज़ जैसे पूर्व निर्धारित हो, अपनेआप घटती गयी....मुझे कई बार लगता मानो एक सपना देख रही हूँ...
कितनी बार उस विराट शक्तीके आगे नतमस्तक हो जाती....इसकी गिनतीही नही रही...

३ साल पँख लगाके बीत गए.....मेरे बच्चे, दोनों अलग, अलग शेहेर, आगेकी पढ़ाई के खातिर जानेका विचार करने लगे...मै दिल थामे बैठे रही....

वंदन का दुनियाके विभिन्न शहरों मे सेमीनार/ कांफ्रेंस के लिए आता जाता रहता....निम्मीसे फोनपे बात हो जाया करती.....वंदन भी फोन कर दिया करता...निम्मीने एक नामांकित पत्रिकामे काम करना शुरू कर दिया था...एक मौक़ा ऐसा आया, जब उसे अन्य देशमे मेहमान faculty के तौरपे आमंत्रण आया....उसके माँ-बाबूजी ने अपनी पोतियों की ज़िम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली....निम्मी और वंदन, दोनोही दो अलग देशों मे चले गए...

और पता नही कैसे, क्या हुआ, उनका, आपसी तथा, अपने परिवारके साथ संपर्क हो नही पाया....

विवाह्के बाद एकबार वंदन की प्रथम पत्नी ने वंदन के साथ संपर्क बनानेकी कोशिश की थी...निम्मीनेही वंदन को प्रोत्साहित किया कि, वो अपने मनमे कटुता न रखे...और एक दोस्तकी तरह उससे मिल लिया करे...वंदन का UK सबसे अधिक आना जाना रहता....

अबके जब दोनों बाहर मुल्क गए हुए थे, वंदन का आखरी फोन उसकी प्रथम पत्नीके शेहेरसे आया...निम्मीसे बात हुई...और उस वार्तालाप के बाद, वंदन का फोन निम्मीने लगातार बंद पाया...इतनी ख़बर तो मुझे मिली...और फिर उस शाम वो अजीबो गरीब ख़बर.....जिसने मेरे पैरों तलेसे ज़मीन खिसका दी....

क्या, करूँ ? हे इश्वर ! मुझे कोई तो राह दिखा...मै क्या करुँ? मै क्या करुँ ??ये ख़बर एक सपना था या, गुज़रे ३ साल... ......क्या सच था....क्या...क्या.....मेरा मन एक आक्रोश करता जा रहा था....किसे विश्वास दिलाऊँ...? किसकी जवाबदेही करुँ?? ना निम्मीसे संपर्क ना वंदन से.........बस एक वो ख़बर...उसके बाद जिसने वो ख़बर दी, उसके साथभी कोई संपर्क नही....
क्रमशः

Tuesday, August 4, 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ५

मेरी एक पलभी आँख नही लगी...लेकिन कोई थकान नही थी....एक बच्चों की-सी ताज़गी और नए दिनका इंतज़ार...
कई बार मनमे आया निम्मीको गुदगुदाके जगा दूँ...फिर लगा, नही....मेरा मन एक सपना बुन रहा है...उसे जगाके गर ये सपना टूट गया तो??मैंने तो वंदन के दिलो दिमागमेभी एक ख्वाबका बीज बो दिया है...उसके कोंपल बननेसे पहले मुझे उखाड़ फेंकना पडा तो.....?
तो वंदन शायद ज़िंदगीभर निम्मीके आगे नही आयेगा...शायद मेरे आगेभी नही...एक दर्द , जो वो भूलना चाहेगा, मेरेसे मिलना उसे उसीकी याद दिला देगा....
पर मैंने ऐसे नकाराक्त्मक ख़याल दिलमे नही लाने चाहियें....मै नही तो शायद उसके माँ-बाबूजी( मतलब उसके सास-ससुर ), या उसकी अपनी बेटियाँ उसे मना सकती हैं....उसे सोचनेपे मजबूर कर सकती हैं...माँ-बाबूजीको, उनके बुढापेमे एक बेटा मिल जाएगा....वंदन के रूपमे...क्या इतनाभर काफ़ी नही...? उसे तुंरत निर्णय लेनेके लिए तो कोई नही कहेगा...सोच तो सकती है...

अपने पास लेटी ,अपनी सखीपे एक निगाह डाली मैंने....उसका पहला प्यार तो भुलानेके लिए कोई नही कह रहा...उसकी जगह तो कोई नही माँग रहा...बल्कि, उसकी उस भावनाकी हर किसीको कद्र है...
मूँदी हुई आँखें....आँखों के नीचे हल्की-सी कालिमा...मैंने निम्मीको गौरसे निहारा....इतनी मासूम मुझे वो कभी नही लगी थी...और शायद इतनी मायूसभी...समय हर घाव मिटाता है...पर देता क्यों है...? इसने क्या बिगाडा था? या माँ-बाबूजीने...? या उसकी औलादने??
इनमेसे किसी सवालका ना मेरे पास उत्तर था ना दुनियाके किसी ज्ञानी ध्यानीके पास...अपना नसीब....और क्या कहेँ?

निम्मीने एक करवट लेनी चाही शायद और उसका हाथ मेरे हाथपे आ पडा...एक झटकेसे जाग गयी...ऐसे जागी मानो किसी सपनेसे जागी हो...बड़ी हैरत से उसने मुझे एक आध पल देखा...बोली'" ओह! भूलही गयी थी कि तेरे घर सोयी हूँ...!और मै कब सो गयी? तू कब आयी सोनेके लिए? ..अरी बोलना....क्यों घूरे चली जा रही है...?"

अब मेरा दिल धक् से रह गया...वो वक्त आ गया था, जब मुझे उसके आगे कुछ उजागर करना था...मैंने अपने अल्फाज़ भी अभी चुने नही थे...उधेड़ बुनमेही लगी हुई थी...और ये सवालपे सवाल किए जा रही है....चाय बनाते, बनाते अपने शब्द चुन लूँ? और ये साथ आके खडी हो गयी तो...?

"निम्मी...तू.....और सोना तो नही चाह रही...मतलब उठनेकी कोई जल्दी नही है....आरामसे उठ...छुट्टियाँ मनाने आयी है...जल्दी क्या है...?" मैंने अपनी इच्छाके पूरी विपरीत बात कही...मै तो कबसे चाह रही थी कि, ये जग जाय...और अब अचानक से जाग गयी तो मै बौखला रही हूँ...

"नही तो...और कितना सो लूँगी...? मुझे तेरे साथ गप लगानी है...ऐसे मौके बार, बार थोडेही आएँगे?अच्छा चल...मै ज़रा मुँह धो लूँ....बस दो चार मिनट देदे......मै ये गयी और ये आयी..."कहते हुए निम्मी पलंग परसे उतर आयी और स्नान गृहमे घुस गयी...
मैंने रसोईकी और अपना रुख किया....किसीभी पल निम्मी बाहर आयेगी....मुझे खोयी-सी देख फिर पूछेगी...उधर वंदन इंतज़ार कर रहा होगा...वो सुबह्के नाश्तेके लिए आयेगा या नही....? निम्मीके जवाब पे मुनहसर होगा....गर उसकी द्विधा मन:स्थिती होगी तो शायद वो आना नही चाहेगा....

मै चायके उबलते पानीको घूरे चली जा रही थी और निम्मी पोहोंच गयी...
"अरे क्या कर रही है...?सुबह्से देख रही हूँ, तेरा ध्यान किसी औरही बातमे है...पानी खौलता जा रहा है और तुझे तो जैसे नज़रही नही आ रहा...चल हट...आज मै बनाती हूँ चाय....या तो बिना पत्तीकी बनाएगी या बिना दूधकी...," कहते हुए उसने मुझे परे कर चाय बना भी ली..प्याले भर ट्रे में रखे और हम दोनों बरमदेमे आ बैठे...

कूर्सीपे आरामसे बैठ फिर एकबार मुझसे मुखातिब हुई," हाँ अब बोल...क्या बात है जो तू छुपाये जा रही है...? रातमे ऐसा क्या घट गया कि मेरी सखीके चेहरेपे हवाइयाँ उड़ रही हैं...अरी बोलना......?"
ये वही पुरानेवाली बेसब्र निम्मी थी....और मै संजीदा....

उसकी बाँह पे मैंने अपना हाथ रखा और बडेही स्नेह्से उसे भींच लिया....फिर अपने गालोंपे लगा लिया....और मेरे मूहसे कुछ अल्फाज़ बेसाख्ता निकल्ही पड़े...जिन्हें अब रोकना मुश्किल भी था और लाज़िम भी नही था...ऐसा करना वंदन पेभी एक दबाव बनाये रखता.....

मैंने उसकी आँखोंमे गहरे झाँकते हुए कहा, "निम्मी,तुझसे कुछ संजीदगीसे बात करना चाह रही हूँ.....ज़्यादा भुमिका नही बनाउँगी...कुछ बातें माँ-बाबूजीसे कर चुकी हूँ......अब तुझसे...कोई दबाव नही...सब निर्णय तेरेही हक़्मे होंगे, तेरीही मर्ज़ीके मुताबिक ...हम सभी तुझसे बेहद प्यार करते हैं.....बस इस बातको हमेशा अपने मनमे गाँठ बाँधके रख ले...."

"पर तू तो पहेलियाँ ही बुझाए जा रही है...मै विचलित हुए जा रही हूँ...अब बोलभी दे...जोभी मनमे है...मेरा वादा रहा कि, मै किसीभी बातको ना तो अन्यथा लूँगी या बुराही मानूँगी ....मेरे माँ-बाबूजी, तू, तेरे मेरे बच्चे, ये सब मेरे खैरख्वाह हैं...मेरा बुरा सोचही नही सकते...तो अब बता दे..."उसने खाली प्याला मेज़पे रख दिया...और मेरी शकल की ओर अपलक देखने लगी....

अब मेरे आगे कोई चाराही नही था...ना अधिक भूमिका बनानेका प्रयोजन....मै बस बोलते चली गयी....उसको पूर्व संध्यामे हुई माँ-बबूजीके साथकी बातें...बादमे वंदन के साथ हुई बातें...मेरा अपना विचार..सबकुछ, एकही साँस मे बता दिया...

निम्मी एकदम खामोश हो गयी...मैंने इसी प्रतिक्रियाकी आरम्भमे उम्मीद की थी...ना जाने उसकी आँखोंके आगेसे क्या, क्या गुज़र जायेगा...एक बिखरी ज़िंदगीके सँजोए सपने...उनका टूटना और अब फिरसे एक निर्णय...जबकि वो शायद किसी गंभीर निर्णय लेनेकी अवस्थामेही नही थी...

कुछही पल बीते, जिसके पहले कि वो कुछ बोली..पर लगा बोहोत वक्त गुज़रा....उसने मेरा हाथ अपने हाथों मे कसके पकड़ा और फिर उठके मुझे अपने सीनेसे भींच लिया.....सिसिकियाँ फूट पड़ीं.....मै उसकी पीठ सहलाती रही...एक बार लगा, माँ-बाबूजीको पहले बुला लिया होता तो शायद बेहतर होता...मैंने उसका चेहरा अपने हाथों मे लेके उससे पूछा," निम्मी, क्या तू चाहती है, कि, इसवक्त माँ-बाबूजी तेरे साथ हों? या तेरी अपनी बेटियाँ? तुझे कोई अपराधबोध तो नही हो रहा...गर ऐसा..."

वो मुझे फिर एकबार कसके बिलग गयी,बोली," नही रे....ऐसा सोचभी कैसा सकती है तू...मै तो गदगद हो गयी कि, मेरे अपनोंने मेरे लिए कितना कुछ सोचा...ऐसा किसका नसीब होता है, जो मेरा है..ऐसे सास-ससुर, ऐसे बच्चे, ऐसी सहेली और एक ऐसा बचपनका दोस्त जो मुझेही नही, मेरे ससुरालको अपनाने खड़ा है....
"मै ख़ुद लज्जित हूँ कि, मेरी तो इतनी हैसियतभी नही..... सब मेरा इतना ख़याल करें...मेरे सुखी भवितव्य के आगे अपना भवितव्य भुला दें.......मै तो वंदन काभी बड़प्पन कहूँगी कि, उसने अपने परिवारसे बात किए बिना अपना निर्णय सुना दिया...और उसपे वो अडिग रहेगा येभी जानती हूँ.....नतमस्तक हूँ इन सभीके आगे.....निर्णय अब मै मेरे हाथमे नही, आप सभीके हाथमे छोड़ देती हूँ.....जानती हूँ, एकबार मै ग़लत हो सकती हूँ, पर मेरे अपने नही...आँख मूँदके विश्वास करती हूँ..."

निम्मी काफ़ी देर भावावेशमे बोलती जा रही थी...और मुझे एक राहत मिलती जा रही थी...उसने वंदन को नकारा नही था.....इस वक्त वंदन के लिए इतनाही काफ़ी था...कुछ देर उसे शांत करके मैंने स्नानके लिए भेज दिया...और फिर सबसे पहले वंदन को फोन कर अपने घर बुला लिया...ताकि माँ-बाबूजी भोजनके समयतक पोहोंचें तो इन दोनोंकी कुछ तो आपसमे बात चीत हो सके.....

मुझे ये काम जितना कठिन लगा था, उतना नही था....अब आगे काफ़ी कुछ वंदन के रवैय्येपे मुनहसर था..उसकी संजीदगीपे काफी दारोमदार थी....
वंदन, निम्मी नहाके निकली उसके पहलेही मेरे घर पोहोंच गया....बल्कि उन दोनोको थोड़ा नाश्ता और कॉफी देनेके बादही मै नहाने चली गयी और शांती-से स्नान किया...चाह रही थीकि, उन दोनोको अकेलेमे बातचीत का मौक़ा मिले.....

खाना चाहे घरपे बना लें...चाहे इन दोनोंको बाहर भेज दें...माँ-बाबूजीके साथ एकबार वंदन को अब मिलवानाही था....एक बेटा पाके, वो खुशही होंगे....मैंने सोचा था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे घटनाक्रम घट गया था...निम्मीका मुझपे, अपने परिवारपे , अटल विश्वास देख मै निहाल हो गयी....बार, बार उस विधाताके आगे नतमस्तक होते हुए मेरी आँखों से अविरल धारा बहती रही....

अबतो कितना कुछ करना था...वंदन को अपने माता पिताको ख़बर देनी थी...निम्मीको अपने माता पिताको..मुझे अपने नैहर और ससुरालमे.........

दोपेहरके भोजनके लिए मैंने निम्मीको अपने हाथोंसे तैयार किया...उसनेभी बिल्कुल ना नुकुर नही की...जानती थी,कि उसकी ना नुकुर सभीका मूड ख़राब कर सकती है......माँ-बाबूजीका दोनोने आशीर्वाद लिया और तब बाहर गए....मैंने उन दोनों वृद्धों को अपने आँसू पोछते हुए देखा...लड़कियाँ तो खुशीसे फूले नही समाँ रही थी....मेरे बच्चों के साथ मिल उनके तो ना जाने कितने प्रोग्राम तय होने लग गए थे.....मै चोर निगाहोंसे वंदन को देख लेती...उसकी निगाहें, निम्मीका पीछा करती रहतीं...और जब कभी उसे महसूस होता कि पकडा गया है, तो हलकेसे मुस्काके मुझे एक स्नेहभरी निगाहसे देखता....

अब एकही दुआ मेरे मनसे निकल रही थी..."हे इश्वर....अबके सब ठीकठाक करना....बस मेरे इन फरिश्तों जैसे दोस्तों के जीवन मे खुशियाँ ही खुशियाँ भर देना...माँ-बाबूजीको उनकी बुढापे की लाठी दे देना...बड़ी पुण्यात्माएं हैं.....शत शत बार तेरे दरपे नतमस्तक हूँ....अपना नज़रे करम रखना...."

मेरा नेक, पाक,साफ़ इरादा ईश्वरने मान लिया था...मंज़ूर कर लिया था...मुझे तो रहके रहके विश्वास नही हो रहा था...निम्मी और वंदन बाहर जानेको निकले तो मैंने अपनी आँखोंके काजलका टीका दोनोंके कानके पीछे लगा दिया....भगवान् इन्हें हर बद नज़रसे बचाना...
क्रमश:

Monday, August 3, 2009

ये कहाँ आ गए हम ? ४

उस रात मैंने निम्मीको अपनेही घर रोक लिया....उसके माँ-बाबुजीको क़तई ऐतराज़ नही था...वो तो किसी तरहसे निम्मीको हँसमुख देखना चाहते थे....उसके बच्चे अपने दादा-दादीके पास लौट गए...दोनों लड़कियाँ बेहद जिम्मेदार और स्नेहमयी थीं....

गर मेरे पती घरपे होते तो शायद मै वंदन कोभी, मेरेही घर रोक लेती...लेकिन निम्मीसे खूब जी भरके बातें होती रहीं....निम्मी अपने खोये प्यारको याद करतेही रो पड़ती....उसके पतीने उसे बेहद प्यार और सम्मान दिया था...ऐसी किस्मत विरलाही होती है, ये वो और मै दोनोही मान गए थे...

सुबह नाश्तेके समयतक वंदन भी आ पोहोंचा....बच्चे हमें पूछ, अपनी, अपनी दिनचर्या बनाते रहे....सभी इतने हिलमिल गए थे कि माना नही जाता था .....पहचान बस अभी अभीकी है....

माँ-बाबूजीको किसी मंदिरके दर्शन करनेकी चाहत थी...मैंने बच्चों को ये ज़िम्मेदारी सौंप दी....कोई न-नुकुर नही हुई...मैंने अपनेआपको इस मामलेमे खुशकिस्मत समझा...वरना अक्सर बच्चे ऐसी जिम्मेदारियाँ स्वीकारना नही चाहते...और कुछ तो निम्मीकी बेटियोंका असर ज़रूर था...दोनोही अपने दादा-दादीका बड़े मनसे ख्याल करतीं...

जब ये सब अपनी अपनी दिशओंमे निकल पड़े, तो हम तीनो फिर गपशप मे लग गए....मै दो चार बार रसोईके लिए उठके अन्दर चली जाती रही....खाना झटपट वाला बनाया था....अधिकसे अधिक समय बातचीतमे गुज़ारना चाह रही थी....
दिनके ढलते एक बात मुझे महसूस हुई, वो ये कि , वंदन निम्मीकी ओर मोहित हो चला है....उसकी हर छोटी ज़रूरतका, मूह खुलनेसे पहलेही अंदाज़ लगा लेता....मुझसे ये बात छुपी नही...निम्मीने शायद गौर किया नही.....
एक ख्याल मनमे मेरे चोर क़दमोंसे दाखिल होने लगा...गर ये दोनों अपना घरौंदा फिर एकबार बसा लें तो??

जानती थी, कि , माँ बाबूजी तो खुशही होंगे....बेटी समझ उसका कन्यादान कर देंगे.....क्या निम्मी मानेगी? वो अभीभी अपने पहले प्यारकी दुनियामे जी रही थी....कहीँ न कहीँसे अपने बिछडे प्यारको, वो अपने संभाषण मे लेही आती....उसके बारेमे क्या कह डाले, कितना कह डाले....उसके लिए कम था...सारे बाँध खुल गए थे....और हम उसे रोकना टोकना नही चाहते थे....भरी भरी-सी एक बदरी थी...छलक जाना बेहतर था....

पर वंदन फिर कब मिलेगा...? ऐसा मौक़ा कब फिर आयेगा? ये सब कुछ एकसाथ घट रहा था...... नियतीका कुछ इशारा तो ना था...मै नही तो, इस वक़्त कौन समझदारीसे क़दम उठा सकता है...?
उस शाम मै खामोश-सी रही....कुछ रसोईका बहाना, कुछ अन्य कामोंका बहाना बनाके, वंदन और निम्मीको नदीके किनारे, जो एक पहाडीके पास गुज़रती थी, घूमनेके लिए भेज दिया....बेताब थी, कि जब दोनों लौटेंगे तो कुछ तो बात आगे बढ़ी समझमे आयेगी.....

लेकिन नही समझ पाई...हाँ! वन्दनको ज़रूर मैंने थोड़ा खामोश पाया...अब मैंने अपना दिल कडा किया...माँ-बाबूजीको मिलने मै देर शाम उनके गेस्ट हाउस पोहोंचही गयी....समय कम था...और बातकी नज़ाकत समझनी ज़रूरी थी....निम्मीकी ओरसे अधिक....माँ-बाबुजीका रवैया तो मुझे हर तरहसे आश्वस्त कर गया गया था......
मैंने, अधिक भूमिका ना बनाते हुए, सीधेही उनकी राय पूछ ली....

दोनोंकी आँखोंमे पानी छलछला आया....कुछ देर खामोशी छा गयी...एक ज़िंदगी मेरे आँखों के आगेभी घूम गयी...निम्मीसे बिछड़ना...मतलब अपनी औलादसे जुड़े एक अध्याय को अपनेसे जुदा कर देना...
अपनी लाडली पोतियोंको से अलग होना...चाहे वो उन्हें मिलती रहें...कोई बीचका ऐसा मार्ग था, कि, जो इन नए रिश्तोंके बन जानेके बादभी, शारीरिक नज़दीकियाँ बनाये रखे?

वंदन का काम इस बातमे आडे आनाही था....उससे कितनी उम्मीद रखी जा सकती थी? अभी तो उसके साथ बातभी नही हुई थी...नाही निम्मीसे...उसकी क्या प्रतिक्रया होगी? उसकी बेटियाँ? जानती थी, कि , अपनी माँ के हर सुखमे उनकी ख़ुशी है....

निम्मीसे कुछभी कहनेसे पूर्व, मैंने वंदन से बात करना ज़रूरी समझा....उसे निम्मी सो जानेतक रुकाये रखा....जब मैंने देखा, कि, निम्मी गहरी नींदमे सो गयी है, मै बाहर आ गयी.......वंदन के साथ काफी के प्याले लेके बैठ गयी........ सीधे उसकी आँखोंमे झाँकते हुए, सवाल कर दिया," निम्मी के बारेमे तुम जितना ज़रूरी है, उतना तो जानही गए हो...दोनोंके आगे लम्बी ज़िंदगी है...एक दोस्त, हमसफ़र की ज़रूरत है...जो एकदूसरेका सहारा हों, एकदूसरेको समझें....और सफर तय करें....बचपनके साथी होनेके कारण काफ़ी कुछ खुली किताब-सा है....क्या ऐसा हो सकता है?"

वंदन ने खामोशीसे सब सुन लिया और बोला," गर मुझसे पूछो तो निम्मीने तुंरत मेरा मन मोह लिया....शायद उसकी संजीदगी कहो या, निष्कपटता कहो.....ज़राभी बनावट नही है उसमे...और ऐसेही नही उसके सास-ससुर उसकी इतनी इज्ज़त करते हैं......पर उसकी राय बेहद ज़रूरी है...और प्लीज़ , इस बारेमे बात, मेरे जानेके बाद करना...मै संपर्क मे रहूँगा...वरना मै उसके साथ आँख न मिला पाउँगा..."

वंदन का जवाब सुन मेरे मनमे एक विलक्षण खुशीका एहसास हुआ...काश!!ऐसा हो जाए...काश ये दोनों अपना जीवन नए सिरेसे बसा लें...वंदन एक जिम्मेदार पिता साबित होगा इस बारेमे मुझे कोई शक नही था....
कल जैसेही वंदन जायेगा, मै निम्मीके साथ बात कर लूँगी...और फिर उसकी बेटियोंसेभी .........
शुभस्य शीघ्रम........मै खुदही बेताब हुए जा रही थी....उन दोनों को खुश देखना चाह रही थी.....जहाँ चाह वहाँ राह....यकीनन, मेरे इरादे इतने, नेक,पाक साफ़ हैं.....मुझे अवश्य सफलता मिलेगी.....उस रात मै, इन्हीं दिवासपनोंमे खोयी रही....निम्मीके जागनेका इंतज़ार करती रही.....

Saturday, August 1, 2009

ये कहाँ आ गए हम ?३

इन्तेज़ारकी घडियाँ ख़त्म हुई...तक़रीबन साथ, साथ ही , निम्मी तथा उसका परिवार और वंदन, मेरे घर पोहोंच गए....!

मै निम्मीकी सहेली थी...उसके सास ससुरके लिए, मैभी उनकी बेटीही थी...जब भी उन लोगोंसे मिली, उन्हों ने उसी प्यार और अपनेपन से मुझे गले लगाया था....आजभी....मेरे बच्चों को अपनेही नवासा-नवासी माना.... .....जोभी हो, उनके प्यारमे बेहद निश्चलता थी.....कोई दिखावा नही, कोई बनावट नही....ऐसे इंसानों के साथ क्यों किस्मत ने ऐसा छल किया? एकही एक ऑलाद, और वोभी छिन गयी??

खैर...! वंदन, उन सबसे पहली बार मिल रहा था...मैंने अपनी आँखोंमे भर आए आँसू छुपाते हुए, उनका वंदन से परिचय कराया.....निम्मीकी दोनों बेटियाँ भी बडीही स्नेहमयी थीं...बड़ी ज़रा मोटू..छोटीवाली छरहरी....मेरे बच्चे शायद ज़रा अंतर्मुख थे...लेकिन इन दो लड़कियों ने पलभर मे ऐसा मौहोल बनाया मानो, उनका रोजमर्रा का मेलजोल हो....!

मेरे पती शेहेरके बाहर गए हुए थे....अगले दिन शामको लौटने वाले थे...सोचा, देखते हैं...गर फिर एकबार हम सब इकट्ठे हो सकेँ तो...लेकिन, उनके आनेपरही इन सभीको बुलाना...इतना धीरज मुझमेही नही था....बेकरार हो उठी थी सबसे मिलनेके लिए....!

खाना कब परोसा गया...कब खाया गया...समय किस रफतारसे बीतता गया....पताही नही चल रहा था.....हर व्यंजनकी तहे दिलसे तारीफ़ करते हुए, निम्मीके सास-ससुरने भोजन किया....निम्मीकी बड़ी लडकी, मेरा बेटा और वंदन, तीनो शतरंज के अच्छे खिलाड़ी थे....निम्मीकी छोटी लडकी को संगीत और नृत्य मे बेहद रुची थी....
उसे मेरा तबला और पेटी दिख गयी..मैंने तो उन्हें छूना पता नही कबसे बंद कर दिया था....वो जब हाथ धोने मेरे कमरेमे गयी तो उसने ये साज़ देख लिए....मुग्धता से उन्हें निहार रही थी, और मेरी नज़र पड़ गयी....मैंने कहा,
" क्यों, मन है इन्हें एकबार सुरमे लानेका?"
"जी, मासी...बोहोत...मै बजा सकती हूँ???"मुग्धाने मुझसे पूछा...हाँ, उसका नाम मुग्धाही था...
"बच्चे, ज़रूर...इनकी तो किस्मत खुल गयी...!" मैंने खुश होके कहा...
उसने पलकीभी देरी नही की....नाही उसे कोई झिझक थी....हारमोनियम को सुरमे लाके, उसने तबलेपेभी अपना हाथ आज़माया...साथ मीठी, सुरीली आवाजमे गुनगुनाती रही...

इधर मेरा बेटा, निम्मीकी बड़ी बेटी, शुभ्रा और वंदन शतरंज लेके बैठ गए....वैसे खेल तो शुभ्रा और वंदन रहे थे, लेकिन मेरे बच्चे, दोनोंके बीछ टांग अडा रहे थे....शुभ्रा वंदन को चेकमेट देनेही वाली होती,कि, मेरा बेटा, उमंग, वंदन को आगाह कर देता...और शुभ्रा चिल्लाके मुझे पुकारती...,
" मासी...इसे यहाँसे हटाओ ना...देखो इसने तीसरी बार, मेरा बँटा धार किया है.....!"
मै उसे वहाँसे हटनेके लिए कहती तो वंदन, उसे खींचके अपने पास बिठा लेता...मेरी बिटियाने शुभ्राको आगाह करना शुरू कर दिया...हालाँकि वो, (मोहिनी),इतनी माहिर नही थी, जितना कि मेरा बेटा...

चायका समय होने आया तो मैंने पास जाके सारे मोहरे उलट पलट दिए.....!तब कहीँ जाके वंदन उठा और हमलोगोंके साथ आ बैठा.....निम्मीके सास-ससुर, खानेके बाद कुछ देर आराम करने कमरेमे चले गए थे...मै चाय बनाने रसोईमे मुडी तो निम्मी और वंदन, दोनों मेरे साथ आके खड़े हो गए ......
बातचीतका एक अलगही दौर चल पडा....जिसने हमारे बचपनकी और रुख किया...और फिर अपने, अपने जीवनके उतार चढाओं के ओर मुड़ गया....
कई घटनाएँ ऐसी थीं, जिनसे वंदन वाक़िफ़ नही था...और उसके अपने जीवनमे काफ़ी कुछ था, जिससे मै और निम्मी वाक़िफ़ नही थे.....

हम तीनों बातों मे लग गए तो हमारे बच्चों ने बिन कहे, चाय-नाश्तेके दौरको अपने आप सँभाल लिया...अपने दादा-दादीको चाय नाश्ता परोस दिया....उन्हें बगीचेमे ले गए....पताही नही चला कि, कब शाम गहराती गयी....
"चलो, हम सभी रातका खाना कहीँ बाहर खा लेते हैं....!"
"हाँ, हाँ, ऐसाही ठीक रहेगा...चलिए मासी, आपकोभी थोडा आराम मिल जायेगा...", मुग्धा बोल पड़ी.....निम्मीनेभी ज़ोर दिया...सबका यही विचार था कि, कुछ और समय इकट्ठे बितानेके लिए मिल जायेगा....

निम्मीके सास-ससुरने कहा," भई, हमलोग तो रातमे मुश्किल से कुछ खाते हैं...और वैसेभी दोपेहेरका भोजन अभी हज़म नही हुआ...हम दोनोको तो गेस्ट हाउस छोड़ दो...तुम सब घूम आओ.."

मेरे बेटे उमंगने कहा," पर हम चारों कहीँ और जाएँगे...आपलोगोंके साथ नही.....ममा...हमने तो सोच लिया कि, मल्टीप्लेक्स मे जाके १० बजेका शो देखेंगे.....चलेगा ना?"

सब इस तरहसे हिलमिल गए थे कि, मेरे ना कहनेका सवालही नही उठता था....
निम्मी मुझसे बोली," उफ़! तू मेरी साडी तो देख...कितनी चुम्हला गयी है...कैसे लगेगी....?"

"तो क्या? तू मेरी कोई साडी पेहेन ले....चोली तो एकदम अच्छी है...इसी चोलीपे मेरी ४/५ साडियाँ पहनी जा सकती हैं...चल आ मेरे कमरेमे...और चुन ले....!"मैंने उसे खींचके उठाते हुए कहा....

"मतलब तुम दोनों तो खूब सज सँवर लोगी और मै ऐसेही चलूँ...? या तो तुम दोनोका ड्रायवर लगूँगा या बॉडी गार्ड.... ........!"वंदन कह उठा....
" अब चल भी ...ज़्यादा नाटक नखरे मत दिखा...", मै बोल पड़ी...
"मुझे कमसे कम मुँह हाथ धोनेका तो मौक़ा दोगी या नही तुम दोनों..?"
वंदन ने बड़े नाटकीय ढंगसे हाथ जोड़ते हुए कहा....
" हाँ, हाँ....लो, चलो, मौक़ा और तौलिया दोनों हाज़िर हैं..!."मैंने स्नानगृह की ओर इशारा करते हुए कहा.....

चंद मिनटों मे सब तैयार हो गए....बच्चों ने अपना रुख कर लिया...हम तीनों ने पहले, माँ और बाबूजी को गेस्ट हाउसपे छोडा और फिर एक ज़रा शांत होटल की तलाशमे निकल पड़े.... चयन का काम तो मुझपेही सौंपा गया....

याद नही कि तक़रीबन चार घंटे कैसे बीत गए.....वंदन, जोकि, दूसरेही दिन लौटने वाला था...और दो दिनों के लिए रुक गया....इधर मेरे पतीकी वापसी ३ दिनोंके लिए और आगे मुल्तवी हो गयी...वंदन चाह रहा था, कि, इनसे मिलता जाय ...पर आसार नज़र नही आ रहे थे....

मै मनही मन खुश थी कि, निम्मीको अपने दुखोंसे, यादों से, कुछ तो निजात मिल रही थी....उसकी उदासी किसी परछाई की तरह, उड़न छू होते जा रही थी.....फिरभी, बेमौसमकी बदरी की भाँती, लौटभी आती....लाज़िम था....घाव हरा था...बहने लग जाता....

अगले दिनका क्रम हमलोग तय कर रहे थे......जितनाभी समय हमलोगोंके पास था, हमने इकट्ठे ही बिताना था...ऐसा मौक़ा फिर मिले ना मिले....किसीको कोई ऐतराज़ भी नही था....निम्मीके सास-ससुर तो निम्मीके लिए खुश ही हो रहे थे....हम बिछडे इस तरह से मिले थे, जैसे कभी जुदा हुएही न हों.....इन दो-तीन दिनोंमे कितना कुछ घटनेवाला था, किसे ख़बर थी...?
क्रमशः

Friday, July 31, 2009

ये कहाँ आ गए हम...? २

क्या लिखूँ...कहाँसे शुरू करुँ? वंदन और निम्मी के बारेमे बताना...?कितना पीछे चली जाऊँ....मन टटोल रही हूँ...

वंदन, मै और निम्मी, एकदूसरेको बचपनसे जानते थे...महाविद्यालायके दिन आए तो, वंदन ने अपनी पढाईके लिए दूसरा शेहेर चुना...मै और निम्मी उसी शेहरमे, लेकिन अलग, अलग विषय होनेके कारण दो भिन्न महाविद्यालायोंमे पढ़ते रहे.....
जितना पाठ्शालाके दिनोंमे एकदूसरेके घर आना जाना होता था, अब कम हो गया...मैंने अपनी स्नातक की पदवी पा ली और साहित्य विषय मेही MA करने का निर्णय ले लिया। निम्मीने मास communication का कोर्स ले लिया।
अक्सर छुट्टियों मे वन्दनसे मुलाक़ात हो जाती। वंदन ने मेडिसिन शाखा चुनी थी। MBBS के बाद उसने अपनी internship मुम्बईमे पूरी की...तेज़ दिमाग़ था...लगन थी...सर्जरी शाखा चुन वो UK चला गया....FRCS भी बन गया....
निम्मी ने अपने पसंदके लड़केसे शादी कर ली...वो व्यक्ती उसके महाविद्यालय के faculty पे था। सुलझा हुआ....स्नेहिल और हँसमुख...परिवारभी खुले खयालात का...दोनोंके परिवारवाले प्रसन्न थे...

निम्मीके ब्याह्के चंद दिनोबाद मेराभी ब्याह हो गया...अब हमलोग वाकई बिछड़ गए...ख़तोकिताबत एकही ज़रिया था तब...या कभीकबार फोन....संपर्क बनाए रखनेका...
वंदन के साथ तो मानो संपर्क नाके बराबर रहा....निम्मीकी खबरभी मुझे अधिकतर मेरे नैहरवालों से मिलती...मेरा पीहर एक गांवमे था....वहाँ तो फोन नहीही था...
दिन महीने साल गुज़रते रहे....अपने, अपने उतार चढाओं के साथ हम अलग, अलग मोडोसे मुड़ते हुए, जीवन पथपे चलते रहे...

वंदन का भी ब्याह हो गया था...उसकाभी अपना परिवार था...वो UK मेही स्थायिक था...उसकीभी ख़बर मुझे अपने नैहरसेही मिल जाती...
मेरी और निम्मीकी शादीको १४/१५ साल हो गए थे...निम्मीको दो बेटियाँ थी....वंदन को कोई औलाद नही थी...मै कभी उसकी पत्नीसे मिलीही नही थी...नाही निम्मी....मेरे परिवार तथा बच्चों के चलते, मेरा अपने नैहर आना जाना काफ़ी दूभर हो गया था...बीमारियाँ, स्कूल, परीक्षाएँ...सभी कारण मौजूद रहते....

और एक दिन ख़बर मिली कि , निम्मीके पतीका एक सड़क दुर्घटना मे अंत हो गया....कितना सुखी परिवार था...मानो किसीकी नज़र लग गयी....
निम्मी के ससुरालवालों ने उसे अपनी बेटीही माना था....उसे हर तरहसे मनोबल दिया...अपना दुःख भूल, उसके सास ससुर, उसीकी चिंता करते....मै ख़ुद उसके पास कुछ दिन गुज़ार आयी...

इस घटनाकोभी देखतेही देखते एक साल हो गया...अबके, बड़ी मुद्दतों बाद मुझे अपने नैहरमे कुल २५ दिन बितानेका मौक़ा मिला....एक रोज़ शाम ऐसेही हमसब बैठे हुए थे कि , मुझे वंदन के बारेमे पूछ्नेकी सूझ गयी....और सुना कि उसका तो ब्याह कबका टूट गया....! ३/४ साल हो गए उस बातको....! और अब तो वो भारत लौट आनेके प्रयासमे था....!
एक ओर ख़ुशी हुई कि, अपने बचपनका साथी भारत लौट रहा है...दूसरी ओर दुःख हुआ कि, उसके जीवन मे इसतरह से अस्थैर्य आ गया....

मै लौट गयी अपने ससुराल....कुछ छ: माह बादकी एक बात बता रही हूँ...निम्मी और उसके परिवारवाले , छुट्टियों मे घुमते घामते हमारे शेहेर आ पोहोंचे...मै बेहद खुश हुई...पर मनही मनमे एक बात आही गयी...काश निम्मी, अपने पतीके रहते, एक बार तो आयी होती...!

उन लोगोंको आए २/३ दिनही हुए थे, कि मुझे वंदन के ,उसी शेहेरमे आनेकी ख़बर मिली...मैंने उसके साथ बडी शिद्दतके साथ संपर्क किया...उसे आग्रह किया, कि, वो मेरे घर ज़रूर आए...कि,निम्मी भी आयी हुई है, अपने परिवारके साथ...उसने सहर्ष मान लिया...मैंने सभीको भोजनपे आमंत्रित किया....

लग रहा था, मानो अपना बचपन लौट रहा है...क्या, क्या, बातें होँगी...कितना अरसा हो गया....कितना कुछ कहनेके लिए होगा...कितना कुछ सुननेके लिए होगा....निम्मीकी खामोशी, उसे घेरे हुई उदासी, कुछ लम्हों के लिए दूर होगी...

बडेही चावसे मैंने खाना बनाया...घर सजाया....और इंतज़ार करने लगी...सभीके आनेका....निम्मी तथा उसका परिवार एक अथितिग्रुहमे रुके थे....मेरे लाख कहनेके बावजूद कि, मेरेही घर रुकें....मैंने ३ बार वहाँ फोन कर पता किया...आ तो रहे हैं ना...वंदन कोभी उसके सेल्पे संपर्क करती रही...अपने घरका पता समझाती रही....
क्रमशः

Wednesday, July 29, 2009

ये कहाँ आ गए हम ?१

आज सोचनेसे इतनी मजबूर हूँ,कि देर रात तक अपने काम निपटाती रही और सवेरा हो रहा है..आसमान मे पूरबा अपने सूरजकी आहटसे रक्तिम हुई जा रही है...थोडीही देरमे पँछी जागने लगेंगे..एक नए दिनकी शुरुआत होगी..मेरे दो दिनों के बीछ कोई फासलाही नही रहा है...

लोग कहते हैं, यातायात के साधनों से दुनिया छोटी होती जा रही है॥संपर्क करनेके कितने तरीक़े ईजाद हो गए हैं....नेटपे बैठो, बात करते, करते अगलेको देखभी लो...बस छू नही सकते....तरस तो शायद मेरे जैसे, इसी स्पर्शके लिए जाते हैं !

पहले परदेस से एक ख़त आनेमे कितने हफ्ते बीत जाते...कईयों के पास फ़ोन भी नही होते...गर होते तो प्रथम कॉल बुक करो फ़िर बातचीत....उसके बाद STD का ज़माना आ गया...घरसेही लगा लो...!और आगे चले तो आईएसडी का ज़माना शुरू हो गया...लो औरभी आसान...फिर इंटरनेट ने और मोबाईल फोन्सनेतो सीधे अपनी ज़िंदगी बदल दी....झटपट संपर्क...जब हमारा दिल करे ,मेसेज छोड़ दें..जब अगलेको फुरसत हो वो छोड़ देगा या फ़ोन कर देगा...! कितना नीरस लगने लगा ये सब!!

इन सबमे वो पुरानावाला अपनापन कहाँ गया? वो डाकियेका इंतज़ार, वो तन्हाई तलाशते हुए अपने किसी प्रियका ख़त पढ़ना...अगला ख़त आनेतक, उस खतको ताकियेके नीचे रखे बार, बार पढ़ना...और उसमे छिपी गुलाबकी पंखुडी या जूही,रातरानीका फूल सँभाल के अपनी किसी किताबमे रख देना....

बेहतर संपर्क के लिए आप दो लैंड लाइन रख लें...हर किसीका अपना अलग सेल हो...एक बस नही तो दो हों...! और मज़ेदार बात ये कि, हमारे जैसे फोन करनेवाले, एक सेल व्यस्त आता है तो तुंरत दूसरेपे नम्बर घुमा देते हैं...! ये नही सोचते कि गर एक नंबर व्यस्त है, इसका मतलब वो व्यक्ती किसीसे बात कर रहा होगा...और अगलाभी ऐसा नही करता की, एक फोनपे बात करते समय दूसरेको "silent" पे रख दे...!

या तो उस पहले व्यक्ती से कह देना पड़ता है कि, बादमे बात करेंगे, या हमें सुनना पड़ता है कि, हमसे वे अपनेआप संपर्क कर लेंगे...! हम दिलमे बुरा मान जाते हैं, कि देखिये जनाबको जब हमारी ज़रूरत थी तो दस फोन लगाये...आज हमने फोन किया, तो कह दिया बादमे बात करेंगे! आपसी संबंधों मे ऐसी बातें कितनी एहमियत रखती हैं...!

सोचने लगती हूँ,तो महसूस होता है, वो ख़तोकिताबत का ज़मानाही बेहतर था....दुनियाँ तो व्यवसाय के खातिरही सही, छोटी हो रही है, लेकिन आपसी रिश्तों-संबंधों मे दूरियाँ बढ़ती नज़र आ रही हैं ! पत्नी फोन करे तो अमरीकामे बैठे पतीको फोन बिल नज़र आने लगता है...पती ना करे तो पत्नी को लगता है, कमाल है, हर बार मैही फोन करती हूँ, कभी वो क्यों नही करता??

वो आत्मीय भावना जो अपने हाथोसे लिखे खतों मे महसूस होती वो गायब...आप अपने पतीके साथ कारमे सफर कर रहे हैं...खुदका मोबाइल तो घर छोड़ रखा है...हम तरस रहे होते हैं कुछ अन्तरंग , आत्मीय बातें कहने सुन नेके लिए, लेकिन पतिदेव मशगूल हैं, अपने sms पढ्नेमे या उन्हें reply करनेमे...कहेंगे," कम्युनिकेशन का क्या कमाल है..मानो दुनिया मुट्ठी मे आ गयी हो..अमरीकासे शेर भेज रहा है, श्रीरतन...!"

हम खामोश...हाँ,मे हाँ मिलाते हुए...कितना कुछ कहना था...सोचा घरमे तो वैसेभी इन्हें मोहलत नही मिलती...एक दिन हँसते, हँसते कह दिया.."हाँ सचमे कितना कमाल है..लेकिन कई बार लगता है कम्युनिकेशन से ज़्यादा मिस कम्युनिकेशन होता है...!


बस मार ली हमने अपने पैरोंपे कुल्हाडी..आ बैल मुझे मार...!
हो गया ख़त्म रूमानी चाँदनी रातका नशीला आनंद ...जब अपने पतीका हाथ हौलेसे पकड़, निशब्द्तासे बोहोत कुछ कह देती....

ऐसी कितनीही शामें गुज़र गयीं......अनकही बातें मनमे दबके रह गयीं..


नेटकी सुविधाने या मोबाइल्की सुविधाने दुनिया तो छोटी कर दी, पर आपसी रिश्तों मे कोसों की दूरी.....
ऐसी दूरियाँ, जिस कारन बडेही खूबसूरत रिश्ते टूट गए....खासकर जब हम इन सुविधाओं के इतने आदि हो जाते हैं कि, जब ये उपलब्ध नही होती, उसी दोस्तसे नाराज़ हो बैठते हैं...ये सोंच के कि उसीने संपर्क नही किया..कितना बेज़िम्मेदार हो गया है...ये नही सोचते कि उसकीभी कोई मजबूरी रही होगी...

गर किसीका sms या फोन न आए तो असलमे हमारी पहली प्रतिक्रया होनी चाहिए, सब कुछ कुशल मंगल तो हैना....एकदमसे जजमेंटल होनेसे तो ठंडे दिमागसे सोचना चाहिए कि ज़रूर उस व्यक्तीके साथ कुछ ऐसा घटा होगा, जो कि वो संपर्क नही कर पाया....

जब मोबाइल फोन बस शुरुही हुए थे, तब उनपे ग़लत नंबर लग जाना, या फोन कनेक्ट ही ना होना ये सब नही होता था...एक मोबाइल फोन होना एक स्टेटस सिम्बल भी हो गया था...केवल सुविधा नही!!
और आज अनुभव कर रही हूँ कि, संपर्क के बदले,मोबाइल, ग़लत फेहमियों का अम्बारभी खड़ा कर रहा है....हमें लगता है, अगलेको sms तो मिलही गया होगा....मिस कॉल भी मिल गया होगा...
अगला सोचता है कि, इसने मुझसे संपर्क करना ज़रूरीही नही समझा....इधर हम राह तकते हैं, और मनही मन तनावग्रस्त हो जाते हैं...हमने फोन किया, sms किया, अगला इस ओर गौर क्यों नही कर रहा?? ऐसीभी क्या व्यस्तता कि एक sms भी नही कर सकता?

इसके मैंने ऐसे परिणाम भुगतते हुए लोगोंको देखा कि, ये लेख लिखनेपे मजबूर हो गयी.....क्या हो गया हमारे आपसी विश्वासको ?उतनाही ज़रिया काफ़ी है?क्या हमारा विश्वास का साधन केवल एक गजेट मात्र है?वही एक ज़रिया है जो हम अपना सकते हैं? जो बरसोंके संबन्धको चंद पलों मे ख़त्म कर देता है? जो कभी सहारा लगा था दूरियाँ कम करनेका वो इतनी दीवारें खडी कर सकता है ?

क्या हम आगसे खेल रहे हैं? क्या हमारे दिलो दिमाग़ इस बदलाव के ज़बरदस्त वेगको अपनानेमे समर्थ हैं? कहाँ है गलती? और कहीँ नहीँ....हमारी समझदारीमे गलती है...आग बुरी नही, आगसे खेलना बुरा है....आगको अपना दिमाग़ नही होता...वैसेही इस उपकरण को अपना कोई दिमाग़, अपना कोई अस्तित्व नही....उसके उपभोगता से जो अलग हो....दुनियाँ मे हर दिन नयी चीज़ें ईजाद होंगी....हमें अपने क़दम सोच समझके उठाने हैं....वरना जो हमारे इस्तेमालके लिए बनी हैं, हम उनके ग़लत इस्तेमाल का शिकार होते रहेंगे....उनपे हदसे अधिक विश्वास रखनेका शिकार....

क्रमशः
अगली पोस्ट मे मैंने देखे बडेही दुखदायी परिणामों के बारेमे लिखूँगी....ये वाक़या किसीकेभी साथ घट सकता है.....सोचती हूँ, हम कितनी सतर्कता से इस वेगको झेल रहे हैं??ऐसी राहोंमे घटनेवाले अपघात हमें नज़र आते हैं??
वंदन और निम्मीको कुछभी अंदेसा था??हमारी कार २०० km की रफ्तारसे चल सकती है तो क्या उस वेगके क़ाबिल हमारे रास्ते हैं?क्या हमारी ज़िंदगी एक ऐसीही राह है, जहाँ हम संभल के गुज़र नही रहे?क्या हुआ उस शाम?
कौनसी ख़बर मेरे कानोंसे टकराई, जिसने मुझे हिलाके रख दिया? ना वंदन से संपर्क हो रहा था, ना निम्मीसे....किस क़दर असह्य लग रहा था........उफ़!!कितना असहाय महसूस कर रही थी....

Sunday, July 26, 2009

जिन्हें नाज़ है हिंद्पे...!

कहाँ हैं ? कहाँ हैं? कहाँ हैं ? जिन्हें नाज़ है,हिंद्पे वो कहाँ हैं॥?

पहले भी, ये आवाज़ उठा चुकी हूँ...फिर उठा रही हूँ...वजह॥? चंद रोज़ पूर्व, एक अत्यन्त विश्वसनीय NGO ने मुंबई में सुरक्षा के तहत, ५,००० कैमरे लगा देनेका प्रस्ताव सरकार को दिया...CM, deputy CM, आदि सभी उस मीटिंग में मौजूद थे...प्रस्ताव स्वीकार हो गया...इसमे कोई दो राय नही थी,कि, ये इस समय की दरकार है...एक सेवा में अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी ने बड़ी शिद्दत के साथ ये मीटिंग रखवाई थी...
और सुने, मीटिंग के दो रोज़ बाद ,चंद्रा ऐय्यंगार नामक, आईएस, अफसर ने,( सेक्रेटरी to the govt ऑफ़ इंडिया, जिसके तहत पुलिस मह्कमा आता है,) प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा ," सरकार तो पहलेही इस काम में जुटी है...किसी NGO को इस कामके खातिर धनराशी देनी हो तो दें...!"
वाह ! मरने दो जनता को..मरने दो सुरक्षा कर्मियों को...IAS के अफ़सर,जो पुलिस के उपरसे हटना नही चाहते, जिन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से कोई लेन देन नही...ना वाबस्ता होना चाहते हैं, उन्हों ने एक पलमे सारा प्रस्ताव रफ़ा दफ़ा कर दिया...! जबकि, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई में, ऐसे किसी काम में जुटी नही है...! अपने अधिकार बनाये रखने के ख़ातिर, किस क़दर स्वार्थी हो सकते हैं लोग ?
कोई पूछे इनसे, ये जो, पोस्टिंग्स पे तामील करते हैं,कि, २६/११/२००८ के बाद से तक़रीबन ८ माह , ATS के प्रमुख की पोस्ट रिक्त क्यों रही? क्या इस पोस्ट को पढने वाले पाठक अपनी आवाज़ उठा सकते हैं? पाकिस्तान को क्या कहें? जब हमारे ही तथा कथित 'ज़िम्मेदार' अफ़सर अपने 'ऐसे ऐतिहासिक निर्णयों' से उस देशकी सहायता में जुटे हों तो?

अब आलेख जारी है:

पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे डाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !
अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?

कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री। धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नॅशनल पोलिस कमिशन के तेहेत, कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-।भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे... यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके ज़िम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!

इन में से कई लोगों का हमारे घर, एक परिवार की तरह आना जाना लगा रहा करता... एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।

रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...

सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....

Tuesday, July 21, 2009

तिनका ,तिनका जोड़ ...

WE LOVE HERE

अपनी बिटिया के लिए ये ' name plate' बनाई थी...वाक़ई में तिनका,तिनका जोड़...! घोंसला बनाया था, 'plumber' ने फेंके रस्सी के टुकडों में से..अंडे थे, पता नही, परदादा या उनके भी पिता के शेरवानी के buttons. अन्य कुछ कपडों के तुकडे, जिनसे दीवारें बनी...बिटिया सूत कताई करती थी..उसकी कुछ घाँस फूंस..और पता नही क्या,क्या जुगाड़ किया...! अफ़सोस...इस name plate के अलावा भी, बहुत कुछ,जो मैंने हाथों से बनाया था...सब के सब शिपमेंट में खो गया...! जिनमे पिछली कमसे कम, ५ पीढियाँ जुडी हुई थीं...वो सारी धरोहर...!

Wednesday, July 15, 2009

सासू माँ:एक संस्मरण ! १

अजीब रिश्ता रहा हम दोनोका ! किसी गाफिल पल, उन्हें मुझपे बेहद प्यारभी आता और फिर अचानक अजीबसा संताप !
एक विचित्र वाक़या घटा और मुझे उनके बारेमे अलगसे कुछ लिखनेका मन कर गया। उसका बयान नही करूँगी क्योंकि ये संस्मरण बेवजह विस्तारमे चला जाएगा।

१९९३ वे की एक शाम। केवल एक ही रोज़ पूर्व, मेरे पती की मुम्बई पोस्टिंग हुई , मतलब वे अपना पदभार स्वीकारने मुंबई चले गए थे। महाराष्ट्र पुलिस अकादमी के संचालक पदसे, तबादला हो, मध्यवर्ती सरकारमे डेप्युटेशन पे। पदभार मुम्बई मे संभालना था। आर्डर मौखिक थे। सरकारी छुट्टियाँ थी, और कहा गया था कि, वो मुम्बई पोहोंच जायें ....जिस दिन दफ़्तर मे पदभार लेने आयेंगे, लिखित आर्डर दे दिए जायेंगे।

उनका समारोप समारंभ हो गया था। मुम्बई मे उस पोस्ट के लिए मकान भी मौजूद था। मैंने सोच रखा था, कि, जैसेही इन्हें आर्डर मिलेंगे मै सामान बाँधना शुरू कर दूँगी....
उस शाम की जिसकी मै बात कर रही हूँ, मेरी एक काफ़ी क़रीबी सहेली, मुझे अपने घर ले जाने आयीं। उनका घर शेहेरसे कुछ २५ किलोमीटर की दूरीपे था।

मै उनके साथ जानेके लिए, अपने पहली मंज़िल के कमरेसे नीचे उतरी, तो देखा, बीजी, एक महिला से, अपने पैरकी मालिश करवा रहीँ थीं।वो महिला हमारे घर दिनमे झाडू लगा दिया करती तथा घरके पिछवाडे बने सरकारी कमरोंमे रहती। बड़ा-सा बरामदा था....वहीँ पे एक सोफेपे वे बैठीं थीं।

उनका कमरा मैंने ख़ास निचली मंज़िल पेही रखा था। एक तो वो नाबीना हो चुकीं थीं..... दूसरा , फोन के अर्दली उस कमरेके बाहर ही बैठते थे ......सबसे बड़ा कारन था, उनका ओस्टोपोरोसिस। पत्थरकी बनी, पुराने ज़मानेकी , ऊँची, ऊँची सीढियाँ चढ़ना, उनके बसका ही नही था।

मै मनही मन शुक्रगुज़ार थी कि, नीचे एक अच्छा कमरा था, वरना मैंने ऐसे घर देखे थे, जहाँ सारे शयनकक्ष ऊपर और बैठक, खानेका कमरा तथा रसोई नीचे...!
सहेलीके साथ बाहर जानेके पहले मुझे पता नही क्या सूझ गयी, जो मैंने बीजीसे कहा," बीजी, आप जब बाहर घूमने जाएँ, तो घरके अहातेमेही घूमना। आज मै घरपे नही हूँ। विमलाके साथ उनके घर जा रही हूँ। दो घंटों के भीतर लौट्ही आऊँगी।"
बीजी ने जवाबमे कहा," ना...मुझे तो अकादमी के अहातेमे घूमना है। यहीँ के यहीँ घूमनेमे ना तो मुझे मज़ा आता है ना घुमानेवालेको......!"

ऐसा नही कि, वे कभी घरका अहाता छोड़, बाहर घूमने नही जातीं थीं, लेकिन ऐसे समय मै घरपे मौजूद रहती। घरके बाहरका अहाता ज़रा पथरीला था। उनके गिरनेका मुझे बेहद भय रहता। उन्हें मधुमेह्का रोगभी था। ज़ख्म ठीक होना मुश्किल ......मधुमेह्के कारन ही वे, रेटिनल detachment की शिकार हो, नाबीना हो गयीं थीं। उनपे हर मुमकिन सर्जरी हो चुकी थी...केवल भारत के नहीं, दुनियाके बेहतरीन नेत्र तग्य से....

मैंने फिर एकबार गुहार लगाई," बीजी, सिर्फ़ आजके दिन...मुझे विमलाके बगीचे का landscaping हर हालमे आज पूरा करना है....सिर्फ़ आजके दिन...आपको पता है, मै इसतरह आपको कभी नही टोकती...!"
मेरे साथ विमलाने भी उनसे वही कहा...वो हलकेसे हँस दी और बोली," चलो विमला, तुम कहती हो तो मान लेती हूँ...!"

मै विमलाके साथ निकल पड़ीं। उन दिनों मोबाइल फोन तो थे नही! हम दोनों उसके घरके गेट के भीतर प्रवेश ही कर रहे थे, कि, अन्दर फोन की घंटी सुनाई पड़ीं। जबतक विमला अन्दर गयीं, वो बंद हो गयी। विमला फोनसे अलग होनेही वाली थी , कि, मैंने उसे टोक दिया," विमला, ये फिरसे बजेगा...रुको कुछ पल..."
मेरा इतना कहनाही था कि, फ़ोन दोबारा बज गया। विमलाने उठा लिया....पलट के मुझे बोलीं," तुम्हारे लिए है...तुम्हारे घरसे.....अर्दली बोल रहा है....कुछ घबराया-सा है....."

मैंने लपक के फोन अपने हाथ मे ले लिया....दूसरी ओरसे आवाज़ आयी," माताजी गिर पड़ीं हैं.....घरमेही....आप तुंरत आ जाईये..."
मैंने उसी फोनसे एक डॉक्टर दोस्त का नंबर घुमाते हुए, विमलाको स्थिती बता दी...उसी डॉक्टर से इल्तिजा कर दी, कि, एक अम्ब्युलंस तुंरत घर भेज दें......वहाँ के एक सबसे बेहतर अस्पताल मेके , अस्थि तज्ञ को इत्तेला दें.... कमरा भी बुक कर लें.......अस्थी तज्ञ जानेमानेही थे, क्योंकि, मै बीजीको नियमित रूपसे चेक अप कराने ले जाया करती, या, कई बार वो घर पे आ जाया करते।

जबतक घर पोहोंची, अम्ब्युलंस हमारे फॅमिली डॉक्टर के साथ हाज़िर थी..... बीजीको लेके मै अस्पताल पोहोंच गयी। मुझे आजतक समयका भान नही....कब उनका x-ray लिया...कब डॉक्टर ने अपना निदान बताया...मेरे पतीको कब और किसने ख़बर की...वो उसी रात आ गए या अगले दिन.....?

हाँ ! निदान याद है," उनकी हिप बोन टूट गयी है....हड्डी टूटने के कारण वो गिरीं....गिरनेके कारण हड्डी नहीं टूटी....लेकिन वो बिना अपनी लकडी या किसीका सहारा लिए, तेज़ी से चलीं हैं.....इतना आपका अर्दली मुझे बता चुका है....उन्हें घूमने जानेकी जल्दी थी....आपके घर लौटनेसे पहले वे घूमना चाह रहीँ थीं...अर्द्लीको उन्हों ने बर्फ का ठंडा पानी लाने भेजा...लेकिन उन्हों ने उसके लौटनेका इंतज़ार नही किया....अपने कमरेसे उसे आवाज़ें लगा, अकेलीही आगे बढ़ गयीं और गिर गयीं..."

मै इस बातको नकार भी नही सकती थी...नाही किसी अर्दलीपे नाराज़ हो सकती थी....सभी बेहद भरोसेमंद थे...और बीजी ख़ुद ये बात स्वीकार कर चुकी थीं... मेरे बच्चे भी घरपे थे.....बेटीने उन्हें गिरते समय देखा था....वो उनके पास दौड़ी तबतक देर हो चुकी थी....

मेरे आगे दो पर्याय रखे गए," सर्जरी के बिना हिप बोन जोड़ नही सकते......सर्जरी मे क्या यश मिलेगा येभी नही कह सकते....सर्जरी नही की, तो, वे कभी चल नही पाएँगी...उन्हें बेड सोर्स हो जायेंगे...तथा ज़ख्म ठीक ना होनेके कारण अन्य कई complications ...आप निर्णय ले सकती हैं?"

मनमे आया....हे ईश्वर ! येभी कोई पर्याय हैं???मै डॉक्टर से क्या कहूँ?? मैंने असहाय चेहरेसे कमरेमे इकट्ठे हुए अन्य डॉक्टर मित्रों तथा, मेरी दो तीन सहेलियों की ओर देखा.....कमरेमे पूर्ण स्तब्धता थी.....एक तरफ़ कुआँ दूसरी ओर खाई....मैंने क्या तय करना चाहिए...? मेरे पती होते तो क्या तय करते???

लेकिन मुझे तय करनेकी ज़रूरत नही पड़ीं....ख़ुद डॉक्टर ने कह दिया," मै आपकी समस्या समझ सकता हूँ.....आपके पती को ख़बर भेज दी गयी है..लेकिन मेरी सलाह होगी, सर्जरी बेहतर पर्याय है..."

मैंने केवल गर्दन हिला दी...मेरे हाथमे बीजीका हाथ था, जो उन्हों ने कसके पकडा हुआ था...याद आ रहा है, कि, मैंने उनसे पूछा,' बीजी, मै दो मिनिट मे बाथरूम हो आऊँ??"
उन्हों ने औरभी कसके हाथ थाम लिया और कहा ," नही...तुम मुझे एक पलके लिएभी मत छोड़ना....मेरा बेटा हो ना हो, तुम नही हिलोगी....मुझे और किसीपे विश्वास नही..."

सुननेवाले किंचित हैरान हो गए, क्योंकि बीजीका मिज़ाज जानते थे....लेकिन विमला और उसके पती केवल मुस्कुरा दिए.......उनके चेहरेपे एक विलक्षण शांती थी....विमलाने केवल इशारा किया....जैसे कह रही हैं.......वही सत्य है....

मुझे याद नही पड़ रहा,कि ,मै बाथरूम कब गयी....जब गयी तब बीजीका हाथ किसने थामा...?
मुझे आज याद नही, कि, मेरे पती कब पोहोंचे.....दूसरे दिन सुबह??उसी रात?? शायद उन्हें पूछ लूँ तो बता देंगे...पर क्या फ़र्क़ पड़ता है ?

मुम्बई से एक बेहतरीन सर्जन, जो इत्तेफाक़न, भारत आए हुए थे( थे तो वो भारतीय ही), अपने साथ लेते आए....जहाँ हम थे, वो महानगर नही था....उसका ये एक फायदा था.... अस्पताल से जुड़े ना होते हुए भी , उस अस्थी तज्ञ को, उस अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर मे, सर्जरी करनेकी इजाज़त मिल गयी.....सर्जरी शुरू हो गयी...अव्वल तो मै घंटों बाहर खडी रही...फिर एक सहेलीने ज़बरदस्ती की, के, कुछ देर मै घर चली जाऊँ......

वो बीजी को दाखिल किए दूसरा दिन था??या तीसरा ? वो कब हुआ जब मै उनके पलंग के पास खडी जारोज़ार रो रही थी...? जब किसीने मुझे धाडस बँधाया था...? कोई उनके मूहमे जूस डाल रहा था??

मै घर तो गयी, लेकिन कितनी देरके लिए...? मुझे कब वो ख़बर मिली कि वो नही रहीँ??के अत्याधिक रक्त स्त्राव होनेके कारण उनकी मृत्यु ओपरेशन टेबल पेही हो गयी??खूनकी अनगिनत बोतलें चढीं ,लेकिन मधुमेह्के कारण रक्त स्त्राव रुकाही नही??के देखनेवालों ने कहा, सर्जरी तो अप्रतीम हुई...गज़ब हाथ था उस इंग्लॅण्ड से आए सर्जन का...लेकिन क़िस्मत देखो....!

उनका अंत्य विधी उसी शाम हो गया?? या दूसरे दिन?? दूसरेही दिन...क्योंकि माँ, पिताजी तथा हमारे अन्य कुछ रिश्तेदार पधार गए थे....?नही याद आ रहा.... मुझे तो येभी नही याद रहा कि बच्चे भी घरमे हैं....या थे....इस वक़्त लिख रही हूँ तो याद आ रहा है कि बच्चे तो घरमेही थे....बिटिया ९ वी क्लास मे और बेटा ७ वी क्लास मे....

क्रमश:

सासू माँ..! एक संस्मरण ! २( अंतिम)

Saturday, February 21, 2009

इस घटनाके बाद दिन बीत ते गए....मेरे पतीने बता दिया कि, उन्हों ने किसी कारन, मुम्बई मे पदभार सम्भालाही नही....उन दिनों वे तकरीबन एक माह बिना किसी पदके रहे....अंत में,उनकी दोबारा अकादमी मेही पोस्टिंग हो गयी...

एक सप्ताह के भीतर,पुलिस सायन्स कांग्रेस का आयोजन करना था...ऑल इंडिया स्तर का आयोजन....वोभी सफल हो गया..उस के पश्च्यात, ३/४ माह के अन्दर,अन्दर, मेरे पती का मुम्बई में ही तबादला हुआ...हाँ...इस वक़्त पोस्ट अलग थी...वे आगे निकल गए...

बात एक शाम की है.....मै, विमला और उसके पतीसे मिलने उनके घर गयी थी...याद नही कि ,किस सन्दर्भ मे ये बात छिडी जो मै लिखने जा रही हूँ...जिसने मुझे स्तंभित कर दिया और इस्क़दर असहायभी....! लगा, काश ! यही बात बीजी,खुले आम, अपने मृत्यू के पूर्व, मुझसेही नही, मेरे पतीसे भी कह देतीं....जो उन्हों ने विमला तथा उनके पतीसे कुछही रोज़ पहले कही थी...वो गिरीं उसके केवल ४ दिन पूर्व...!

विमला तथा उनके पतीसे वे खुलके बात किया करतीं ....मेरी भी कोशिश रहती कि, कुछ लोग हों, जिनसे, वे खुलके बतियाँ सकें....ऐसेमे अक्सर मै वहाँसे हट जाया करती...विमलाके पती मुझसे बोले, " जानती हो, उन्हों ने मुझसे क्या कहा ???"
" नही तो...! मुझे कैसे पता होगा ??" मैंने जवाब दिया...
विमलाके पती बोले," उन्होंने कहा, कि, मैंने इस बहू के साथ, पहले दिनसे, बेहद नाइंसाफी की है....अपनेही बेटे का घर तोडके रख देनेमे कोई कसर नही छोडी....जब कि, इसने मेरी सबसे अधिक खिदमत की.....गुस्से में आके,इस पे हम सभी ने तरह,तरह के, लांछन लगाये......आज बेहद शर्म सार हूँ..अपने बेटे से भी कहना चाह रही हूँ,कि, इसकी इज्ज़त हमेशा करना...ये बेहद सरल स्वभाव की औरत है..."

उन्हों ने औरभी काफ़ी कुछ कहा....यह भी, के, कभी आगे उनकी बहू पे कोई भी लांछन लगे और गर वो बात,इन पती-पत्नी को पता चले, तो, वो, बहू का साथ निभाएँ......

अजीब इत्तेफ़ाक़ रहा कि,बाद मे, उन पती पत्नीसे, उन्हीं दोनोकी व्यस्तताके कारण, मेरा अधिक संपर्क नही रहा....विमलाके पती अक्सर विदोशों मे भ्रमण करते रहे और मुझे उनसे अपने बारेमे कुछभी इस तरह से कहना अच्छा नही लगा....हमेशा लगा कि, ये मेरी गरिमा के ख़िलाफ़ है.....

बीजीको गुज़रे अगले माह १५ साल हो जायेंगे.....जो भी हुआ ज़िन्दगीमे.....बोहोत से शिकवे रहे...मेरी अपनी बेटीको लेके सबसे अधिक.....जो मैंने उनसे कभी नही कहे....लेकिन आज उनकी बड़ी याद आ रही है..

मेरी बेटीको उनसे आजभी सख्त नफ़रत है...पर आज शाम उसे मैंने ये बात बतायी....उसने कह दिया," अब क्या फायदा? अब तो कितनी देर हो चुकी....समय रहते उन्हों ने क्यों ये बात नही कही?? आज तुम मेरे आगे कितने ही स्तुती स्त्रोत गा लोगी, मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़ने वाला.......जो तुम्हारे साथ या मेरे साथ होना था हो गया....मुझे ये सब बताओ भी मत माँ.... उनपे और अधिक गुस्सा आता है..."

मै खामोश हो गयी....मेरे पास उसे देनेके लिए कोई जवाब नही था......जैसे उनके मृत्यु के बाद महसूस हुआ...जैसे, जिस दिन विमला के पतीने मुझसे कुछ कहा, उसी तरह कल और आज, या पता नही पिछले कितने साल ये महसूस हुआ....ज़िंदगी फिर एकबार आगे बढ़ गयी...छल गयी...मै देखती रही...कुछ ना कर सकी.....दोस्त दुश्मन बन गए....ग़लत फेहमियों का अम्बार खड़ा होता रहा....

मै, मेरे अपनों के लिए, जीवनकी क्षमा माँगती रही....हर बला आजभी मुझे स्वीकार है...गर मेरे अपने महफूज़ रहें......जानती हूँ, कि, इस संदेश को शायद ,अपनी मृत्यु के बाद, अपने पती या बच्चों को पढने के लिए कहूँगी....मेरा हर पासवर्ड मेरी बेटी के पास है.........

आज सुबह ३ बजे मैंने अपना dying declaration भी पोस्ट कर दिया है....हर काम मै अपने इंस्टिक्ट से करती हूँ....उस वक़्त अपने आपको चाह कर भी, रोक नही पाती...जैसे कोई अज्ञात शक्ती मुझे आदेश दे रही हो, जिसका मुझे पालन करनाही है...उसके जोभी परिणाम हो, भुगतने ही हैं....यही मेरा प्राक्तन है, जिसे कोई बदल नही सकता....ना अपनी राह बदल सकती हूँ, ना पीछे मुड़ के चल सकती हूँ...हर किसी की तरह आगेही चलना है....आगे क्या है वो दिख भी रहा है, लेकिन टाला नही जा सकता....पढने वालों को अजीब-सा लगेगा, लेकिन यही इस पलका सत्य है....
समाप्त।

Thursday, July 2, 2009

बुलबुल का घोंसला...!


इस बोनसाय के पेड़ के साथ बडीही मधुर यादगार जुडी हुई है....इस बात को शायद १० साल हो गए...एक दिन सुबह मै अपने इन "बच्चों" के पास आयी तो देखा, इस पेड़ पे बुलबुल घोंसला बना रही थी...!कितने विश्वास के साथ....! इस पँछी का ऐसा विश्वास देख, मेरी आँख नम हो आयी...मैंने रात दिन कड़ी निगरानी राखी...जब तक उस बुलबुल ने अंडे देके बच्चे नही निकाले, मैंने इस पेड़ को बिल्लियों और कव्वों से महफूज़ रखा...!
इस परिंदे ने एक बार नही दो बार इसपे अपने घोंसले बनाये...! परिंदे तो उड़ गए, घोंसले यादगार की तौरपे मेरे पास हैं! इसी पेड़ पे रखे हुए नज़र आते हैं, गर गौरसे देखा जाय तो...! लेकिन उन घोंसलों की अलग से एक तस्वीर कभी ना कभी ज़रूर पोस्ट करूँगी...!

इस पोस्ट को नाम देने का दिल करता है सो ये," मेरे घर आना ज़िंदगी..!".....कई बार आना ज़िंदगी....मेरे अपने पँछी तो उड़ गए...दूर, दूर घोंसले बना लिए...लेकिन परिंदों, तुम आते रहना .....अपने घोंसले बनाते रहना...वादा रहा...इन्हें मेरे जीते जी, महफूज़ रखूँगी...!

Tuesday, June 16, 2009

माँ ! प्यारी माँ ! ६

"अम्मा ! आप कुछ देर बाहर गयीं हैं, तो मैंने आगे लिखने का मौक़ा हथिया लिया...! जानती हूँ, आपके घरमे रहते मै, नेट पे बैठ जाती हूँ, तो आपको बड़ा घुस्सा आता है...!

"कुछ रोज़ पूर्व, चंद अल्फाज़ लिखे थे....शायद हर बेटी को यही महसूस होता हो...या फिर जिन बेटियों को ये महसूस होता है, उनकी माँ उस क़ाबिल होती हो!

"मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!

"अम्मा ! आपके इतिहास की पुनुराव्रुत्ती मेरे साथ हुई...हम दोनों ने जब कभी, किसी औरको सहारा देके उठाना चाहा, उसने हम ही को गिराया...वो उठा या नही, ये नही पता...लेकिन हम ज़रूर आहत हुए....बार, बार जीवन ने हमारे संग ये खेल खेला...आज तक नही समझ सकी, कि, दो समांतर रेषायों की भाँती हमारी ज़िंदगी कैसे चली??

"कैसे, कैसे दर्द समेटे हम दोनों चलते रहे...रहगुज़र करते रहे...?सिलसिला है,कि, थमता नही....दोनों के जीवन में बेशुमार ग़लत फेहमियाँ शामिल रहीं...एक से निपट लेते तो दूसरी हाज़िर...! ये कैसे इत्तेफ़ाक़ रहे?

"बोहोत कुछ लिखना चाह रही हूँ..लेकिन, सारी उम्र कम पड़ सकती है...और किस उम्र की बात करूँ?? आपकी अनगिनत यादें लिख चुकी हूँ...फिरभी लगता है, अभी तो कुछ नही कहा...! कुछ भी नही! ये समापन किश्त है, या और सफर बाक़ी है, मेरे लेखन का...आपके लिए...??गर होगा तो, उसे कुछ अन्य नाम दे दूँगी...शुक्र गुज़ार हूँ, अम्मा आपकी, के मुझे ऐसा अनुभव आपके रहते मिला...के ऐसी माँ मिली...आपसे होके जो राह गुज़री, उसमे शामिल हर ममता को नमन....हर ममता को सलाम !"

समाप्त ।

Friday, June 5, 2009

माँ! प्यारी माँ ! ५

"अम्मा! कल शामको आपसे बात हुई...बड़ा ही उदास-सा महसूस हो रहा था...अपने पलंग पे बैठे, बैठे, एक किताब के पन्ने, उलट पुलट करती रही...

रेडियो चल रहा था..'छाया गीत"...उसपे वही गीत बजा, जिसे मै अपनी बेटीकी बिदाई के समय बजाना चाह रही थी...ये दुआएँ उसके लिए कई बार कर चुकी थी,लेकिन बजा ना सकी...जब मै अपने नैहर से बिदा हुई, तो लगा, मेरे सारे अपनों के दिलसे वही दुआ निकल रही है मेरे लिए...'बाबुल की दुआएँ लेती जा , जा तुझको सुखी संसार मिले, मैके की कभी ना याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले...!'

"रफी ने इसे रो रोके गाया था...संगीत निर्देशक इस गानेको धनिमुद्रित कर रहे थे, तो गाते समय, रफी साहब सिसक,सिसक के रोने लगे.....उनसे पूछा गया, कि वे क्यों रोने लगे?
उन्हों ने कहा,'हालही में मेरी बेटीकी मँगनी हुई है...सोचने लगा,कि, वो चली जायेगी, तो मुझे कैसा लगेगा??....यही सारी दुआएँ मेरे मनसे निकलेंगी...'
सगीत दिग्दर्शक ने उनसे कहा, 'आप इसी तरह गा लीजिये...गीत ऐसेही ध्वनि मुद्रित होगा...!'
और वो गीत रफी साहबने सचमे रो, रो के गाया है!!

"अम्मा ! मुझे नही पता, कि, आपने इस गीतको कभी गौरसे सुना या नही...अबकी आओगी तो ज़रूर सुनाऊँगी.....
क्या गज़ब गाया है..सचमे अपनी बेटीके लिए उसके प्रिय जनों के मनमे यही सब आता होगा...और अब जाना, जब मेरी बिटिया ब्याही गयी.......मेरे मनमे भी यही सब आया..."मेरे बाग़ की अए नाज़ुक डाली !तुझे हरपल नयी बहार मिले...!"

"मै सारा गीत यहाँ लिख सकती हूँ,ऐसे भावपूर्ण अल्फाज़ हैं, और उन्हीँ भावों को समेटे गाया गया है....
आप अपने घरसे बिदा हुईं तब आपके अपनों के मनमे भी यही सब आया होगा...'काँटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओं में ........'... हैना?
जानती हूँ, कि, आपके सारी उम्र काटों पे चलके कटी.....आपने, खासकर आपके साथ,साथ, दादा-दादी अम्माने, मेरे लिए ऐसीही दुआएँ माँगी...जानती हूँ...फिरभी मेरा सफर काँटों की राहों से गुजरा....के राह मैंने ख़ुद चुनी थी...आपके लिए तो चुनी गयी थी....

"आप अपने खानदाँ की सबसे सुंदर हुनरमंद बेटी थीं...फिरभी राहोंमे फूल बिखरें हो...मुझे तो नज़र नही आए...अफ़सोस के ऐसी दुआ आपको लगी नही...नानी अम्मा को कितना दुःख होता होगा हैना? जानती हूँ, समझ सकती हूँ, मुझे देख आपको कितना दुःख होता रहा ..मैंने देखा है....

"चश्मे-बद-दूर...! शायद आपकी नवासी को ये दुआ लगी....या वो अधिक परिपक्व और संजीदा निकली...जोभी हो...ईश्वर उसे वो सब दे, जिसकी वो हक़दार है...
"अम्मा ! सारी उम्र भी आपके बारेमे लिखने के लिए कम है....हर रोज़ कुछ ना कुछ याद आताही है...आज आपकी बेटी, अपनी माँ के स्वास्थ्य के लिए दुआएँ माँग रही है.....कमसे कम आपको दर्द और तकलीफ तो ना हो...क्या ऊपरवाला मेरी इतनी दुआ सुनेगा?"

आ गयीं..बरखा रानी!!

कलही बरखा रानी को याद किया और आज बरस रही हैं...नीचे बच्चे खूब भीग भीग के शोर मचा रहे हैं..बादल गरज रहे हैं, और मुझे अपने बचपनकी बारिश, बचपन का आँगन, और बचपन का घर इस शिद्दत के साथ याद आ रहा है...

और बागवानी की वो शाम भी..पिछले जून माह की..... जब मेरी बिटिया साथ थी...और मैंने बागवानी शुरू कर दी थी...
आज वही बिटिया, तन और मन से दूर है...मेरे मनसे नही..लेकिन मै उसके मनसे...अभी,अभी, खिड़कियाँ बंद करके लौटी और लिखने लग गयी....
उस शाम की तरह, मेरी बिटिया रानी, तुझे आजभी दुआएँ देती हूँ...और देते,देते, आँखे भी भी पोंछ लेती हूँ...!

कैसा अजीब मौसम होता है ये...कभी तो बिटिया याद दिला देता है...कभी माँ, और माँ का घर, वो दादा, वो दादी...!...कभी बच्चों का बचपन तो कभी अपना बचपन....! और बचपनका आँगन !
एक आँख से रुलाता है...एकसे हँसाता है...!
समझ नही पा रही, कि, ये बातें, "बागवानी " इस ब्लॉग पे पोस्ट करूँ, या "संस्मरणों"मे....!

"माँ, प्यारी माँ", ये संस्मरण तो जारी है..." बागवानी" की याद , यहाँ, पोस्ट करनेसे खुदको रोक नही पाई...

Thursday, June 4, 2009

माँ, प्यारी माँ! ४

" अम्मा ! आज जो ख़बर दी आपने, दिल एकबार फिरसे धक्-सा रह गया है...अम्मा अभी तो आपसे कितना कुछ कहना है...लिखना शुरू किया तभी, ऊपरवालेसे दुआ की थी, कि, आप मेरा लिखा पढ़ सकें, इतनी मोहलत तो मिले मुझे...

"आपका एक ख़त अपने सामने लिए बैठी हूँ...एक माँ ने अपनी बेटी को दिया प्रशस्ती पत्रक....बोहोत,बोहोत पहले मेरी बेटी ने मुझे, बडेही भोले भावोंसे, कुछ लिखके पकडाया था....मेरे लिए वो नायब tribute था....मैंने उस छोटेसे निबंध को उसकी teacher के पास पढनेके ख़ातिर दिया और मुझे वापस नही मिला...अब मैंने आपके इस खतको laminate करके रखा है...पहले तो उसकी प्रतियाँ निकाल लीं....

" आप लिखती है,'उस रोज़, मै ऐसेही फुरसत से सोचते बैठी थी...बरामदा खामोश था....कई ख़याल दिलकी राहोँ से गुज़रते रहे.....और जाना कि, उनका रुख तुम्हारी ओर हुआ....मै अनायास तुम्हारी कई सारी बातें याद करती रही...

"याद आता रहा, कि, तुमने हम सभी के लिए कितना कुछ किया है...खुले,बड़े दिलसे, बदलेमे कोई अपेक्षा न रखते हुए.....खुशीसे ओतप्रोत होते हुए....एक सम्पूर्णता से बस निछावर ही निछावर करती गयीं....

"चाहे वो मेरी अनगिनत बीमारियाँ हो, तुम्हारी छोटी बेहेनका ब्याह हो या, छोटे भाई का ब्याह हो...दादी अम्माकी सर्जरीस हों....या और कुछ....जोभी हो... खुले दिल और हाथोंसे तुम सभी को देतीही देती गयीं....सिर्फ़ हमीं लोगों को नहीं...तुम्हारे संपर्क में आनेवाले हरेक को तुमने खुले दिलसे दिया ही दिया...अपना-पराया,ये भेद किए बिना...जिसने जब माँगा, और गर वो युम्हारे पास था, उसे मिलही जाता...इतनी निरपेक्ष?

"जब, फुरसत के लम्हात होते हैं, मै तुम्हारेही बारेमे सोचने लग जाती हूँ....तुम्हारे लिए दुआएँ करती रहती हूँ...ख़ास करके , सूनी-सी दोपहर में या रातको सोनेसे पूर्व...मनसे ढेरों दुआएँ निकलती हैं....

"तुम मेरी सबसे अधिक, ख़याल रखनेवाली, सबसे अधिक समझदार बेटी हो...सबसे अधिक ज़िम्मेदार......
ढेरों प्यार सहित
अम्मा' "

"अम्मा! और लिखना बाकी है...इत्तेफ़ाक़ देखिये! अभी, अभी, लिखते,लिखते,एक गीत लताके सुरों में सुन रही थी...मानो अपना कलेजा उँडेल दिया उसमे लाताजी ने........अल्फाज़ कुछ इस तरह के थे,'
वो जो औरों की ख़ातिर जिए मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला? उन्हें क्या मिला?
जैसे बादल बरसता हुआ,
प्यास सबकी बुझाता हुआ,
जैसे चंदन सभीके लिए,
अपनी खुषबू लुटाता रहा...
वहीँ तुम, अपना जीवन लुटाती रहीं....

पर तुम्हें प्यार किसका मिला,
ख्वाब देखे हमारे लिए,
एक पलभी अगर सो गयीं,
तुम हो माँ सारे परिवार की,
सबकी फिकरों में तुम खो गयीं..

तुम ना ब्याही, ना मेहंदी रची,
और न माथेको टीका मिला '
वो जो औरोंके ख़ातिर जिए,मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला, क्या sssss मिला sssss?

" अम्मा ये ख़त पढ़ ,मेरी आँखों में कई बार आसूँ छलके...कई बार इसे सीनेसे लगाया... पता नही ,और कितनी बार लगाए रखूँगी.......
"खैर! आप ब्याही तो गयीं...और इसीलिये तो मेरी, और मेरे भाई बेहेन की माँ बनी.....लेकिन इसके अलावा, हर वो क़ुरबानी दी, जो इस गीत से बयाँ होती है....और उससे भी अधिक...

अभी तो कितनी बातें करनी हैं...कईं बातों की माफ़ी भी माँग लेनी है...
क्रमश:

Monday, June 1, 2009

माँ, प्यारी माँ...!३

"अम्मा, आज बेहद थक गयी हूँ...फिरभी रायभान के बारेमे लिखनेका मोह टाल नही पा रही हूँ...
हाँ, वही क़िस्सा बयाँ करनेके खातिर आज लिखना शुरू किया....

पता नही क्यों,रायभान को बस्ती परके सारे बच्चे, हिक़ारत से देखते थे...उसके साथ बुरी तरहसे पेश आते थे...जैसे कि,वो बतख की कहानी...उन बतखों मे एक हँस था..जिसे सब कुरूप कहते थे....रायभान की माँ, हमारे घरमे काम करती थी....

"सब बच्चे हमारी घरकी सीढियों पे बैठ, कुछ खेल रहे थे...मै बगीचे से आयी और सीढीयाँ लाघते हुए, रायभानको एक लात मार दी...बेचारेने," अरे, हटता हूँ, हटता हूँ," कहा और हट गया...
अम्मा, आप सब देख रहीँ थीं...आपने अन्य बच्चों को एक तरफ़ बिठा दिया ...मुझे और रायभानको अपने सामने बुलाया...
"मुझसे बोलीं," इसके सामने कान पकडके १० बार उठक बैठक करो, और हर बार माफी माँगो...कहो,कि, ऐसी हरकत फिरसे कभी नही करोगी..!"
"बेचारा रायभान बडाही सकुचाया-सा एक कोनेमे खड़ा हो गया...
"आपके आगे मना करनेका तो सवालही नही था..जैसा आपने कहा वैसाही मैंने किया......

उसके बाद आपने सब बच्चों को अपने,अपने घर भेज दिया...
मुझे अपने पास,प्यारसे लेके बैठीं और कहा," देखो बेटा, खुदाके आगे सब बच्चे एक जैसे होते हैं...और तुम्हें उसे लात मारके ख़ुशी मिली? तुमने हरकोई उसके साथ ऐसीही चाल चलता है ये देखा और वैसाही किया...हैना? '
"अम्मा, ये शत प्रतिशत सच था...मै खामोश बैठी रही...मेरी उम्र थी कुछ ३ सालकी...लेकिन मैंने ग़लत बात की है, ये मै खूब समझ गयी...

"उस रात मेरे गलेसे खाना उतरा नही..दादा पूछते रहे,कि, मै क्यों खाना नही खा रही...
आपने कहा," कोई बात नही गर एक रात नही खायेगी तो...उसने शामको दूध तो लेही लिया है...फलभी खाया है...नही खा पा रही,तो उसे सो जाने देते हैं।'

"दूसरे दिन सुबह हुई,तो मैंने अपनी माँ और पिताको घरसे नदारत पाया....दादी को पुकारने लगी...वो आ गयीं....
मैंने उनसे पूछा," अम्मा और बाबा कहाँ गए हैं? और वनुमासी,(रायभान की माँ,) क्यों नही आयी? आप क्यों नाश्ता बना रहीं हैं?"

दादीअम्मा ने कहा," तुम्हारे अम्मा -बाबा किसी वजहसे अस्पताल गए हैं...!"

बाबा तो कुछ देर बाद लौट आए...आप नही लौटी....
शाम हुई तो मैंने ज़िद की," दादी अम्मा मुझे बस्ती परके बच्चों के साथ खेलना है...उन्हें बुलाओ ना...और रायभान से मुझे,'डम डम डिगा,डिगा ये गाना भी सुनना है..."

दादी अम्माने मुझे समझाते हुए कहा, " आज नही...अभी कल देखेंगे....! चलो आज मैही तुम्हें कहानी भी सुना दूँगी, और खाना भी खिला दूँगी.."

"अम्मा आप देर रात किसी वक़्त आयीं ...मुझे ठीकसे पता नही चला, लेकिन आपको मेरी बग़ल मे पाके बड़ा सुरक्षित लगा..

"सुबह मेरी आँखें खुली, तो फिर आप मेरे पास नही थीं ...मुझे बस्ती परसे रोने धोनेकी आवाजें आ रहीं थीं...मै कुछ समझ नही सकी...जानती थी,कि, बस्तीपरके कई मर्द अपनी बीबिओं को मारते हैं..ऐसेमे वो रोती,रोती माँ या दादी के पास आती थीं..अब जब माँ ख़ुद बस्तीपे मौजूद है,ये मुझे बताया गया, तो मुझे बेहद हैरानी हुई,...माँ के होते हुए भी क्या उन औरतोंको मारा जा रहा है?

मैंने दादी अम्मासे कहा," मुझे बस्तीपे जाना है...मुझे जाने दो ना.....!"

"दादीअम्मा ने मुझे अपनी गोदीमे लेके कहा," अभी नही...शामको देखेंगे......"
"लेकिन आप कलसे मुझे रोक रहीं हैं..मुझे वो गाना सुनना है रायभान से...उसे तो बुला लो ना..!"मैंने अपनी ज़िद कायम रखी......
"अंतमे दादी अम्मा ने शायद सोचा कि, मुझे चंद बातें औरोसे पता चलें, उस बनिस्बत, वो खुद्ही बता दें तो बेहतर होगा......
"वो कहने लगीं,तो मैंने गौरसे उनके चेहरेकी ओर देखा...उनकी आँखों मे पानी था..होंठ काँप रहे थे,....... उन्हों ने कहना शुरू किया," बच्चे, रायभान अब फिरसे यहाँ कभी नही आयेगा.......!"
"लेकिन क्यों? मैंने उसे लात मारी थी इसलिए? मैंने माफी तो माँगी थी..दादी अम्मा आप उससे कहो ना,कि, मै फिरसे ऐसा नही करूँगी.." मुझे अब रुलाई-सी आने लगी थी...

"दादी अम्माके आँखों से अब पानी बहने लगा था...वो बोलीं," रायभान अब भगवान् जी के पास चला गया है! वो दोबारा हमें कभी नही दिखेगा....!"
मेरा मन एकदमसे धक्-सा रह गया..मै इतना जानती थी,कि, एकबार जब कोई "भगवान्" या "खुदाके" पास जाता है तो फिर कभी नही लौटता...! मुझे यक़ीन हो गया कि,वो मुझीसे रूठके चला गया....मेरे बाल मनपे जो उस समय गुज़री, उसका बयान करना कठिन है.....

"बादमे पता चलता रहा...वनुबाई ने चुल्हेपे बड़े-से पतीलेमे, नहानेके लिए पानी गरम करने चढाया था...रायभान और उसकी छोटी बेहेन छबी, वहीँ पे शायद कुछ उधम मचा रहे थे...वो खौलता पानी, चुल्हेपरसे उलट गया और दोनों बच्चों पे जा गिरा...छबू तो बच गयी...रायभान ईश्वर को प्यारा हो गया....

"मुझे याद है, मै, बोहोद दिनों तक सदमेमे चली गयी थी..खानेके लिए जैसे मुझे बिठाया जाता था, मुझे उबकाई आ जाती थी..मुझे अन्य एक बच्चे ने बताया था,कि, रायभान को भूक लगी थी, इसलिए वो अपनी माँ के पास पोहोंचा था..रोटी माँगते हुए...मुझे अब तो याद नही,कि, मै कितने दिन खाना नही खा पायी....

"अम्मा, अगर आप उस शाम मुझसे माफी ना मँगवाती,तो ताउम्र मै पश्च्यातापकी अग्नीमे जलती रहती...कभी खुदको माफ़ करही नही पाती...आजभी वो सारी बातें मेरे मनमे ऐसे अंकित हैं, जैसे कल परसों घटी हों....

सोचती हूँ, मैंने ऐसी हरकत कीही कैसे? क्या सवार था मुझपे? सिर्फ़ किसी अन्य की देखा देखी कर दी? लेकिन,जब कभी मुझे ये बात याद आती है तो शर्मसार हो जाती हूँ...जब कभी, डम डम डिगा, डिगा ये गीत बजता है,तो रायभान का भोला-सा चेरा सामने आ जाता है..."
क्रमश:

वर्तनी के लिए माफी चाहती हूँ..कोशिश तो की है, फिरभी गर कुछ typos रह गए हों,तो क्षमाप्रार्थी हूँ!
प्रस्तुतकर्ता shama पर 11:39 AM संदेश का संपादन करें">
लेबल: पश्च्याताप, प्यारी माँ, माँ, माफी., शमा, संस्मरण, हिन्दी

माँ, प्यारी माँ ! २

आजसे अपनी माँ के साथ, सीधा संभाषण ही करूँगी...जैसे अपनी बेटीसे करती रही हूँ...मूक...वो सुने ना सुने...चाहती हूँ, कि, ये आलेख मेरी माँ ज़रूर पढ़ें...ईश्वर, ये मौक़ा मुझे ज़रूर देना...ये सँवाद अनसुना ना रह जाय...

"अम्मा...आपकी आजकल, पहले शायद कभी नही आती थी, इतनी याद आने लगी है...
आपकी नवासी का एक छोटा-सा किस्सा सुनाती हूँ आपको..शायद पहले ज़रूर सुनाया होगा, पर फिर एकबार...

कुछ ४ साल की आयु थी उसकी...किसी बातपे मुझसे नाराज़ हुई, और अपना पलंग ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगी...
मैंने कहा," बेटा, जानती हो ये कितना पुराना पलंग है? जब तुम्हारे नाना छोटे थे, तो वो इसमे सोते थे....उसके बाद जब मै छोटी थी, तो मुझे इसमे सुलाया जाता था...बादमे तुम्हारी,मासी, मामा, सब इसीमे सोते रहे...आज वो तुम्हें मिला है..."
जैसे, जैसे मै उसे बता रही थी, वो स्तब्ध होती जा रही थी...आँखें फटी जा रही थीं....! पलंग हिलाना भी बंद हो गया...!
मुझसे बोली," माँ! जब तुम छोटी थीं, तो हम दोनों की देखभाल कौन करता था?"
मै जोरसे हँस पडी,बोली," जब मै छोटी थी,तो तुम दोनों इस दुनियामे नही थे!"
उसकी आँखें औरभी गोल, गोल हो गयीं...बोली," तो फिर हम कहाँ थे?"
"तुम भगवानजी के पास थे,"मेरा उत्तर ....
बेटी: "तो फिर हमें वहाँसे यहाँ कौन लाया?"
मै: " तुम दोनों हमें बोहोत पसंद आ गए...इसलिए तुम्हें हम भगवानजी से माँग के इस दुनियामे ले आए.."

कैसा निष्पाप, भोला बचपन था उसका....
अम्मा ! जब मै छोटी थी, तो मुझेभी ऐसाही लगता था...अपनी माँ हमेशा बड़ी ही रही होगी...याद है आपको मै आपसे कैसे,कैसे सवाल किया करती थी?

मेरी कँघी कर रहीँ थीं आप..मुझे इतना याद है, कि, मेरी छोटी बेहेन का जन्म तब नही हुआ था...मैंने पता नही क्या बात कही, और आप जोरसे हँस पड़ीं..
मैंने आपसे, बड़े अचरज से पूछा," अम्मा, जब आपकी माँ आपके पास नही हैं, तो आप हँस कैसे सकती हैं? आपको रोना नही आता?"
आप फिर एकबार हँस पड़ीं, बोलीं:"एक दिन तूभी मुझसे दूर होगी और फिरभी तू हँस पायेगी...खुदा करे, ऐसा हो....!"

मै खामोश हो गयी...ऐसाभी कभी हो सकता है? माँ साथ न हो? घरमे रिकॉर्ड प्लेएर पे एक गीत हमेशा सुना करती थी मै...शमशाद बेगम का गाया हुआ...."छोड़ बाबुल का घर, मोहे पीके नगर, आज जाना पडा,आज जाना पडा, याद करके ये घर, रोयीं आँखें मगर ,मुस्कुराना पडा, आज जाना पडा.."
याद है,मैंने आपसे पूछा था," अम्मा ! 'बाबुल" का " घर क्या होता है?"
अम्मा: ""बाबुल"का घर मतलब अपनी माँ घर, अपने पिता का घर..."
मै:" और 'पीका' घर मतलब?"
अम्मा:" पीका" घर मतलब, जैसे,ये घर मेरे लिए है...ये घर मेरी माँ का घर नही..मै शादी करके,फिर यहाँ रहने आयी....ये मेरे 'पतीका" मतलब 'पीका" घर है....तेरे 'बाबा' मेरे 'पी' हैं..!"
मै:" क्यों? आपको अपना घर क्यों छोड़ना पडा? नानीअम्मा को बुरा नही लगा आपको यहाँ भेज देना? और वो गानेवाली को क्यों जाना पडा? उसके साथ किसीने ज़बरदस्ती की? उसको रोना भी आया फिरभी उसको क्यों जाना पडा?"

मुझे याद है, आप बोलीं थीं:"एक दिन तुझेभी जाना पडेगा..इसी तरह...और शायद तू खुशीसे जायेगी...हो सकता है, जाते समय रो दे......"
मैंने वो ख़याल अपने मनसे पूरी तरह झाड़ दिया...ऐसा होही नही सकता...मै अपनी माँ, दादा, दादी और इस घर को छोड़ के कहीँ भी नही जा सकती...बल्कि, नही ही जाऊँगी...!

लेकिन, चलीही गयी...हाँ, रोई तो बोहोत...घरको तो भूल पाना ....वो तो खैर , नामुमकिन है...!..उस घरमे कितनेही बदलाव हो गए, लेकिन मुझे, वो घर वैसाही दिखता है, अपने सपनों में, जैसा तब था..जब आपका और मेरा ये सम्भाषण हुआ था...

इतने बरसों बादभी,मुझे "अपने घरके" तौरपे वही घर दिखता है! मुझे अपने ससुराल वालेभी गर सपनेमे दिखते हैं, तो उसी घरमे....! मुझे आजतक कोई अन्य घर दिखाही नही!
और ये बात आपकी छोटी बेटीके साथभी होती है...इतनाही नही..हमें किहीम भी और वहाँ का समंदर भी ( मेरे परदादाका एक घर किहीम, इस गाँव के, समंदरके किनारे, था....मुम्बईके पास), अपने खेतको लगी ज़मीनपे दिखता है...और सिर्फ़ मुझे और कुन्नुको नहीँ...आपके बेटेको भी किहीम का समंदर वहीँ नज़र आता है,अपने सपनोंमे... !!!उसे अपना घर छोड़, अन्य घर जाना नही पडा, तो उसे बचपनका घर सपनेमे दिखना लाज़िम है..लेकिन हम दोनों लड़कियोंको???

पता है आपको अम्मा...जब दादा के गुज़र जानेके बाद, दादीअम्मा कुछ रोज़ मेरे पास आके रहीँ,तो हमारी ये सपनों में घर दिखने वाली बात निकली...हैरान रह वो बोलीं," मुझे मेरा मायका छोडे ७२ सालसे अधिक हो गए...लेकिन, सपनेमे मुझे वही खम्बात का घर दिखता है..!"

सोचो तो ज़रा...दादाके साथ उनकी ज़िंदगी कितनी खुश गँवार गुज़री...! जिस दिन दादा गुज़र गए, वो उन दोनोकी शादीकी ७२ वी सालगिरह थी...! जिस दिन साथ जुड़े , उसी दिन बिछडे...!
लड़कियाँ क्यों "पराया धन" कहलातीं हैं? उनकी जड़ें कितनी अधिक उस भूमी, उस घरसे जुडी होती हैं, जहाँ, उनका बचपन गुजरता है...जहाँ उन्हें अपने यौवन मे पनाह मिली होती है..!!!जहाँ उन्हें सुरक्षित महसूस कराया जाता है...या जाना चाहिए...

वो एक शाम मुझे आजतलक नहीँ भूली...मै अपने दादा-दादीके साथ खेतपे घूमने गयी थी...वहाँसे लौटी तो आप रसोईकी सीढीपे खड़ी मिली..मै आपके क़रीब गयी,तो आपने मेरा माथा चूमा....उस एक प्यारे चुम्बनने मुझे कितना सुरक्षित महसूस कराया...मै इतने बरसों बादभी नही भूली...!

और एक बात के लिए मै आपकी ताउम्र शुक्र गुज़ार रहूँगी....ना जाने उस वक़्त आप मुझसे वैसा नही करवाती ,तो, मै ज़िंदगीभर कितना अधिक पछताती...३ सालकी उम्र होगी मेरी...फिरभी वो वाक़या मेरे ज़हन मे अंकित होके रह गया...नाभी रेहता, गर उसके अगले दिन जो घटा ,वो, ना घटा होता...आजभी सिहर जाती हूँ..आजभी अपनी प्यारी माँ के आगे नतमस्तक हो जाती हूँ...
आपके सदाही रुण मे रहना चाहती हूँ...चाहूँगी..."

क्रमश: