Monday, August 3, 2009

ये कहाँ आ गए हम ? ४

उस रात मैंने निम्मीको अपनेही घर रोक लिया....उसके माँ-बाबुजीको क़तई ऐतराज़ नही था...वो तो किसी तरहसे निम्मीको हँसमुख देखना चाहते थे....उसके बच्चे अपने दादा-दादीके पास लौट गए...दोनों लड़कियाँ बेहद जिम्मेदार और स्नेहमयी थीं....

गर मेरे पती घरपे होते तो शायद मै वंदन कोभी, मेरेही घर रोक लेती...लेकिन निम्मीसे खूब जी भरके बातें होती रहीं....निम्मी अपने खोये प्यारको याद करतेही रो पड़ती....उसके पतीने उसे बेहद प्यार और सम्मान दिया था...ऐसी किस्मत विरलाही होती है, ये वो और मै दोनोही मान गए थे...

सुबह नाश्तेके समयतक वंदन भी आ पोहोंचा....बच्चे हमें पूछ, अपनी, अपनी दिनचर्या बनाते रहे....सभी इतने हिलमिल गए थे कि माना नही जाता था .....पहचान बस अभी अभीकी है....

माँ-बाबूजीको किसी मंदिरके दर्शन करनेकी चाहत थी...मैंने बच्चों को ये ज़िम्मेदारी सौंप दी....कोई न-नुकुर नही हुई...मैंने अपनेआपको इस मामलेमे खुशकिस्मत समझा...वरना अक्सर बच्चे ऐसी जिम्मेदारियाँ स्वीकारना नही चाहते...और कुछ तो निम्मीकी बेटियोंका असर ज़रूर था...दोनोही अपने दादा-दादीका बड़े मनसे ख्याल करतीं...

जब ये सब अपनी अपनी दिशओंमे निकल पड़े, तो हम तीनो फिर गपशप मे लग गए....मै दो चार बार रसोईके लिए उठके अन्दर चली जाती रही....खाना झटपट वाला बनाया था....अधिकसे अधिक समय बातचीतमे गुज़ारना चाह रही थी....
दिनके ढलते एक बात मुझे महसूस हुई, वो ये कि , वंदन निम्मीकी ओर मोहित हो चला है....उसकी हर छोटी ज़रूरतका, मूह खुलनेसे पहलेही अंदाज़ लगा लेता....मुझसे ये बात छुपी नही...निम्मीने शायद गौर किया नही.....
एक ख्याल मनमे मेरे चोर क़दमोंसे दाखिल होने लगा...गर ये दोनों अपना घरौंदा फिर एकबार बसा लें तो??

जानती थी, कि , माँ बाबूजी तो खुशही होंगे....बेटी समझ उसका कन्यादान कर देंगे.....क्या निम्मी मानेगी? वो अभीभी अपने पहले प्यारकी दुनियामे जी रही थी....कहीँ न कहीँसे अपने बिछडे प्यारको, वो अपने संभाषण मे लेही आती....उसके बारेमे क्या कह डाले, कितना कह डाले....उसके लिए कम था...सारे बाँध खुल गए थे....और हम उसे रोकना टोकना नही चाहते थे....भरी भरी-सी एक बदरी थी...छलक जाना बेहतर था....

पर वंदन फिर कब मिलेगा...? ऐसा मौक़ा कब फिर आयेगा? ये सब कुछ एकसाथ घट रहा था...... नियतीका कुछ इशारा तो ना था...मै नही तो, इस वक़्त कौन समझदारीसे क़दम उठा सकता है...?
उस शाम मै खामोश-सी रही....कुछ रसोईका बहाना, कुछ अन्य कामोंका बहाना बनाके, वंदन और निम्मीको नदीके किनारे, जो एक पहाडीके पास गुज़रती थी, घूमनेके लिए भेज दिया....बेताब थी, कि जब दोनों लौटेंगे तो कुछ तो बात आगे बढ़ी समझमे आयेगी.....

लेकिन नही समझ पाई...हाँ! वन्दनको ज़रूर मैंने थोड़ा खामोश पाया...अब मैंने अपना दिल कडा किया...माँ-बाबूजीको मिलने मै देर शाम उनके गेस्ट हाउस पोहोंचही गयी....समय कम था...और बातकी नज़ाकत समझनी ज़रूरी थी....निम्मीकी ओरसे अधिक....माँ-बाबुजीका रवैया तो मुझे हर तरहसे आश्वस्त कर गया गया था......
मैंने, अधिक भूमिका ना बनाते हुए, सीधेही उनकी राय पूछ ली....

दोनोंकी आँखोंमे पानी छलछला आया....कुछ देर खामोशी छा गयी...एक ज़िंदगी मेरे आँखों के आगेभी घूम गयी...निम्मीसे बिछड़ना...मतलब अपनी औलादसे जुड़े एक अध्याय को अपनेसे जुदा कर देना...
अपनी लाडली पोतियोंको से अलग होना...चाहे वो उन्हें मिलती रहें...कोई बीचका ऐसा मार्ग था, कि, जो इन नए रिश्तोंके बन जानेके बादभी, शारीरिक नज़दीकियाँ बनाये रखे?

वंदन का काम इस बातमे आडे आनाही था....उससे कितनी उम्मीद रखी जा सकती थी? अभी तो उसके साथ बातभी नही हुई थी...नाही निम्मीसे...उसकी क्या प्रतिक्रया होगी? उसकी बेटियाँ? जानती थी, कि , अपनी माँ के हर सुखमे उनकी ख़ुशी है....

निम्मीसे कुछभी कहनेसे पूर्व, मैंने वंदन से बात करना ज़रूरी समझा....उसे निम्मी सो जानेतक रुकाये रखा....जब मैंने देखा, कि, निम्मी गहरी नींदमे सो गयी है, मै बाहर आ गयी.......वंदन के साथ काफी के प्याले लेके बैठ गयी........ सीधे उसकी आँखोंमे झाँकते हुए, सवाल कर दिया," निम्मी के बारेमे तुम जितना ज़रूरी है, उतना तो जानही गए हो...दोनोंके आगे लम्बी ज़िंदगी है...एक दोस्त, हमसफ़र की ज़रूरत है...जो एकदूसरेका सहारा हों, एकदूसरेको समझें....और सफर तय करें....बचपनके साथी होनेके कारण काफ़ी कुछ खुली किताब-सा है....क्या ऐसा हो सकता है?"

वंदन ने खामोशीसे सब सुन लिया और बोला," गर मुझसे पूछो तो निम्मीने तुंरत मेरा मन मोह लिया....शायद उसकी संजीदगी कहो या, निष्कपटता कहो.....ज़राभी बनावट नही है उसमे...और ऐसेही नही उसके सास-ससुर उसकी इतनी इज्ज़त करते हैं......पर उसकी राय बेहद ज़रूरी है...और प्लीज़ , इस बारेमे बात, मेरे जानेके बाद करना...मै संपर्क मे रहूँगा...वरना मै उसके साथ आँख न मिला पाउँगा..."

वंदन का जवाब सुन मेरे मनमे एक विलक्षण खुशीका एहसास हुआ...काश!!ऐसा हो जाए...काश ये दोनों अपना जीवन नए सिरेसे बसा लें...वंदन एक जिम्मेदार पिता साबित होगा इस बारेमे मुझे कोई शक नही था....
कल जैसेही वंदन जायेगा, मै निम्मीके साथ बात कर लूँगी...और फिर उसकी बेटियोंसेभी .........
शुभस्य शीघ्रम........मै खुदही बेताब हुए जा रही थी....उन दोनों को खुश देखना चाह रही थी.....जहाँ चाह वहाँ राह....यकीनन, मेरे इरादे इतने, नेक,पाक साफ़ हैं.....मुझे अवश्य सफलता मिलेगी.....उस रात मै, इन्हीं दिवासपनोंमे खोयी रही....निम्मीके जागनेका इंतज़ार करती रही.....

2 comments:

shama said...

1 comments:

Mahesh Sinha said...

आपके लेखमे काफी जानकारी मिली ...मै आजभी सिर्फ़ अपनाही देश मेरे रहने लायक मानती हूँ ...यही सच है .

ये सन्दर्भ समझ नही आया

दिगम्बर नासवा said...

सस्पेंस abhi bhi.बरक़रार है kya baat hai .......achee chal rahi hai kahaani