Friday, July 31, 2009

ये कहाँ आ गए हम...? २

क्या लिखूँ...कहाँसे शुरू करुँ? वंदन और निम्मी के बारेमे बताना...?कितना पीछे चली जाऊँ....मन टटोल रही हूँ...

वंदन, मै और निम्मी, एकदूसरेको बचपनसे जानते थे...महाविद्यालायके दिन आए तो, वंदन ने अपनी पढाईके लिए दूसरा शेहेर चुना...मै और निम्मी उसी शेहरमे, लेकिन अलग, अलग विषय होनेके कारण दो भिन्न महाविद्यालायोंमे पढ़ते रहे.....
जितना पाठ्शालाके दिनोंमे एकदूसरेके घर आना जाना होता था, अब कम हो गया...मैंने अपनी स्नातक की पदवी पा ली और साहित्य विषय मेही MA करने का निर्णय ले लिया। निम्मीने मास communication का कोर्स ले लिया।
अक्सर छुट्टियों मे वन्दनसे मुलाक़ात हो जाती। वंदन ने मेडिसिन शाखा चुनी थी। MBBS के बाद उसने अपनी internship मुम्बईमे पूरी की...तेज़ दिमाग़ था...लगन थी...सर्जरी शाखा चुन वो UK चला गया....FRCS भी बन गया....
निम्मी ने अपने पसंदके लड़केसे शादी कर ली...वो व्यक्ती उसके महाविद्यालय के faculty पे था। सुलझा हुआ....स्नेहिल और हँसमुख...परिवारभी खुले खयालात का...दोनोंके परिवारवाले प्रसन्न थे...

निम्मीके ब्याह्के चंद दिनोबाद मेराभी ब्याह हो गया...अब हमलोग वाकई बिछड़ गए...ख़तोकिताबत एकही ज़रिया था तब...या कभीकबार फोन....संपर्क बनाए रखनेका...
वंदन के साथ तो मानो संपर्क नाके बराबर रहा....निम्मीकी खबरभी मुझे अधिकतर मेरे नैहरवालों से मिलती...मेरा पीहर एक गांवमे था....वहाँ तो फोन नहीही था...
दिन महीने साल गुज़रते रहे....अपने, अपने उतार चढाओं के साथ हम अलग, अलग मोडोसे मुड़ते हुए, जीवन पथपे चलते रहे...

वंदन का भी ब्याह हो गया था...उसकाभी अपना परिवार था...वो UK मेही स्थायिक था...उसकीभी ख़बर मुझे अपने नैहरसेही मिल जाती...
मेरी और निम्मीकी शादीको १४/१५ साल हो गए थे...निम्मीको दो बेटियाँ थी....वंदन को कोई औलाद नही थी...मै कभी उसकी पत्नीसे मिलीही नही थी...नाही निम्मी....मेरे परिवार तथा बच्चों के चलते, मेरा अपने नैहर आना जाना काफ़ी दूभर हो गया था...बीमारियाँ, स्कूल, परीक्षाएँ...सभी कारण मौजूद रहते....

और एक दिन ख़बर मिली कि , निम्मीके पतीका एक सड़क दुर्घटना मे अंत हो गया....कितना सुखी परिवार था...मानो किसीकी नज़र लग गयी....
निम्मी के ससुरालवालों ने उसे अपनी बेटीही माना था....उसे हर तरहसे मनोबल दिया...अपना दुःख भूल, उसके सास ससुर, उसीकी चिंता करते....मै ख़ुद उसके पास कुछ दिन गुज़ार आयी...

इस घटनाकोभी देखतेही देखते एक साल हो गया...अबके, बड़ी मुद्दतों बाद मुझे अपने नैहरमे कुल २५ दिन बितानेका मौक़ा मिला....एक रोज़ शाम ऐसेही हमसब बैठे हुए थे कि , मुझे वंदन के बारेमे पूछ्नेकी सूझ गयी....और सुना कि उसका तो ब्याह कबका टूट गया....! ३/४ साल हो गए उस बातको....! और अब तो वो भारत लौट आनेके प्रयासमे था....!
एक ओर ख़ुशी हुई कि, अपने बचपनका साथी भारत लौट रहा है...दूसरी ओर दुःख हुआ कि, उसके जीवन मे इसतरह से अस्थैर्य आ गया....

मै लौट गयी अपने ससुराल....कुछ छ: माह बादकी एक बात बता रही हूँ...निम्मी और उसके परिवारवाले , छुट्टियों मे घुमते घामते हमारे शेहेर आ पोहोंचे...मै बेहद खुश हुई...पर मनही मनमे एक बात आही गयी...काश निम्मी, अपने पतीके रहते, एक बार तो आयी होती...!

उन लोगोंको आए २/३ दिनही हुए थे, कि मुझे वंदन के ,उसी शेहेरमे आनेकी ख़बर मिली...मैंने उसके साथ बडी शिद्दतके साथ संपर्क किया...उसे आग्रह किया, कि, वो मेरे घर ज़रूर आए...कि,निम्मी भी आयी हुई है, अपने परिवारके साथ...उसने सहर्ष मान लिया...मैंने सभीको भोजनपे आमंत्रित किया....

लग रहा था, मानो अपना बचपन लौट रहा है...क्या, क्या, बातें होँगी...कितना अरसा हो गया....कितना कुछ कहनेके लिए होगा...कितना कुछ सुननेके लिए होगा....निम्मीकी खामोशी, उसे घेरे हुई उदासी, कुछ लम्हों के लिए दूर होगी...

बडेही चावसे मैंने खाना बनाया...घर सजाया....और इंतज़ार करने लगी...सभीके आनेका....निम्मी तथा उसका परिवार एक अथितिग्रुहमे रुके थे....मेरे लाख कहनेके बावजूद कि, मेरेही घर रुकें....मैंने ३ बार वहाँ फोन कर पता किया...आ तो रहे हैं ना...वंदन कोभी उसके सेल्पे संपर्क करती रही...अपने घरका पता समझाती रही....
क्रमशः

Wednesday, July 29, 2009

ये कहाँ आ गए हम ?१

आज सोचनेसे इतनी मजबूर हूँ,कि देर रात तक अपने काम निपटाती रही और सवेरा हो रहा है..आसमान मे पूरबा अपने सूरजकी आहटसे रक्तिम हुई जा रही है...थोडीही देरमे पँछी जागने लगेंगे..एक नए दिनकी शुरुआत होगी..मेरे दो दिनों के बीछ कोई फासलाही नही रहा है...

लोग कहते हैं, यातायात के साधनों से दुनिया छोटी होती जा रही है॥संपर्क करनेके कितने तरीक़े ईजाद हो गए हैं....नेटपे बैठो, बात करते, करते अगलेको देखभी लो...बस छू नही सकते....तरस तो शायद मेरे जैसे, इसी स्पर्शके लिए जाते हैं !

पहले परदेस से एक ख़त आनेमे कितने हफ्ते बीत जाते...कईयों के पास फ़ोन भी नही होते...गर होते तो प्रथम कॉल बुक करो फ़िर बातचीत....उसके बाद STD का ज़माना आ गया...घरसेही लगा लो...!और आगे चले तो आईएसडी का ज़माना शुरू हो गया...लो औरभी आसान...फिर इंटरनेट ने और मोबाईल फोन्सनेतो सीधे अपनी ज़िंदगी बदल दी....झटपट संपर्क...जब हमारा दिल करे ,मेसेज छोड़ दें..जब अगलेको फुरसत हो वो छोड़ देगा या फ़ोन कर देगा...! कितना नीरस लगने लगा ये सब!!

इन सबमे वो पुरानावाला अपनापन कहाँ गया? वो डाकियेका इंतज़ार, वो तन्हाई तलाशते हुए अपने किसी प्रियका ख़त पढ़ना...अगला ख़त आनेतक, उस खतको ताकियेके नीचे रखे बार, बार पढ़ना...और उसमे छिपी गुलाबकी पंखुडी या जूही,रातरानीका फूल सँभाल के अपनी किसी किताबमे रख देना....

बेहतर संपर्क के लिए आप दो लैंड लाइन रख लें...हर किसीका अपना अलग सेल हो...एक बस नही तो दो हों...! और मज़ेदार बात ये कि, हमारे जैसे फोन करनेवाले, एक सेल व्यस्त आता है तो तुंरत दूसरेपे नम्बर घुमा देते हैं...! ये नही सोचते कि गर एक नंबर व्यस्त है, इसका मतलब वो व्यक्ती किसीसे बात कर रहा होगा...और अगलाभी ऐसा नही करता की, एक फोनपे बात करते समय दूसरेको "silent" पे रख दे...!

या तो उस पहले व्यक्ती से कह देना पड़ता है कि, बादमे बात करेंगे, या हमें सुनना पड़ता है कि, हमसे वे अपनेआप संपर्क कर लेंगे...! हम दिलमे बुरा मान जाते हैं, कि देखिये जनाबको जब हमारी ज़रूरत थी तो दस फोन लगाये...आज हमने फोन किया, तो कह दिया बादमे बात करेंगे! आपसी संबंधों मे ऐसी बातें कितनी एहमियत रखती हैं...!

सोचने लगती हूँ,तो महसूस होता है, वो ख़तोकिताबत का ज़मानाही बेहतर था....दुनियाँ तो व्यवसाय के खातिरही सही, छोटी हो रही है, लेकिन आपसी रिश्तों-संबंधों मे दूरियाँ बढ़ती नज़र आ रही हैं ! पत्नी फोन करे तो अमरीकामे बैठे पतीको फोन बिल नज़र आने लगता है...पती ना करे तो पत्नी को लगता है, कमाल है, हर बार मैही फोन करती हूँ, कभी वो क्यों नही करता??

वो आत्मीय भावना जो अपने हाथोसे लिखे खतों मे महसूस होती वो गायब...आप अपने पतीके साथ कारमे सफर कर रहे हैं...खुदका मोबाइल तो घर छोड़ रखा है...हम तरस रहे होते हैं कुछ अन्तरंग , आत्मीय बातें कहने सुन नेके लिए, लेकिन पतिदेव मशगूल हैं, अपने sms पढ्नेमे या उन्हें reply करनेमे...कहेंगे," कम्युनिकेशन का क्या कमाल है..मानो दुनिया मुट्ठी मे आ गयी हो..अमरीकासे शेर भेज रहा है, श्रीरतन...!"

हम खामोश...हाँ,मे हाँ मिलाते हुए...कितना कुछ कहना था...सोचा घरमे तो वैसेभी इन्हें मोहलत नही मिलती...एक दिन हँसते, हँसते कह दिया.."हाँ सचमे कितना कमाल है..लेकिन कई बार लगता है कम्युनिकेशन से ज़्यादा मिस कम्युनिकेशन होता है...!


बस मार ली हमने अपने पैरोंपे कुल्हाडी..आ बैल मुझे मार...!
हो गया ख़त्म रूमानी चाँदनी रातका नशीला आनंद ...जब अपने पतीका हाथ हौलेसे पकड़, निशब्द्तासे बोहोत कुछ कह देती....

ऐसी कितनीही शामें गुज़र गयीं......अनकही बातें मनमे दबके रह गयीं..


नेटकी सुविधाने या मोबाइल्की सुविधाने दुनिया तो छोटी कर दी, पर आपसी रिश्तों मे कोसों की दूरी.....
ऐसी दूरियाँ, जिस कारन बडेही खूबसूरत रिश्ते टूट गए....खासकर जब हम इन सुविधाओं के इतने आदि हो जाते हैं कि, जब ये उपलब्ध नही होती, उसी दोस्तसे नाराज़ हो बैठते हैं...ये सोंच के कि उसीने संपर्क नही किया..कितना बेज़िम्मेदार हो गया है...ये नही सोचते कि उसकीभी कोई मजबूरी रही होगी...

गर किसीका sms या फोन न आए तो असलमे हमारी पहली प्रतिक्रया होनी चाहिए, सब कुछ कुशल मंगल तो हैना....एकदमसे जजमेंटल होनेसे तो ठंडे दिमागसे सोचना चाहिए कि ज़रूर उस व्यक्तीके साथ कुछ ऐसा घटा होगा, जो कि वो संपर्क नही कर पाया....

जब मोबाइल फोन बस शुरुही हुए थे, तब उनपे ग़लत नंबर लग जाना, या फोन कनेक्ट ही ना होना ये सब नही होता था...एक मोबाइल फोन होना एक स्टेटस सिम्बल भी हो गया था...केवल सुविधा नही!!
और आज अनुभव कर रही हूँ कि, संपर्क के बदले,मोबाइल, ग़लत फेहमियों का अम्बारभी खड़ा कर रहा है....हमें लगता है, अगलेको sms तो मिलही गया होगा....मिस कॉल भी मिल गया होगा...
अगला सोचता है कि, इसने मुझसे संपर्क करना ज़रूरीही नही समझा....इधर हम राह तकते हैं, और मनही मन तनावग्रस्त हो जाते हैं...हमने फोन किया, sms किया, अगला इस ओर गौर क्यों नही कर रहा?? ऐसीभी क्या व्यस्तता कि एक sms भी नही कर सकता?

इसके मैंने ऐसे परिणाम भुगतते हुए लोगोंको देखा कि, ये लेख लिखनेपे मजबूर हो गयी.....क्या हो गया हमारे आपसी विश्वासको ?उतनाही ज़रिया काफ़ी है?क्या हमारा विश्वास का साधन केवल एक गजेट मात्र है?वही एक ज़रिया है जो हम अपना सकते हैं? जो बरसोंके संबन्धको चंद पलों मे ख़त्म कर देता है? जो कभी सहारा लगा था दूरियाँ कम करनेका वो इतनी दीवारें खडी कर सकता है ?

क्या हम आगसे खेल रहे हैं? क्या हमारे दिलो दिमाग़ इस बदलाव के ज़बरदस्त वेगको अपनानेमे समर्थ हैं? कहाँ है गलती? और कहीँ नहीँ....हमारी समझदारीमे गलती है...आग बुरी नही, आगसे खेलना बुरा है....आगको अपना दिमाग़ नही होता...वैसेही इस उपकरण को अपना कोई दिमाग़, अपना कोई अस्तित्व नही....उसके उपभोगता से जो अलग हो....दुनियाँ मे हर दिन नयी चीज़ें ईजाद होंगी....हमें अपने क़दम सोच समझके उठाने हैं....वरना जो हमारे इस्तेमालके लिए बनी हैं, हम उनके ग़लत इस्तेमाल का शिकार होते रहेंगे....उनपे हदसे अधिक विश्वास रखनेका शिकार....

क्रमशः
अगली पोस्ट मे मैंने देखे बडेही दुखदायी परिणामों के बारेमे लिखूँगी....ये वाक़या किसीकेभी साथ घट सकता है.....सोचती हूँ, हम कितनी सतर्कता से इस वेगको झेल रहे हैं??ऐसी राहोंमे घटनेवाले अपघात हमें नज़र आते हैं??
वंदन और निम्मीको कुछभी अंदेसा था??हमारी कार २०० km की रफ्तारसे चल सकती है तो क्या उस वेगके क़ाबिल हमारे रास्ते हैं?क्या हमारी ज़िंदगी एक ऐसीही राह है, जहाँ हम संभल के गुज़र नही रहे?क्या हुआ उस शाम?
कौनसी ख़बर मेरे कानोंसे टकराई, जिसने मुझे हिलाके रख दिया? ना वंदन से संपर्क हो रहा था, ना निम्मीसे....किस क़दर असह्य लग रहा था........उफ़!!कितना असहाय महसूस कर रही थी....

Sunday, July 26, 2009

जिन्हें नाज़ है हिंद्पे...!

कहाँ हैं ? कहाँ हैं? कहाँ हैं ? जिन्हें नाज़ है,हिंद्पे वो कहाँ हैं॥?

पहले भी, ये आवाज़ उठा चुकी हूँ...फिर उठा रही हूँ...वजह॥? चंद रोज़ पूर्व, एक अत्यन्त विश्वसनीय NGO ने मुंबई में सुरक्षा के तहत, ५,००० कैमरे लगा देनेका प्रस्ताव सरकार को दिया...CM, deputy CM, आदि सभी उस मीटिंग में मौजूद थे...प्रस्ताव स्वीकार हो गया...इसमे कोई दो राय नही थी,कि, ये इस समय की दरकार है...एक सेवा में अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी ने बड़ी शिद्दत के साथ ये मीटिंग रखवाई थी...
और सुने, मीटिंग के दो रोज़ बाद ,चंद्रा ऐय्यंगार नामक, आईएस, अफसर ने,( सेक्रेटरी to the govt ऑफ़ इंडिया, जिसके तहत पुलिस मह्कमा आता है,) प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा ," सरकार तो पहलेही इस काम में जुटी है...किसी NGO को इस कामके खातिर धनराशी देनी हो तो दें...!"
वाह ! मरने दो जनता को..मरने दो सुरक्षा कर्मियों को...IAS के अफ़सर,जो पुलिस के उपरसे हटना नही चाहते, जिन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से कोई लेन देन नही...ना वाबस्ता होना चाहते हैं, उन्हों ने एक पलमे सारा प्रस्ताव रफ़ा दफ़ा कर दिया...! जबकि, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई में, ऐसे किसी काम में जुटी नही है...! अपने अधिकार बनाये रखने के ख़ातिर, किस क़दर स्वार्थी हो सकते हैं लोग ?
कोई पूछे इनसे, ये जो, पोस्टिंग्स पे तामील करते हैं,कि, २६/११/२००८ के बाद से तक़रीबन ८ माह , ATS के प्रमुख की पोस्ट रिक्त क्यों रही? क्या इस पोस्ट को पढने वाले पाठक अपनी आवाज़ उठा सकते हैं? पाकिस्तान को क्या कहें? जब हमारे ही तथा कथित 'ज़िम्मेदार' अफ़सर अपने 'ऐसे ऐतिहासिक निर्णयों' से उस देशकी सहायता में जुटे हों तो?

अब आलेख जारी है:

पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे डाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !
अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?

कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री। धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नॅशनल पोलिस कमिशन के तेहेत, कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-।भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे... यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके ज़िम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!

इन में से कई लोगों का हमारे घर, एक परिवार की तरह आना जाना लगा रहा करता... एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।

रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...

सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....

Tuesday, July 21, 2009

तिनका ,तिनका जोड़ ...

WE LOVE HERE

अपनी बिटिया के लिए ये ' name plate' बनाई थी...वाक़ई में तिनका,तिनका जोड़...! घोंसला बनाया था, 'plumber' ने फेंके रस्सी के टुकडों में से..अंडे थे, पता नही, परदादा या उनके भी पिता के शेरवानी के buttons. अन्य कुछ कपडों के तुकडे, जिनसे दीवारें बनी...बिटिया सूत कताई करती थी..उसकी कुछ घाँस फूंस..और पता नही क्या,क्या जुगाड़ किया...! अफ़सोस...इस name plate के अलावा भी, बहुत कुछ,जो मैंने हाथों से बनाया था...सब के सब शिपमेंट में खो गया...! जिनमे पिछली कमसे कम, ५ पीढियाँ जुडी हुई थीं...वो सारी धरोहर...!

Wednesday, July 15, 2009

सासू माँ:एक संस्मरण ! १

अजीब रिश्ता रहा हम दोनोका ! किसी गाफिल पल, उन्हें मुझपे बेहद प्यारभी आता और फिर अचानक अजीबसा संताप !
एक विचित्र वाक़या घटा और मुझे उनके बारेमे अलगसे कुछ लिखनेका मन कर गया। उसका बयान नही करूँगी क्योंकि ये संस्मरण बेवजह विस्तारमे चला जाएगा।

१९९३ वे की एक शाम। केवल एक ही रोज़ पूर्व, मेरे पती की मुम्बई पोस्टिंग हुई , मतलब वे अपना पदभार स्वीकारने मुंबई चले गए थे। महाराष्ट्र पुलिस अकादमी के संचालक पदसे, तबादला हो, मध्यवर्ती सरकारमे डेप्युटेशन पे। पदभार मुम्बई मे संभालना था। आर्डर मौखिक थे। सरकारी छुट्टियाँ थी, और कहा गया था कि, वो मुम्बई पोहोंच जायें ....जिस दिन दफ़्तर मे पदभार लेने आयेंगे, लिखित आर्डर दे दिए जायेंगे।

उनका समारोप समारंभ हो गया था। मुम्बई मे उस पोस्ट के लिए मकान भी मौजूद था। मैंने सोच रखा था, कि, जैसेही इन्हें आर्डर मिलेंगे मै सामान बाँधना शुरू कर दूँगी....
उस शाम की जिसकी मै बात कर रही हूँ, मेरी एक काफ़ी क़रीबी सहेली, मुझे अपने घर ले जाने आयीं। उनका घर शेहेरसे कुछ २५ किलोमीटर की दूरीपे था।

मै उनके साथ जानेके लिए, अपने पहली मंज़िल के कमरेसे नीचे उतरी, तो देखा, बीजी, एक महिला से, अपने पैरकी मालिश करवा रहीँ थीं।वो महिला हमारे घर दिनमे झाडू लगा दिया करती तथा घरके पिछवाडे बने सरकारी कमरोंमे रहती। बड़ा-सा बरामदा था....वहीँ पे एक सोफेपे वे बैठीं थीं।

उनका कमरा मैंने ख़ास निचली मंज़िल पेही रखा था। एक तो वो नाबीना हो चुकीं थीं..... दूसरा , फोन के अर्दली उस कमरेके बाहर ही बैठते थे ......सबसे बड़ा कारन था, उनका ओस्टोपोरोसिस। पत्थरकी बनी, पुराने ज़मानेकी , ऊँची, ऊँची सीढियाँ चढ़ना, उनके बसका ही नही था।

मै मनही मन शुक्रगुज़ार थी कि, नीचे एक अच्छा कमरा था, वरना मैंने ऐसे घर देखे थे, जहाँ सारे शयनकक्ष ऊपर और बैठक, खानेका कमरा तथा रसोई नीचे...!
सहेलीके साथ बाहर जानेके पहले मुझे पता नही क्या सूझ गयी, जो मैंने बीजीसे कहा," बीजी, आप जब बाहर घूमने जाएँ, तो घरके अहातेमेही घूमना। आज मै घरपे नही हूँ। विमलाके साथ उनके घर जा रही हूँ। दो घंटों के भीतर लौट्ही आऊँगी।"
बीजी ने जवाबमे कहा," ना...मुझे तो अकादमी के अहातेमे घूमना है। यहीँ के यहीँ घूमनेमे ना तो मुझे मज़ा आता है ना घुमानेवालेको......!"

ऐसा नही कि, वे कभी घरका अहाता छोड़, बाहर घूमने नही जातीं थीं, लेकिन ऐसे समय मै घरपे मौजूद रहती। घरके बाहरका अहाता ज़रा पथरीला था। उनके गिरनेका मुझे बेहद भय रहता। उन्हें मधुमेह्का रोगभी था। ज़ख्म ठीक होना मुश्किल ......मधुमेह्के कारन ही वे, रेटिनल detachment की शिकार हो, नाबीना हो गयीं थीं। उनपे हर मुमकिन सर्जरी हो चुकी थी...केवल भारत के नहीं, दुनियाके बेहतरीन नेत्र तग्य से....

मैंने फिर एकबार गुहार लगाई," बीजी, सिर्फ़ आजके दिन...मुझे विमलाके बगीचे का landscaping हर हालमे आज पूरा करना है....सिर्फ़ आजके दिन...आपको पता है, मै इसतरह आपको कभी नही टोकती...!"
मेरे साथ विमलाने भी उनसे वही कहा...वो हलकेसे हँस दी और बोली," चलो विमला, तुम कहती हो तो मान लेती हूँ...!"

मै विमलाके साथ निकल पड़ीं। उन दिनों मोबाइल फोन तो थे नही! हम दोनों उसके घरके गेट के भीतर प्रवेश ही कर रहे थे, कि, अन्दर फोन की घंटी सुनाई पड़ीं। जबतक विमला अन्दर गयीं, वो बंद हो गयी। विमला फोनसे अलग होनेही वाली थी , कि, मैंने उसे टोक दिया," विमला, ये फिरसे बजेगा...रुको कुछ पल..."
मेरा इतना कहनाही था कि, फ़ोन दोबारा बज गया। विमलाने उठा लिया....पलट के मुझे बोलीं," तुम्हारे लिए है...तुम्हारे घरसे.....अर्दली बोल रहा है....कुछ घबराया-सा है....."

मैंने लपक के फोन अपने हाथ मे ले लिया....दूसरी ओरसे आवाज़ आयी," माताजी गिर पड़ीं हैं.....घरमेही....आप तुंरत आ जाईये..."
मैंने उसी फोनसे एक डॉक्टर दोस्त का नंबर घुमाते हुए, विमलाको स्थिती बता दी...उसी डॉक्टर से इल्तिजा कर दी, कि, एक अम्ब्युलंस तुंरत घर भेज दें......वहाँ के एक सबसे बेहतर अस्पताल मेके , अस्थि तज्ञ को इत्तेला दें.... कमरा भी बुक कर लें.......अस्थी तज्ञ जानेमानेही थे, क्योंकि, मै बीजीको नियमित रूपसे चेक अप कराने ले जाया करती, या, कई बार वो घर पे आ जाया करते।

जबतक घर पोहोंची, अम्ब्युलंस हमारे फॅमिली डॉक्टर के साथ हाज़िर थी..... बीजीको लेके मै अस्पताल पोहोंच गयी। मुझे आजतक समयका भान नही....कब उनका x-ray लिया...कब डॉक्टर ने अपना निदान बताया...मेरे पतीको कब और किसने ख़बर की...वो उसी रात आ गए या अगले दिन.....?

हाँ ! निदान याद है," उनकी हिप बोन टूट गयी है....हड्डी टूटने के कारण वो गिरीं....गिरनेके कारण हड्डी नहीं टूटी....लेकिन वो बिना अपनी लकडी या किसीका सहारा लिए, तेज़ी से चलीं हैं.....इतना आपका अर्दली मुझे बता चुका है....उन्हें घूमने जानेकी जल्दी थी....आपके घर लौटनेसे पहले वे घूमना चाह रहीँ थीं...अर्द्लीको उन्हों ने बर्फ का ठंडा पानी लाने भेजा...लेकिन उन्हों ने उसके लौटनेका इंतज़ार नही किया....अपने कमरेसे उसे आवाज़ें लगा, अकेलीही आगे बढ़ गयीं और गिर गयीं..."

मै इस बातको नकार भी नही सकती थी...नाही किसी अर्दलीपे नाराज़ हो सकती थी....सभी बेहद भरोसेमंद थे...और बीजी ख़ुद ये बात स्वीकार कर चुकी थीं... मेरे बच्चे भी घरपे थे.....बेटीने उन्हें गिरते समय देखा था....वो उनके पास दौड़ी तबतक देर हो चुकी थी....

मेरे आगे दो पर्याय रखे गए," सर्जरी के बिना हिप बोन जोड़ नही सकते......सर्जरी मे क्या यश मिलेगा येभी नही कह सकते....सर्जरी नही की, तो, वे कभी चल नही पाएँगी...उन्हें बेड सोर्स हो जायेंगे...तथा ज़ख्म ठीक ना होनेके कारण अन्य कई complications ...आप निर्णय ले सकती हैं?"

मनमे आया....हे ईश्वर ! येभी कोई पर्याय हैं???मै डॉक्टर से क्या कहूँ?? मैंने असहाय चेहरेसे कमरेमे इकट्ठे हुए अन्य डॉक्टर मित्रों तथा, मेरी दो तीन सहेलियों की ओर देखा.....कमरेमे पूर्ण स्तब्धता थी.....एक तरफ़ कुआँ दूसरी ओर खाई....मैंने क्या तय करना चाहिए...? मेरे पती होते तो क्या तय करते???

लेकिन मुझे तय करनेकी ज़रूरत नही पड़ीं....ख़ुद डॉक्टर ने कह दिया," मै आपकी समस्या समझ सकता हूँ.....आपके पती को ख़बर भेज दी गयी है..लेकिन मेरी सलाह होगी, सर्जरी बेहतर पर्याय है..."

मैंने केवल गर्दन हिला दी...मेरे हाथमे बीजीका हाथ था, जो उन्हों ने कसके पकडा हुआ था...याद आ रहा है, कि, मैंने उनसे पूछा,' बीजी, मै दो मिनिट मे बाथरूम हो आऊँ??"
उन्हों ने औरभी कसके हाथ थाम लिया और कहा ," नही...तुम मुझे एक पलके लिएभी मत छोड़ना....मेरा बेटा हो ना हो, तुम नही हिलोगी....मुझे और किसीपे विश्वास नही..."

सुननेवाले किंचित हैरान हो गए, क्योंकि बीजीका मिज़ाज जानते थे....लेकिन विमला और उसके पती केवल मुस्कुरा दिए.......उनके चेहरेपे एक विलक्षण शांती थी....विमलाने केवल इशारा किया....जैसे कह रही हैं.......वही सत्य है....

मुझे याद नही पड़ रहा,कि ,मै बाथरूम कब गयी....जब गयी तब बीजीका हाथ किसने थामा...?
मुझे आज याद नही, कि, मेरे पती कब पोहोंचे.....दूसरे दिन सुबह??उसी रात?? शायद उन्हें पूछ लूँ तो बता देंगे...पर क्या फ़र्क़ पड़ता है ?

मुम्बई से एक बेहतरीन सर्जन, जो इत्तेफाक़न, भारत आए हुए थे( थे तो वो भारतीय ही), अपने साथ लेते आए....जहाँ हम थे, वो महानगर नही था....उसका ये एक फायदा था.... अस्पताल से जुड़े ना होते हुए भी , उस अस्थी तज्ञ को, उस अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर मे, सर्जरी करनेकी इजाज़त मिल गयी.....सर्जरी शुरू हो गयी...अव्वल तो मै घंटों बाहर खडी रही...फिर एक सहेलीने ज़बरदस्ती की, के, कुछ देर मै घर चली जाऊँ......

वो बीजी को दाखिल किए दूसरा दिन था??या तीसरा ? वो कब हुआ जब मै उनके पलंग के पास खडी जारोज़ार रो रही थी...? जब किसीने मुझे धाडस बँधाया था...? कोई उनके मूहमे जूस डाल रहा था??

मै घर तो गयी, लेकिन कितनी देरके लिए...? मुझे कब वो ख़बर मिली कि वो नही रहीँ??के अत्याधिक रक्त स्त्राव होनेके कारण उनकी मृत्यु ओपरेशन टेबल पेही हो गयी??खूनकी अनगिनत बोतलें चढीं ,लेकिन मधुमेह्के कारण रक्त स्त्राव रुकाही नही??के देखनेवालों ने कहा, सर्जरी तो अप्रतीम हुई...गज़ब हाथ था उस इंग्लॅण्ड से आए सर्जन का...लेकिन क़िस्मत देखो....!

उनका अंत्य विधी उसी शाम हो गया?? या दूसरे दिन?? दूसरेही दिन...क्योंकि माँ, पिताजी तथा हमारे अन्य कुछ रिश्तेदार पधार गए थे....?नही याद आ रहा.... मुझे तो येभी नही याद रहा कि बच्चे भी घरमे हैं....या थे....इस वक़्त लिख रही हूँ तो याद आ रहा है कि बच्चे तो घरमेही थे....बिटिया ९ वी क्लास मे और बेटा ७ वी क्लास मे....

क्रमश:

सासू माँ..! एक संस्मरण ! २( अंतिम)

Saturday, February 21, 2009

इस घटनाके बाद दिन बीत ते गए....मेरे पतीने बता दिया कि, उन्हों ने किसी कारन, मुम्बई मे पदभार सम्भालाही नही....उन दिनों वे तकरीबन एक माह बिना किसी पदके रहे....अंत में,उनकी दोबारा अकादमी मेही पोस्टिंग हो गयी...

एक सप्ताह के भीतर,पुलिस सायन्स कांग्रेस का आयोजन करना था...ऑल इंडिया स्तर का आयोजन....वोभी सफल हो गया..उस के पश्च्यात, ३/४ माह के अन्दर,अन्दर, मेरे पती का मुम्बई में ही तबादला हुआ...हाँ...इस वक़्त पोस्ट अलग थी...वे आगे निकल गए...

बात एक शाम की है.....मै, विमला और उसके पतीसे मिलने उनके घर गयी थी...याद नही कि ,किस सन्दर्भ मे ये बात छिडी जो मै लिखने जा रही हूँ...जिसने मुझे स्तंभित कर दिया और इस्क़दर असहायभी....! लगा, काश ! यही बात बीजी,खुले आम, अपने मृत्यू के पूर्व, मुझसेही नही, मेरे पतीसे भी कह देतीं....जो उन्हों ने विमला तथा उनके पतीसे कुछही रोज़ पहले कही थी...वो गिरीं उसके केवल ४ दिन पूर्व...!

विमला तथा उनके पतीसे वे खुलके बात किया करतीं ....मेरी भी कोशिश रहती कि, कुछ लोग हों, जिनसे, वे खुलके बतियाँ सकें....ऐसेमे अक्सर मै वहाँसे हट जाया करती...विमलाके पती मुझसे बोले, " जानती हो, उन्हों ने मुझसे क्या कहा ???"
" नही तो...! मुझे कैसे पता होगा ??" मैंने जवाब दिया...
विमलाके पती बोले," उन्होंने कहा, कि, मैंने इस बहू के साथ, पहले दिनसे, बेहद नाइंसाफी की है....अपनेही बेटे का घर तोडके रख देनेमे कोई कसर नही छोडी....जब कि, इसने मेरी सबसे अधिक खिदमत की.....गुस्से में आके,इस पे हम सभी ने तरह,तरह के, लांछन लगाये......आज बेहद शर्म सार हूँ..अपने बेटे से भी कहना चाह रही हूँ,कि, इसकी इज्ज़त हमेशा करना...ये बेहद सरल स्वभाव की औरत है..."

उन्हों ने औरभी काफ़ी कुछ कहा....यह भी, के, कभी आगे उनकी बहू पे कोई भी लांछन लगे और गर वो बात,इन पती-पत्नी को पता चले, तो, वो, बहू का साथ निभाएँ......

अजीब इत्तेफ़ाक़ रहा कि,बाद मे, उन पती पत्नीसे, उन्हीं दोनोकी व्यस्तताके कारण, मेरा अधिक संपर्क नही रहा....विमलाके पती अक्सर विदोशों मे भ्रमण करते रहे और मुझे उनसे अपने बारेमे कुछभी इस तरह से कहना अच्छा नही लगा....हमेशा लगा कि, ये मेरी गरिमा के ख़िलाफ़ है.....

बीजीको गुज़रे अगले माह १५ साल हो जायेंगे.....जो भी हुआ ज़िन्दगीमे.....बोहोत से शिकवे रहे...मेरी अपनी बेटीको लेके सबसे अधिक.....जो मैंने उनसे कभी नही कहे....लेकिन आज उनकी बड़ी याद आ रही है..

मेरी बेटीको उनसे आजभी सख्त नफ़रत है...पर आज शाम उसे मैंने ये बात बतायी....उसने कह दिया," अब क्या फायदा? अब तो कितनी देर हो चुकी....समय रहते उन्हों ने क्यों ये बात नही कही?? आज तुम मेरे आगे कितने ही स्तुती स्त्रोत गा लोगी, मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़ने वाला.......जो तुम्हारे साथ या मेरे साथ होना था हो गया....मुझे ये सब बताओ भी मत माँ.... उनपे और अधिक गुस्सा आता है..."

मै खामोश हो गयी....मेरे पास उसे देनेके लिए कोई जवाब नही था......जैसे उनके मृत्यु के बाद महसूस हुआ...जैसे, जिस दिन विमला के पतीने मुझसे कुछ कहा, उसी तरह कल और आज, या पता नही पिछले कितने साल ये महसूस हुआ....ज़िंदगी फिर एकबार आगे बढ़ गयी...छल गयी...मै देखती रही...कुछ ना कर सकी.....दोस्त दुश्मन बन गए....ग़लत फेहमियों का अम्बार खड़ा होता रहा....

मै, मेरे अपनों के लिए, जीवनकी क्षमा माँगती रही....हर बला आजभी मुझे स्वीकार है...गर मेरे अपने महफूज़ रहें......जानती हूँ, कि, इस संदेश को शायद ,अपनी मृत्यु के बाद, अपने पती या बच्चों को पढने के लिए कहूँगी....मेरा हर पासवर्ड मेरी बेटी के पास है.........

आज सुबह ३ बजे मैंने अपना dying declaration भी पोस्ट कर दिया है....हर काम मै अपने इंस्टिक्ट से करती हूँ....उस वक़्त अपने आपको चाह कर भी, रोक नही पाती...जैसे कोई अज्ञात शक्ती मुझे आदेश दे रही हो, जिसका मुझे पालन करनाही है...उसके जोभी परिणाम हो, भुगतने ही हैं....यही मेरा प्राक्तन है, जिसे कोई बदल नही सकता....ना अपनी राह बदल सकती हूँ, ना पीछे मुड़ के चल सकती हूँ...हर किसी की तरह आगेही चलना है....आगे क्या है वो दिख भी रहा है, लेकिन टाला नही जा सकता....पढने वालों को अजीब-सा लगेगा, लेकिन यही इस पलका सत्य है....
समाप्त।

Thursday, July 2, 2009

बुलबुल का घोंसला...!


इस बोनसाय के पेड़ के साथ बडीही मधुर यादगार जुडी हुई है....इस बात को शायद १० साल हो गए...एक दिन सुबह मै अपने इन "बच्चों" के पास आयी तो देखा, इस पेड़ पे बुलबुल घोंसला बना रही थी...!कितने विश्वास के साथ....! इस पँछी का ऐसा विश्वास देख, मेरी आँख नम हो आयी...मैंने रात दिन कड़ी निगरानी राखी...जब तक उस बुलबुल ने अंडे देके बच्चे नही निकाले, मैंने इस पेड़ को बिल्लियों और कव्वों से महफूज़ रखा...!
इस परिंदे ने एक बार नही दो बार इसपे अपने घोंसले बनाये...! परिंदे तो उड़ गए, घोंसले यादगार की तौरपे मेरे पास हैं! इसी पेड़ पे रखे हुए नज़र आते हैं, गर गौरसे देखा जाय तो...! लेकिन उन घोंसलों की अलग से एक तस्वीर कभी ना कभी ज़रूर पोस्ट करूँगी...!

इस पोस्ट को नाम देने का दिल करता है सो ये," मेरे घर आना ज़िंदगी..!".....कई बार आना ज़िंदगी....मेरे अपने पँछी तो उड़ गए...दूर, दूर घोंसले बना लिए...लेकिन परिंदों, तुम आते रहना .....अपने घोंसले बनाते रहना...वादा रहा...इन्हें मेरे जीते जी, महफूज़ रखूँगी...!