Friday, August 14, 2009

ये कहाँ आ गए हम...?७ अन्तिम

उस शाम पे आके अटकी हूँ...उस वक़्त , जब मेरे कनोंपे वो ख़बर टकराई...मुझे समझ नही आ रहा था कि मै क्या प्रतिक्रिया करूँ...मेरी क्या प्रतिक्रया होनी चाहिए...??
सबसे पहले तो मैंने वंदन और निम्मीकेही नंबर घुमाए...क्या कमाल था कि दोनों " पोहोंचके बाहर" थे...!! ऐसाभी क्या इत्तेफाक़??उठाके कहाँ दे मारूँ इन उपकरणों को ...? ये नज़दीकियों के साधन, जब दूरियाँ पैदा कर दें, तो इनका क्या फायदा? किसे कहूँ, कि रुको...अभी इन साधनों द्वारा दी जा रही जानकारीपे विश्वास ना करो? जिनसे कहना चाह रही थी...जिनसे सत्य जानना चाह रही थी...उन्हीँ से संपर्क नही हो रहा था...

मैंने निम्मीके सास -ससुरसे पहले संपर्क करना चाहिए??क्या उनके कानों तक तो ये ख़बर नही पोहोंच गयी? गर पोहोंच गयी हो तो मै क्या कहूँगी...? मेरे पास कहनेको क्या रहेगा....?
जब मुझेही उस खबरकी यथार्थता मालूम नही, तो मै क्या कह सकती हूँ? ये, कि आप अभी उस खबरपे विश्वास न रखें...?

और गर नही मिली वो ख़बर तो मेरी परेशानी, मेरी अधीरता वो भाँप नही जाएँगे? और गर निम्मी या वंदन, दोनोसे उनका संपर्क नही, तो क्या मुझसे नही पूछ बैठेंगे...कि मैं कुछ जानती हूँ, उन दोनोंके बारेमे ?
सहजही पूछा जानेवाला प्रश्न होगा वो...तब मै क्या कहूँगी? के कुछ नही जानती? जब बादमे पता चलेगा कि, मै जानती थी...तो फिर क्या जवाब दूँगी? सिर्फ़ ये कि, उस खबरकी सच्चाई नही जानती थी?

मैंने मेरे पतीसे सबसे पहले संपर्क करना चाहिए...कैसी अजीब बात है...मै जब, जब बेहद शशोपंज मे रही हूँ, हर वक्त अकेली रही हूँ...इसमे कभी कोई मेरे साथ नही होता...क्या ये मेहेज़ एक इत्तेफाक होता है या ईश्वर हरबार मेरी परिक्षा लेना चाहता है?

मैंने इन्हें फोन लगाना शुरू कर दिया...." आप जिस व्यक्तीसे संपर्क करना चाह रहे हैं, वो इस वक्त पहुँचके बाहर है.."...उफ़ ! बार, बार यही एक वाक्य मेरे कानोंसे टकराता रहा...निम्मी और वंदन से तो संपर्क पहलेही नही था...

क्या ख़बर थी वो? ख़बर थी...किसी वंदन के सहयोगी द्वारा किया गया वो फोन था...." वंदन की प्रथम पत्नी गर्भवती है...वंदन केही बच्चे की माँ बनने वाली है...!!"

ऐसे कैसे हो सकता है? ऐसी बात वंदन करही नही सकता...लेकिन वो फोन क्यों नही उठा रहा है? वो तो अगली सुबह निम्मीके पास पोहोंचने वाला था....तो निम्मीसे संपर्क क्यों नही कर रहा??

और निम्मी ....? वो मेराभी फोन क्यों नही उठा रही ?? मेरा फोन बजबजके बंद हो रहा था...कितनी बार कोशिश कर चुकी थी....क्या उसे मेरे पहले ये भयंकर ख़बर मिल गयी?

और येभी कि, वंदन अब उसके पास नही लौट सकता? उसने येभी मान लिया कि, निम्मी या निम्मीके परिवारवाले उसे माफ़ नही करेंगे? के गर उसे अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभानी होगी तो उसे, उसकी प्रथम पत्नीके पासही लौटना होगा...? तो क्या निम्मीके प्रती उसकी कोई ज़िम्मेदारी नही? उसकी प्रथम पत्नी कैसे उसपे ये ज़िम्मेदारी डाल सकती है, जब वो कोई छोटी बच्ची नही...? अपने पतीसे कानूनन बिभक्त हो चुकी है...निम्मी वंदन की क़ानूनन ब्याहता है....

जोभी हो, वंदन की ज़िम्मेदारी है, कि, आमने सामने बात साफ़ करे....जिस विश्वासके साथ निम्मीने उसे उसकी भूतपूर्व पत्नीके पास भेजा था....उतनीही ज़िम्मेदारी से , उसने अपना बर्ताव रखना चाहिए था...

सुबह हो गयी....लेकिन मै किसीसेभी संपर्क नही कर पायी....लग रहा था, जैसे मै किसीभी वक़्त अपने होश खो बैठ सकती हूँ....और एक दिन बाद मेरे बच्चे, जो दोनों शेहेरके बाहर थे, लौट आएँगे...मै उनसे अपनी हालत तो नही छुपा सकती...वंदन की कितनी इज्ज़त करते हैं दोनों...उन्हें क्या कहूँगी??

एकेक पल, मानो एक सदीकी तरह गुज़र रहा था....पर वक़्त थम नही रहा था...उसी रफ़्तार से गुज़र रहा था....मुझे चाहे एक पल,एक युग लगे....शांत, स्तब्ध मौहौलमे, मेरे कमरेकी घडीकी टिकटिक सुनायी दे रही थी....मेरे हाथसे फिसल रहे लमहोंका कितना अधिक एहसास करा रही थी....

मेरे घरमे कितनी विलक्षण ख़ामोशी थी....कान कितने अधीर थे कि, कहीँ कोई इंसानी वजूदका एहसास हो...कुछ तो आवाज़ हो...एक बार तो फोन बजे...चाहे कहीँ से हो....अपने मोबाइल से मै चिपकी हुई थी....चाय बनाऊँ ? कॉफी बनाऊँ? पियूँ ? बेहतर लगेगा? नही...बनानेकी ताक़त नही है...कामवाली औरत को छुट्टी दे रखी थी....

पडोसमे जाऊँ? क्या कहूँ वहाँ जाके? जिनके आगे मैंने वंदन को एक फ़रिश्ता बनाके पेश किया था....उन्हें ये कहूँ कि वो फ़रिश्ता क्या...एक घटिया से घटिया आदमीकी तौरपे सामने आ रहा है....बेज़िम्मेदार, डरपोक...

लेकिन मुझे अभी सच पता था? सचमे ऐसा हुआ था? बेहतर होगा, मै ख़ामोश रहूँ....लेकिन ये इंतज़ार मेरी जान ले रहा था...असह्य लग रहा था........टिक टिक....खामोशी को भेदनेवाली यही एक आवाज़.....

मै लेट गयी...पैर...पैर क्या, अब तो पूरा जिस्म काँप रहा था...
और फ़ोन बजा...मै ऐसे झपटी, जैसे चीता किसी शिकारकी तरफ़ झपटता हो....फोन मेरे पतीका था...

" क्या कर रही हो? तुम्हारी आवाजमे इतनी परेशानी क्यों है?",इनकी आवाज़...
" परेशान हूँ...बेहद...आपसे कितनी बार संपर्क करनेकी कोशिश कर चुकी...क्या आपको मेरे sms भी नही मिले?" मै बरस पड़ी ...
" नही तो..मुझे तो हैरानी हो रही थी कि, मै फोन करता जा रहा था, और मुझे मेसेज मिल रहा था," पोहोंचके बाहर...", इनका उत्तर...
"कमाल है...मुझे आपकी ओरसे यही मेसेज मिल रहा था...खैर !आप अभी के अभी, पहले वंदन और फिर निम्मीसे संपर्क करनेकी कोशिश कीजिये....उनसे..."
मै इन्हें निर्देश देने लगी....

"लेकिन बात क्या है? मुझे पहले ये तो बताओ...क्या परेशानी है? ऐसी क्या जल्दबाज़ी है...? हो क्या गया है तुम्हें?", इन्होंने टोक दिया....
मैंने संक्षेपमे इन्हें सारी बात बता दी....ये कुछ समय स्तब्ध हो गए....फिर बोले,
"मेरी निम्मीसे बात हुई.....निम्मीको ये ख़बर दी गयी है....वो पूरी तरह टूट गयी है....मै जानना चाह रहा था तुमसे...कि तुम्हें कुछ आगेकी बात पता है....निम्मीने मुझसे कहा,' मै तो वंदन को माफ़ कर दूँ...पर मुझसे बात तो करे....मै समझ सकती हूँ...इंसान है...उसने उस औरतसे कभी प्यार किया था...लेकिन मुझसे बात तो करे....'..."
इन्हों ने मुझे ख़बर दी।

"तो निम्मीने आपसे बात की..मुझसे नही...? कमाल है...? उसने एक पलभी नही सोचा कि, जब मुझे ख़बर मिली होगी तो मुझपे क्या गुजरेगी..?"अब मुझे निम्मीपे गुस्सा आने लगा....
" देखो, जो मेरे साथ हुआ...वही उसके साथ...उसेभी तुम्हारा नंबर नही मिल रहा था...और ना मुझे पता था, ना उसे, कि तुम्हें किसीने ख़बर दी होगी...", मेरे पतीने मुझसे बताया...

"तो अब हमें क्या करना चाहिए? कैसे पता चलेगा कि, सच्चाई क्या है? कौन बतायेगा? आप वंदन का फ़ोन तो मिलाएँ...", मै बताने लगी....
"तुम्हें क्या लगता है..मैंने वंदन को फ़ोन नही लगाया होगा...? "इन्होंने पूछा....
"चलिए ठीक है...जब मुझे येही नही पता था कि, आपसे निम्मीका संपर्क हुआ, तो मै और क्या कह सकती थी...?"मैंने जवाब दिया....

निम्मीकी प्रतिक्रया सुन, मुझे कुछ तो तसल्ली मिली...गर वंदन सीधे संपर्क करे,तो बात बन सकती है....एक सदमाही सही...हम सभीके लिए...लेकिन, जीवन आगे तो बढ़ सकता है....
उस राततक मेरे पती और बच्चे लौट आए....बच्चे अपनेआपमे इतने मशगूल थे, कि घरमे क्या हालत हैं, उन्हें महसूस ही नही हुआ...थके हुए थे...जल्दी सोभी गए...एक और रात गुज़र गयी....

अंतमे वो लम्हा भी आ गया जब वंदन हमसे रु-बी-रु हुआ....मै बता नही सकती कि, वो दिन मेरे लिए क्या लेके आया....

सारी बातें साफ़ होने लगीं...जो हमें बताया गया था, वो पूर्ण असत्य था...वंदन की पत्नी बीमार थी...वंदन उसे अस्पताल ले गया था...
और जिस व्यक्तीने वो ख़बर दी...वो? उसने क्यों ये सब कहा....वंदन ने उसे नोटिस दे दी थी....जिस अस्पतालसे वंदन जुडा हुआ था, उस अस्पतालमे उस व्यक्तीने कुछ बोहोतही अनैतिक हरकत की थी.....बस उसी बातका उसने बदला लेना चाहा..और हमारे अत्याधुनिक संपर्को के ज़रियों ने, उसने सोचाभी नही था, उतना उसका काम आसान कर दिया...

मेरा ईश्वरके ऊपर, उस विराट शक्तीके ऊपर, तो विश्वास औरभी बढ़ गया...लेकिन, इन संपर्को के ज़रियोंपर कितना विश्वास हमने करना चाहिए....ये सवाल खड़ा कर दिया...आगाह कर दिया उन ४८ घंटोंने....हमें जबतक हमारा अपना, अपने मुहसे कुछ नही कहता....वोभी आमने, सामने...किसी औरपे विश्वास नही रखना चाहिए...हमारी ज़िंदगी तबाह हो सकती है...

दुआ करती हूँ, ऐसा भयानक दौर किसीके ज़िन्दगीमे ना आए.....आज वंदन और निम्मी हमें उतनेही प्यारे हैं...जितनेकी कभी थे....अच्छा हुआ..मुझे ईश्वरने सही बुद्धी दी, कि, मैंने निम्मीके सास-ससुरसे संपर्क नही किया...वरना, उन्हें, उनके बुढापे मे ना जाने कितना अधिक सदमा मिल जाता....अच्छा हुआ कि, उस व्यक्ती के पास उनका नंबर नही था....वरना उसने उन्हें जीते जी मार दिया होता....
समाप्त।

Monday, August 10, 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ६

निम्मी तथा उसका परिवार जब हमारे शहर से बिदा हुए तो लगा, जैसे कोई अपने नैहरसे विदा ले रहा है.....निम्मी इसतरह मेरे गले लगके रोई कि, हर आँख रो दी....अजीब आलम था...माँ-बाबूजी उसके लिए खुश थे...अपने आपके लिए कहीँ एक और बिछोह्का ग़म मनमे छुपाये हुए...

वंदन भी गया.....शायद उसके लिए इतनी दुविधा नही थी...

ब्याह्की तारीखभी तय हो गयी...एक माहके अन्दर, अन्दर सब होना था...और जितना मैंने सोचाभी नही था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे सबकुछ हो गया...ब्याह मेरे घरसे हुआ...विदा किया, निम्मीके सास ससुरने ...जो हमेशा उसके माता पिता रहे....उसकी बेटियाँ, मानो उसकी सखियाँ बन गईं थीं........

उन्हें उनकी पाठशालाकी पढाई होनेतक अपने दादा दादीके पासही रखना तय हुआ था...और निम्मीभी कुछ रोज़ वंदन के साथ बिता, उन्हींके पास चली आयी....

वंदन ने अपनी वैद्यकीय practice के लिए , निम्मीके ससुरालके पासका एक महानगर चुन लिया...केवल दो घंटों का फासला था....
हरेक चीज़ जैसे पूर्व निर्धारित हो, अपनेआप घटती गयी....मुझे कई बार लगता मानो एक सपना देख रही हूँ...
कितनी बार उस विराट शक्तीके आगे नतमस्तक हो जाती....इसकी गिनतीही नही रही...

३ साल पँख लगाके बीत गए.....मेरे बच्चे, दोनों अलग, अलग शेहेर, आगेकी पढ़ाई के खातिर जानेका विचार करने लगे...मै दिल थामे बैठे रही....

वंदन का दुनियाके विभिन्न शहरों मे सेमीनार/ कांफ्रेंस के लिए आता जाता रहता....निम्मीसे फोनपे बात हो जाया करती.....वंदन भी फोन कर दिया करता...निम्मीने एक नामांकित पत्रिकामे काम करना शुरू कर दिया था...एक मौक़ा ऐसा आया, जब उसे अन्य देशमे मेहमान faculty के तौरपे आमंत्रण आया....उसके माँ-बाबूजी ने अपनी पोतियों की ज़िम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली....निम्मी और वंदन, दोनोही दो अलग देशों मे चले गए...

और पता नही कैसे, क्या हुआ, उनका, आपसी तथा, अपने परिवारके साथ संपर्क हो नही पाया....

विवाह्के बाद एकबार वंदन की प्रथम पत्नी ने वंदन के साथ संपर्क बनानेकी कोशिश की थी...निम्मीनेही वंदन को प्रोत्साहित किया कि, वो अपने मनमे कटुता न रखे...और एक दोस्तकी तरह उससे मिल लिया करे...वंदन का UK सबसे अधिक आना जाना रहता....

अबके जब दोनों बाहर मुल्क गए हुए थे, वंदन का आखरी फोन उसकी प्रथम पत्नीके शेहेरसे आया...निम्मीसे बात हुई...और उस वार्तालाप के बाद, वंदन का फोन निम्मीने लगातार बंद पाया...इतनी ख़बर तो मुझे मिली...और फिर उस शाम वो अजीबो गरीब ख़बर.....जिसने मेरे पैरों तलेसे ज़मीन खिसका दी....

क्या, करूँ ? हे इश्वर ! मुझे कोई तो राह दिखा...मै क्या करुँ? मै क्या करुँ ??ये ख़बर एक सपना था या, गुज़रे ३ साल... ......क्या सच था....क्या...क्या.....मेरा मन एक आक्रोश करता जा रहा था....किसे विश्वास दिलाऊँ...? किसकी जवाबदेही करुँ?? ना निम्मीसे संपर्क ना वंदन से.........बस एक वो ख़बर...उसके बाद जिसने वो ख़बर दी, उसके साथभी कोई संपर्क नही....
क्रमशः

Tuesday, August 4, 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ५

मेरी एक पलभी आँख नही लगी...लेकिन कोई थकान नही थी....एक बच्चों की-सी ताज़गी और नए दिनका इंतज़ार...
कई बार मनमे आया निम्मीको गुदगुदाके जगा दूँ...फिर लगा, नही....मेरा मन एक सपना बुन रहा है...उसे जगाके गर ये सपना टूट गया तो??मैंने तो वंदन के दिलो दिमागमेभी एक ख्वाबका बीज बो दिया है...उसके कोंपल बननेसे पहले मुझे उखाड़ फेंकना पडा तो.....?
तो वंदन शायद ज़िंदगीभर निम्मीके आगे नही आयेगा...शायद मेरे आगेभी नही...एक दर्द , जो वो भूलना चाहेगा, मेरेसे मिलना उसे उसीकी याद दिला देगा....
पर मैंने ऐसे नकाराक्त्मक ख़याल दिलमे नही लाने चाहियें....मै नही तो शायद उसके माँ-बाबूजी( मतलब उसके सास-ससुर ), या उसकी अपनी बेटियाँ उसे मना सकती हैं....उसे सोचनेपे मजबूर कर सकती हैं...माँ-बाबूजीको, उनके बुढापेमे एक बेटा मिल जाएगा....वंदन के रूपमे...क्या इतनाभर काफ़ी नही...? उसे तुंरत निर्णय लेनेके लिए तो कोई नही कहेगा...सोच तो सकती है...

अपने पास लेटी ,अपनी सखीपे एक निगाह डाली मैंने....उसका पहला प्यार तो भुलानेके लिए कोई नही कह रहा...उसकी जगह तो कोई नही माँग रहा...बल्कि, उसकी उस भावनाकी हर किसीको कद्र है...
मूँदी हुई आँखें....आँखों के नीचे हल्की-सी कालिमा...मैंने निम्मीको गौरसे निहारा....इतनी मासूम मुझे वो कभी नही लगी थी...और शायद इतनी मायूसभी...समय हर घाव मिटाता है...पर देता क्यों है...? इसने क्या बिगाडा था? या माँ-बाबूजीने...? या उसकी औलादने??
इनमेसे किसी सवालका ना मेरे पास उत्तर था ना दुनियाके किसी ज्ञानी ध्यानीके पास...अपना नसीब....और क्या कहेँ?

निम्मीने एक करवट लेनी चाही शायद और उसका हाथ मेरे हाथपे आ पडा...एक झटकेसे जाग गयी...ऐसे जागी मानो किसी सपनेसे जागी हो...बड़ी हैरत से उसने मुझे एक आध पल देखा...बोली'" ओह! भूलही गयी थी कि तेरे घर सोयी हूँ...!और मै कब सो गयी? तू कब आयी सोनेके लिए? ..अरी बोलना....क्यों घूरे चली जा रही है...?"

अब मेरा दिल धक् से रह गया...वो वक्त आ गया था, जब मुझे उसके आगे कुछ उजागर करना था...मैंने अपने अल्फाज़ भी अभी चुने नही थे...उधेड़ बुनमेही लगी हुई थी...और ये सवालपे सवाल किए जा रही है....चाय बनाते, बनाते अपने शब्द चुन लूँ? और ये साथ आके खडी हो गयी तो...?

"निम्मी...तू.....और सोना तो नही चाह रही...मतलब उठनेकी कोई जल्दी नही है....आरामसे उठ...छुट्टियाँ मनाने आयी है...जल्दी क्या है...?" मैंने अपनी इच्छाके पूरी विपरीत बात कही...मै तो कबसे चाह रही थी कि, ये जग जाय...और अब अचानक से जाग गयी तो मै बौखला रही हूँ...

"नही तो...और कितना सो लूँगी...? मुझे तेरे साथ गप लगानी है...ऐसे मौके बार, बार थोडेही आएँगे?अच्छा चल...मै ज़रा मुँह धो लूँ....बस दो चार मिनट देदे......मै ये गयी और ये आयी..."कहते हुए निम्मी पलंग परसे उतर आयी और स्नान गृहमे घुस गयी...
मैंने रसोईकी और अपना रुख किया....किसीभी पल निम्मी बाहर आयेगी....मुझे खोयी-सी देख फिर पूछेगी...उधर वंदन इंतज़ार कर रहा होगा...वो सुबह्के नाश्तेके लिए आयेगा या नही....? निम्मीके जवाब पे मुनहसर होगा....गर उसकी द्विधा मन:स्थिती होगी तो शायद वो आना नही चाहेगा....

मै चायके उबलते पानीको घूरे चली जा रही थी और निम्मी पोहोंच गयी...
"अरे क्या कर रही है...?सुबह्से देख रही हूँ, तेरा ध्यान किसी औरही बातमे है...पानी खौलता जा रहा है और तुझे तो जैसे नज़रही नही आ रहा...चल हट...आज मै बनाती हूँ चाय....या तो बिना पत्तीकी बनाएगी या बिना दूधकी...," कहते हुए उसने मुझे परे कर चाय बना भी ली..प्याले भर ट्रे में रखे और हम दोनों बरमदेमे आ बैठे...

कूर्सीपे आरामसे बैठ फिर एकबार मुझसे मुखातिब हुई," हाँ अब बोल...क्या बात है जो तू छुपाये जा रही है...? रातमे ऐसा क्या घट गया कि मेरी सखीके चेहरेपे हवाइयाँ उड़ रही हैं...अरी बोलना......?"
ये वही पुरानेवाली बेसब्र निम्मी थी....और मै संजीदा....

उसकी बाँह पे मैंने अपना हाथ रखा और बडेही स्नेह्से उसे भींच लिया....फिर अपने गालोंपे लगा लिया....और मेरे मूहसे कुछ अल्फाज़ बेसाख्ता निकल्ही पड़े...जिन्हें अब रोकना मुश्किल भी था और लाज़िम भी नही था...ऐसा करना वंदन पेभी एक दबाव बनाये रखता.....

मैंने उसकी आँखोंमे गहरे झाँकते हुए कहा, "निम्मी,तुझसे कुछ संजीदगीसे बात करना चाह रही हूँ.....ज़्यादा भुमिका नही बनाउँगी...कुछ बातें माँ-बाबूजीसे कर चुकी हूँ......अब तुझसे...कोई दबाव नही...सब निर्णय तेरेही हक़्मे होंगे, तेरीही मर्ज़ीके मुताबिक ...हम सभी तुझसे बेहद प्यार करते हैं.....बस इस बातको हमेशा अपने मनमे गाँठ बाँधके रख ले...."

"पर तू तो पहेलियाँ ही बुझाए जा रही है...मै विचलित हुए जा रही हूँ...अब बोलभी दे...जोभी मनमे है...मेरा वादा रहा कि, मै किसीभी बातको ना तो अन्यथा लूँगी या बुराही मानूँगी ....मेरे माँ-बाबूजी, तू, तेरे मेरे बच्चे, ये सब मेरे खैरख्वाह हैं...मेरा बुरा सोचही नही सकते...तो अब बता दे..."उसने खाली प्याला मेज़पे रख दिया...और मेरी शकल की ओर अपलक देखने लगी....

अब मेरे आगे कोई चाराही नही था...ना अधिक भूमिका बनानेका प्रयोजन....मै बस बोलते चली गयी....उसको पूर्व संध्यामे हुई माँ-बबूजीके साथकी बातें...बादमे वंदन के साथ हुई बातें...मेरा अपना विचार..सबकुछ, एकही साँस मे बता दिया...

निम्मी एकदम खामोश हो गयी...मैंने इसी प्रतिक्रियाकी आरम्भमे उम्मीद की थी...ना जाने उसकी आँखोंके आगेसे क्या, क्या गुज़र जायेगा...एक बिखरी ज़िंदगीके सँजोए सपने...उनका टूटना और अब फिरसे एक निर्णय...जबकि वो शायद किसी गंभीर निर्णय लेनेकी अवस्थामेही नही थी...

कुछही पल बीते, जिसके पहले कि वो कुछ बोली..पर लगा बोहोत वक्त गुज़रा....उसने मेरा हाथ अपने हाथों मे कसके पकड़ा और फिर उठके मुझे अपने सीनेसे भींच लिया.....सिसिकियाँ फूट पड़ीं.....मै उसकी पीठ सहलाती रही...एक बार लगा, माँ-बाबूजीको पहले बुला लिया होता तो शायद बेहतर होता...मैंने उसका चेहरा अपने हाथों मे लेके उससे पूछा," निम्मी, क्या तू चाहती है, कि, इसवक्त माँ-बाबूजी तेरे साथ हों? या तेरी अपनी बेटियाँ? तुझे कोई अपराधबोध तो नही हो रहा...गर ऐसा..."

वो मुझे फिर एकबार कसके बिलग गयी,बोली," नही रे....ऐसा सोचभी कैसा सकती है तू...मै तो गदगद हो गयी कि, मेरे अपनोंने मेरे लिए कितना कुछ सोचा...ऐसा किसका नसीब होता है, जो मेरा है..ऐसे सास-ससुर, ऐसे बच्चे, ऐसी सहेली और एक ऐसा बचपनका दोस्त जो मुझेही नही, मेरे ससुरालको अपनाने खड़ा है....
"मै ख़ुद लज्जित हूँ कि, मेरी तो इतनी हैसियतभी नही..... सब मेरा इतना ख़याल करें...मेरे सुखी भवितव्य के आगे अपना भवितव्य भुला दें.......मै तो वंदन काभी बड़प्पन कहूँगी कि, उसने अपने परिवारसे बात किए बिना अपना निर्णय सुना दिया...और उसपे वो अडिग रहेगा येभी जानती हूँ.....नतमस्तक हूँ इन सभीके आगे.....निर्णय अब मै मेरे हाथमे नही, आप सभीके हाथमे छोड़ देती हूँ.....जानती हूँ, एकबार मै ग़लत हो सकती हूँ, पर मेरे अपने नही...आँख मूँदके विश्वास करती हूँ..."

निम्मी काफ़ी देर भावावेशमे बोलती जा रही थी...और मुझे एक राहत मिलती जा रही थी...उसने वंदन को नकारा नही था.....इस वक्त वंदन के लिए इतनाही काफ़ी था...कुछ देर उसे शांत करके मैंने स्नानके लिए भेज दिया...और फिर सबसे पहले वंदन को फोन कर अपने घर बुला लिया...ताकि माँ-बाबूजी भोजनके समयतक पोहोंचें तो इन दोनोंकी कुछ तो आपसमे बात चीत हो सके.....

मुझे ये काम जितना कठिन लगा था, उतना नही था....अब आगे काफ़ी कुछ वंदन के रवैय्येपे मुनहसर था..उसकी संजीदगीपे काफी दारोमदार थी....
वंदन, निम्मी नहाके निकली उसके पहलेही मेरे घर पोहोंच गया....बल्कि उन दोनोको थोड़ा नाश्ता और कॉफी देनेके बादही मै नहाने चली गयी और शांती-से स्नान किया...चाह रही थीकि, उन दोनोको अकेलेमे बातचीत का मौक़ा मिले.....

खाना चाहे घरपे बना लें...चाहे इन दोनोंको बाहर भेज दें...माँ-बाबूजीके साथ एकबार वंदन को अब मिलवानाही था....एक बेटा पाके, वो खुशही होंगे....मैंने सोचा था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे घटनाक्रम घट गया था...निम्मीका मुझपे, अपने परिवारपे , अटल विश्वास देख मै निहाल हो गयी....बार, बार उस विधाताके आगे नतमस्तक होते हुए मेरी आँखों से अविरल धारा बहती रही....

अबतो कितना कुछ करना था...वंदन को अपने माता पिताको ख़बर देनी थी...निम्मीको अपने माता पिताको..मुझे अपने नैहर और ससुरालमे.........

दोपेहरके भोजनके लिए मैंने निम्मीको अपने हाथोंसे तैयार किया...उसनेभी बिल्कुल ना नुकुर नही की...जानती थी,कि उसकी ना नुकुर सभीका मूड ख़राब कर सकती है......माँ-बाबूजीका दोनोने आशीर्वाद लिया और तब बाहर गए....मैंने उन दोनों वृद्धों को अपने आँसू पोछते हुए देखा...लड़कियाँ तो खुशीसे फूले नही समाँ रही थी....मेरे बच्चों के साथ मिल उनके तो ना जाने कितने प्रोग्राम तय होने लग गए थे.....मै चोर निगाहोंसे वंदन को देख लेती...उसकी निगाहें, निम्मीका पीछा करती रहतीं...और जब कभी उसे महसूस होता कि पकडा गया है, तो हलकेसे मुस्काके मुझे एक स्नेहभरी निगाहसे देखता....

अब एकही दुआ मेरे मनसे निकल रही थी..."हे इश्वर....अबके सब ठीकठाक करना....बस मेरे इन फरिश्तों जैसे दोस्तों के जीवन मे खुशियाँ ही खुशियाँ भर देना...माँ-बाबूजीको उनकी बुढापे की लाठी दे देना...बड़ी पुण्यात्माएं हैं.....शत शत बार तेरे दरपे नतमस्तक हूँ....अपना नज़रे करम रखना...."

मेरा नेक, पाक,साफ़ इरादा ईश्वरने मान लिया था...मंज़ूर कर लिया था...मुझे तो रहके रहके विश्वास नही हो रहा था...निम्मी और वंदन बाहर जानेको निकले तो मैंने अपनी आँखोंके काजलका टीका दोनोंके कानके पीछे लगा दिया....भगवान् इन्हें हर बद नज़रसे बचाना...
क्रमश:

Monday, August 3, 2009

ये कहाँ आ गए हम ? ४

उस रात मैंने निम्मीको अपनेही घर रोक लिया....उसके माँ-बाबुजीको क़तई ऐतराज़ नही था...वो तो किसी तरहसे निम्मीको हँसमुख देखना चाहते थे....उसके बच्चे अपने दादा-दादीके पास लौट गए...दोनों लड़कियाँ बेहद जिम्मेदार और स्नेहमयी थीं....

गर मेरे पती घरपे होते तो शायद मै वंदन कोभी, मेरेही घर रोक लेती...लेकिन निम्मीसे खूब जी भरके बातें होती रहीं....निम्मी अपने खोये प्यारको याद करतेही रो पड़ती....उसके पतीने उसे बेहद प्यार और सम्मान दिया था...ऐसी किस्मत विरलाही होती है, ये वो और मै दोनोही मान गए थे...

सुबह नाश्तेके समयतक वंदन भी आ पोहोंचा....बच्चे हमें पूछ, अपनी, अपनी दिनचर्या बनाते रहे....सभी इतने हिलमिल गए थे कि माना नही जाता था .....पहचान बस अभी अभीकी है....

माँ-बाबूजीको किसी मंदिरके दर्शन करनेकी चाहत थी...मैंने बच्चों को ये ज़िम्मेदारी सौंप दी....कोई न-नुकुर नही हुई...मैंने अपनेआपको इस मामलेमे खुशकिस्मत समझा...वरना अक्सर बच्चे ऐसी जिम्मेदारियाँ स्वीकारना नही चाहते...और कुछ तो निम्मीकी बेटियोंका असर ज़रूर था...दोनोही अपने दादा-दादीका बड़े मनसे ख्याल करतीं...

जब ये सब अपनी अपनी दिशओंमे निकल पड़े, तो हम तीनो फिर गपशप मे लग गए....मै दो चार बार रसोईके लिए उठके अन्दर चली जाती रही....खाना झटपट वाला बनाया था....अधिकसे अधिक समय बातचीतमे गुज़ारना चाह रही थी....
दिनके ढलते एक बात मुझे महसूस हुई, वो ये कि , वंदन निम्मीकी ओर मोहित हो चला है....उसकी हर छोटी ज़रूरतका, मूह खुलनेसे पहलेही अंदाज़ लगा लेता....मुझसे ये बात छुपी नही...निम्मीने शायद गौर किया नही.....
एक ख्याल मनमे मेरे चोर क़दमोंसे दाखिल होने लगा...गर ये दोनों अपना घरौंदा फिर एकबार बसा लें तो??

जानती थी, कि , माँ बाबूजी तो खुशही होंगे....बेटी समझ उसका कन्यादान कर देंगे.....क्या निम्मी मानेगी? वो अभीभी अपने पहले प्यारकी दुनियामे जी रही थी....कहीँ न कहीँसे अपने बिछडे प्यारको, वो अपने संभाषण मे लेही आती....उसके बारेमे क्या कह डाले, कितना कह डाले....उसके लिए कम था...सारे बाँध खुल गए थे....और हम उसे रोकना टोकना नही चाहते थे....भरी भरी-सी एक बदरी थी...छलक जाना बेहतर था....

पर वंदन फिर कब मिलेगा...? ऐसा मौक़ा कब फिर आयेगा? ये सब कुछ एकसाथ घट रहा था...... नियतीका कुछ इशारा तो ना था...मै नही तो, इस वक़्त कौन समझदारीसे क़दम उठा सकता है...?
उस शाम मै खामोश-सी रही....कुछ रसोईका बहाना, कुछ अन्य कामोंका बहाना बनाके, वंदन और निम्मीको नदीके किनारे, जो एक पहाडीके पास गुज़रती थी, घूमनेके लिए भेज दिया....बेताब थी, कि जब दोनों लौटेंगे तो कुछ तो बात आगे बढ़ी समझमे आयेगी.....

लेकिन नही समझ पाई...हाँ! वन्दनको ज़रूर मैंने थोड़ा खामोश पाया...अब मैंने अपना दिल कडा किया...माँ-बाबूजीको मिलने मै देर शाम उनके गेस्ट हाउस पोहोंचही गयी....समय कम था...और बातकी नज़ाकत समझनी ज़रूरी थी....निम्मीकी ओरसे अधिक....माँ-बाबुजीका रवैया तो मुझे हर तरहसे आश्वस्त कर गया गया था......
मैंने, अधिक भूमिका ना बनाते हुए, सीधेही उनकी राय पूछ ली....

दोनोंकी आँखोंमे पानी छलछला आया....कुछ देर खामोशी छा गयी...एक ज़िंदगी मेरे आँखों के आगेभी घूम गयी...निम्मीसे बिछड़ना...मतलब अपनी औलादसे जुड़े एक अध्याय को अपनेसे जुदा कर देना...
अपनी लाडली पोतियोंको से अलग होना...चाहे वो उन्हें मिलती रहें...कोई बीचका ऐसा मार्ग था, कि, जो इन नए रिश्तोंके बन जानेके बादभी, शारीरिक नज़दीकियाँ बनाये रखे?

वंदन का काम इस बातमे आडे आनाही था....उससे कितनी उम्मीद रखी जा सकती थी? अभी तो उसके साथ बातभी नही हुई थी...नाही निम्मीसे...उसकी क्या प्रतिक्रया होगी? उसकी बेटियाँ? जानती थी, कि , अपनी माँ के हर सुखमे उनकी ख़ुशी है....

निम्मीसे कुछभी कहनेसे पूर्व, मैंने वंदन से बात करना ज़रूरी समझा....उसे निम्मी सो जानेतक रुकाये रखा....जब मैंने देखा, कि, निम्मी गहरी नींदमे सो गयी है, मै बाहर आ गयी.......वंदन के साथ काफी के प्याले लेके बैठ गयी........ सीधे उसकी आँखोंमे झाँकते हुए, सवाल कर दिया," निम्मी के बारेमे तुम जितना ज़रूरी है, उतना तो जानही गए हो...दोनोंके आगे लम्बी ज़िंदगी है...एक दोस्त, हमसफ़र की ज़रूरत है...जो एकदूसरेका सहारा हों, एकदूसरेको समझें....और सफर तय करें....बचपनके साथी होनेके कारण काफ़ी कुछ खुली किताब-सा है....क्या ऐसा हो सकता है?"

वंदन ने खामोशीसे सब सुन लिया और बोला," गर मुझसे पूछो तो निम्मीने तुंरत मेरा मन मोह लिया....शायद उसकी संजीदगी कहो या, निष्कपटता कहो.....ज़राभी बनावट नही है उसमे...और ऐसेही नही उसके सास-ससुर उसकी इतनी इज्ज़त करते हैं......पर उसकी राय बेहद ज़रूरी है...और प्लीज़ , इस बारेमे बात, मेरे जानेके बाद करना...मै संपर्क मे रहूँगा...वरना मै उसके साथ आँख न मिला पाउँगा..."

वंदन का जवाब सुन मेरे मनमे एक विलक्षण खुशीका एहसास हुआ...काश!!ऐसा हो जाए...काश ये दोनों अपना जीवन नए सिरेसे बसा लें...वंदन एक जिम्मेदार पिता साबित होगा इस बारेमे मुझे कोई शक नही था....
कल जैसेही वंदन जायेगा, मै निम्मीके साथ बात कर लूँगी...और फिर उसकी बेटियोंसेभी .........
शुभस्य शीघ्रम........मै खुदही बेताब हुए जा रही थी....उन दोनों को खुश देखना चाह रही थी.....जहाँ चाह वहाँ राह....यकीनन, मेरे इरादे इतने, नेक,पाक साफ़ हैं.....मुझे अवश्य सफलता मिलेगी.....उस रात मै, इन्हीं दिवासपनोंमे खोयी रही....निम्मीके जागनेका इंतज़ार करती रही.....

Saturday, August 1, 2009

ये कहाँ आ गए हम ?३

इन्तेज़ारकी घडियाँ ख़त्म हुई...तक़रीबन साथ, साथ ही , निम्मी तथा उसका परिवार और वंदन, मेरे घर पोहोंच गए....!

मै निम्मीकी सहेली थी...उसके सास ससुरके लिए, मैभी उनकी बेटीही थी...जब भी उन लोगोंसे मिली, उन्हों ने उसी प्यार और अपनेपन से मुझे गले लगाया था....आजभी....मेरे बच्चों को अपनेही नवासा-नवासी माना.... .....जोभी हो, उनके प्यारमे बेहद निश्चलता थी.....कोई दिखावा नही, कोई बनावट नही....ऐसे इंसानों के साथ क्यों किस्मत ने ऐसा छल किया? एकही एक ऑलाद, और वोभी छिन गयी??

खैर...! वंदन, उन सबसे पहली बार मिल रहा था...मैंने अपनी आँखोंमे भर आए आँसू छुपाते हुए, उनका वंदन से परिचय कराया.....निम्मीकी दोनों बेटियाँ भी बडीही स्नेहमयी थीं...बड़ी ज़रा मोटू..छोटीवाली छरहरी....मेरे बच्चे शायद ज़रा अंतर्मुख थे...लेकिन इन दो लड़कियों ने पलभर मे ऐसा मौहोल बनाया मानो, उनका रोजमर्रा का मेलजोल हो....!

मेरे पती शेहेरके बाहर गए हुए थे....अगले दिन शामको लौटने वाले थे...सोचा, देखते हैं...गर फिर एकबार हम सब इकट्ठे हो सकेँ तो...लेकिन, उनके आनेपरही इन सभीको बुलाना...इतना धीरज मुझमेही नही था....बेकरार हो उठी थी सबसे मिलनेके लिए....!

खाना कब परोसा गया...कब खाया गया...समय किस रफतारसे बीतता गया....पताही नही चल रहा था.....हर व्यंजनकी तहे दिलसे तारीफ़ करते हुए, निम्मीके सास-ससुरने भोजन किया....निम्मीकी बड़ी लडकी, मेरा बेटा और वंदन, तीनो शतरंज के अच्छे खिलाड़ी थे....निम्मीकी छोटी लडकी को संगीत और नृत्य मे बेहद रुची थी....
उसे मेरा तबला और पेटी दिख गयी..मैंने तो उन्हें छूना पता नही कबसे बंद कर दिया था....वो जब हाथ धोने मेरे कमरेमे गयी तो उसने ये साज़ देख लिए....मुग्धता से उन्हें निहार रही थी, और मेरी नज़र पड़ गयी....मैंने कहा,
" क्यों, मन है इन्हें एकबार सुरमे लानेका?"
"जी, मासी...बोहोत...मै बजा सकती हूँ???"मुग्धाने मुझसे पूछा...हाँ, उसका नाम मुग्धाही था...
"बच्चे, ज़रूर...इनकी तो किस्मत खुल गयी...!" मैंने खुश होके कहा...
उसने पलकीभी देरी नही की....नाही उसे कोई झिझक थी....हारमोनियम को सुरमे लाके, उसने तबलेपेभी अपना हाथ आज़माया...साथ मीठी, सुरीली आवाजमे गुनगुनाती रही...

इधर मेरा बेटा, निम्मीकी बड़ी बेटी, शुभ्रा और वंदन शतरंज लेके बैठ गए....वैसे खेल तो शुभ्रा और वंदन रहे थे, लेकिन मेरे बच्चे, दोनोंके बीछ टांग अडा रहे थे....शुभ्रा वंदन को चेकमेट देनेही वाली होती,कि, मेरा बेटा, उमंग, वंदन को आगाह कर देता...और शुभ्रा चिल्लाके मुझे पुकारती...,
" मासी...इसे यहाँसे हटाओ ना...देखो इसने तीसरी बार, मेरा बँटा धार किया है.....!"
मै उसे वहाँसे हटनेके लिए कहती तो वंदन, उसे खींचके अपने पास बिठा लेता...मेरी बिटियाने शुभ्राको आगाह करना शुरू कर दिया...हालाँकि वो, (मोहिनी),इतनी माहिर नही थी, जितना कि मेरा बेटा...

चायका समय होने आया तो मैंने पास जाके सारे मोहरे उलट पलट दिए.....!तब कहीँ जाके वंदन उठा और हमलोगोंके साथ आ बैठा.....निम्मीके सास-ससुर, खानेके बाद कुछ देर आराम करने कमरेमे चले गए थे...मै चाय बनाने रसोईमे मुडी तो निम्मी और वंदन, दोनों मेरे साथ आके खड़े हो गए ......
बातचीतका एक अलगही दौर चल पडा....जिसने हमारे बचपनकी और रुख किया...और फिर अपने, अपने जीवनके उतार चढाओं के ओर मुड़ गया....
कई घटनाएँ ऐसी थीं, जिनसे वंदन वाक़िफ़ नही था...और उसके अपने जीवनमे काफ़ी कुछ था, जिससे मै और निम्मी वाक़िफ़ नही थे.....

हम तीनों बातों मे लग गए तो हमारे बच्चों ने बिन कहे, चाय-नाश्तेके दौरको अपने आप सँभाल लिया...अपने दादा-दादीको चाय नाश्ता परोस दिया....उन्हें बगीचेमे ले गए....पताही नही चला कि, कब शाम गहराती गयी....
"चलो, हम सभी रातका खाना कहीँ बाहर खा लेते हैं....!"
"हाँ, हाँ, ऐसाही ठीक रहेगा...चलिए मासी, आपकोभी थोडा आराम मिल जायेगा...", मुग्धा बोल पड़ी.....निम्मीनेभी ज़ोर दिया...सबका यही विचार था कि, कुछ और समय इकट्ठे बितानेके लिए मिल जायेगा....

निम्मीके सास-ससुरने कहा," भई, हमलोग तो रातमे मुश्किल से कुछ खाते हैं...और वैसेभी दोपेहेरका भोजन अभी हज़म नही हुआ...हम दोनोको तो गेस्ट हाउस छोड़ दो...तुम सब घूम आओ.."

मेरे बेटे उमंगने कहा," पर हम चारों कहीँ और जाएँगे...आपलोगोंके साथ नही.....ममा...हमने तो सोच लिया कि, मल्टीप्लेक्स मे जाके १० बजेका शो देखेंगे.....चलेगा ना?"

सब इस तरहसे हिलमिल गए थे कि, मेरे ना कहनेका सवालही नही उठता था....
निम्मी मुझसे बोली," उफ़! तू मेरी साडी तो देख...कितनी चुम्हला गयी है...कैसे लगेगी....?"

"तो क्या? तू मेरी कोई साडी पेहेन ले....चोली तो एकदम अच्छी है...इसी चोलीपे मेरी ४/५ साडियाँ पहनी जा सकती हैं...चल आ मेरे कमरेमे...और चुन ले....!"मैंने उसे खींचके उठाते हुए कहा....

"मतलब तुम दोनों तो खूब सज सँवर लोगी और मै ऐसेही चलूँ...? या तो तुम दोनोका ड्रायवर लगूँगा या बॉडी गार्ड.... ........!"वंदन कह उठा....
" अब चल भी ...ज़्यादा नाटक नखरे मत दिखा...", मै बोल पड़ी...
"मुझे कमसे कम मुँह हाथ धोनेका तो मौक़ा दोगी या नही तुम दोनों..?"
वंदन ने बड़े नाटकीय ढंगसे हाथ जोड़ते हुए कहा....
" हाँ, हाँ....लो, चलो, मौक़ा और तौलिया दोनों हाज़िर हैं..!."मैंने स्नानगृह की ओर इशारा करते हुए कहा.....

चंद मिनटों मे सब तैयार हो गए....बच्चों ने अपना रुख कर लिया...हम तीनों ने पहले, माँ और बाबूजी को गेस्ट हाउसपे छोडा और फिर एक ज़रा शांत होटल की तलाशमे निकल पड़े.... चयन का काम तो मुझपेही सौंपा गया....

याद नही कि तक़रीबन चार घंटे कैसे बीत गए.....वंदन, जोकि, दूसरेही दिन लौटने वाला था...और दो दिनों के लिए रुक गया....इधर मेरे पतीकी वापसी ३ दिनोंके लिए और आगे मुल्तवी हो गयी...वंदन चाह रहा था, कि, इनसे मिलता जाय ...पर आसार नज़र नही आ रहे थे....

मै मनही मन खुश थी कि, निम्मीको अपने दुखोंसे, यादों से, कुछ तो निजात मिल रही थी....उसकी उदासी किसी परछाई की तरह, उड़न छू होते जा रही थी.....फिरभी, बेमौसमकी बदरी की भाँती, लौटभी आती....लाज़िम था....घाव हरा था...बहने लग जाता....

अगले दिनका क्रम हमलोग तय कर रहे थे......जितनाभी समय हमलोगोंके पास था, हमने इकट्ठे ही बिताना था...ऐसा मौक़ा फिर मिले ना मिले....किसीको कोई ऐतराज़ भी नही था....निम्मीके सास-ससुर तो निम्मीके लिए खुश ही हो रहे थे....हम बिछडे इस तरह से मिले थे, जैसे कभी जुदा हुएही न हों.....इन दो-तीन दिनोंमे कितना कुछ घटनेवाला था, किसे ख़बर थी...?
क्रमशः