कहाँ हैं ? कहाँ हैं? कहाँ हैं ? जिन्हें नाज़ है,हिंद्पे वो कहाँ हैं॥?
पहले भी, ये आवाज़ उठा चुकी हूँ...फिर उठा रही हूँ...वजह॥? चंद रोज़ पूर्व, एक अत्यन्त विश्वसनीय NGO ने मुंबई में सुरक्षा के तहत, ५,००० कैमरे लगा देनेका प्रस्ताव सरकार को दिया...CM, deputy CM, आदि सभी उस मीटिंग में मौजूद थे...प्रस्ताव स्वीकार हो गया...इसमे कोई दो राय नही थी,कि, ये इस समय की दरकार है...एक सेवा में अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी ने बड़ी शिद्दत के साथ ये मीटिंग रखवाई थी...और सुने, मीटिंग के दो रोज़ बाद ,चंद्रा ऐय्यंगार नामक, आईएस, अफसर ने,( सेक्रेटरी to the govt ऑफ़ इंडिया, जिसके तहत पुलिस मह्कमा आता है,) प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा ," सरकार तो पहलेही इस काम में जुटी है...किसी NGO को इस कामके खातिर धनराशी देनी हो तो दें...!"
वाह ! मरने दो जनता को..मरने दो सुरक्षा कर्मियों को...IAS के अफ़सर,जो पुलिस के उपरसे हटना नही चाहते, जिन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से कोई लेन देन नही...ना वाबस्ता होना चाहते हैं, उन्हों ने एक पलमे सारा प्रस्ताव रफ़ा दफ़ा कर दिया...! जबकि, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई में, ऐसे किसी काम में जुटी नही है...! अपने अधिकार बनाये रखने के ख़ातिर, किस क़दर स्वार्थी हो सकते हैं लोग ?
कोई पूछे इनसे, ये जो, पोस्टिंग्स पे तामील करते हैं,कि, २६/११/२००८ के बाद से तक़रीबन ८ माह , ATS के प्रमुख की पोस्ट रिक्त क्यों रही? क्या इस पोस्ट को पढने वाले पाठक अपनी आवाज़ उठा सकते हैं? पाकिस्तान को क्या कहें? जब हमारे ही तथा कथित 'ज़िम्मेदार' अफ़सर अपने 'ऐसे ऐतिहासिक निर्णयों' से उस देशकी सहायता में जुटे हों तो?
अब आलेख जारी है:
पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे डाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !
अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?
कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री। धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नॅशनल पोलिस कमिशन के तेहेत, कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-।भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे... यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके ज़िम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!
इन में से कई लोगों का हमारे घर, एक परिवार की तरह आना जाना लगा रहा करता... एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।
रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...
सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे डाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !
अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?
कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री। धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नॅशनल पोलिस कमिशन के तेहेत, कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-।भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे... यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके ज़िम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!
इन में से कई लोगों का हमारे घर, एक परिवार की तरह आना जाना लगा रहा करता... एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।
रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...
सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....
4 comments:
आँखें खोलने वाला पोस्ट............. सच को बहुत करीब से देखा और भोग लग रहा है...............
bilkul sahi likha shama ji, in jawaj police karmiyo ki shadat ka koi nam nahin,jab ki yeh aam janta ki hifajat bina acchi subidhao ke kar rhaey hai,apney yeh likh kar bahut se logo ka yeh paigam diya hai,aur main tyyar hoon is paigam ko ghar,ghar to phauchaney main,baki apko shubhkamnaey.
अच्छी जागरूकता वाली पोस्ट लिखी है
देखिये जब अपने द्बारा चीनी गई सरकार ही लोगों को बाटने का काम कर रही है तो हम आप के लिए स्थिति ठीक नहीं है | अल्पसंख्यको को विशेष पैकेज, क्यों ये विशेष पैकेज सिर्फ गरीबों के लिए नहीं हो सकता है ? और अल्पसंख्यकों मैं भी सिर्फ मुस्लिम | सिख, जैन, पारसी, बोद्ध कहाँ गए ?
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