Tuesday, May 26, 2009

मात्रु दिवस ४

Monday, May 18, 2009

रिश्ता था हमदोनोका ऐसा अभिन्न न्यारा
घुलमिल आपसमे,जैसा दिया और बातीका!
झिलमिलाये संग,संग,जले तोभी संग रहा,
पकड़ हाथ किया मुकाबला तूफानोंका !
बना रहा वो रिश्ता प्यारा ,न्यारा...

वक़्त ऐसाभी आया,साथ खुशीके दर्दभी लाया,
दियेसे बाती दूर कर गया,दिया रो,रो दिया,
बन साया,उसने दूरतलक आँचल फैलाया,
धर दी बातीपे अपनी शीतल छाया,कर दुआ,
रहे लौ सलामत सदा,दियेने जीवन वारा!!

जीवनने फिर एक अजब रंग दिखलाया,
आँखोंमे अपनों की, धूल फेंक गया,
बातीने तब सब न्योछावर कर अपना,
दिएको बुझने न दिया, यूँ निभाया रिश्ता,
बातीने दियेसे अपना,अभिन्न न्यारा प्यारा,


तब उठी आँधी ऐसी,रिश्ताही भरमाया
तेज़ चली हवा तूफानी,कभी न सोचा था,
गज़ब ऐसा ढा गया, बना दुश्मन ज़माना,
इन्तेक़ाम की अग्नी में,कौन कहाँ पोहोंचा!
स्नेहिल बाती बन उठी भयंकर ज्वाला!

दिएको दूर कर दिया,एक ऐसा वार कर दिया,
फानूस बने हाथोंको दियेके, पलमे जला दिया!
कैसा बंधन था,ये क्या हुआ, हाय,रिश्ता नज़राया!
ज़ालिम किस्मत ने घाव लगाया,दोनोको जुदा कर गया!
ममताने उसे बचाना चाहा, आँचल में छुपाना चाहा!!

बाती धधगती आग थी, आँचल ख़ाक हो गया,
स्वीकार नही लाडली को कोई आशीष,कोई दुआ,
दिया, दर्दमे कराह जलके ख़ाक हुआ,भस्म हुआ,
उस निर्दयी आँधीने एक माँ का बली चढाया,
बलशाली रिश्तेका नाज़ ख़त्म हुआ, वो टूट गया...

रिश्ता तेरा मेरा ऐसा लडखडाया, टूटा,
लिए आस, रुकी है माया, कभी जुडेगा,
अन्तिम साँसोसे पहले साथ हो, बाती दिया,
और ज़ियादा क्या माँगे, वो दिया?
बने एकबार फ़िर न्यारा,रिश्ता,तेरा मेरा?

जानती है, १२ मईको "तैय्याका" फोन आया था? वो तेरे बारेमे पूछ रही थीं! मुझसे रहा न गया...दिल भर आया ..मैं कुछ देर खामोश रही...तैय्या बार, बार पूछती गयीं...अंतमे भर्राई आवाज़मे मैंने कह दिया," भाभी वो मुझसे बेहद रूठी हुई है...पता नही वो मुझसे कभी सामान्य हो पायेगी या नही? "

तैय्याको ३१ साल पूर्व का वो बनारससे ,देहलीतक किया सफर याद आ गया....३० मईको मै तुझे लेके तैय्याके साथ, बनारससे देहली निकली थी...बिना आरक्षण किए...३रे दर्जेकी बोगीमे...देहली स्टेशन पे एक ऐसी भीड़ दिब्बेमे घुस पडी,की, मै और तैय्या तो बिछड़ ही गए...मै, बोगीके passege में तुझे ले गिर पडी...अपने शरीरको १२ दिनोकी एक नाज़ुकसी कलीपे ढाल बनाये रखा...मेरे उपरसे भीड़ गुज़र रही थी..तू डर और भूखसे जारोज़ार रो रही थी..एक मुसाफिरने मेरी हालत देखी...मानो फ़रिश्ता बन वो सामने या...हम दोनोको उसने खड़ा किया और कहा," अब मै अन्दर घुसनेवाली भीडको एक ज़ोरदार धक्का लगा दूँगा...आप उस वक्त डिब्बेसे उतर जाना...!"

गर वो ना होता तो पता नही, ज़िंदगी ने हमें वहीँ रौन्दके रख दिया होता.....तेरे कपड़े डिब्बेमे छूट गए..मेरे पैरोंमे चप्पल नही रही...

तैय्या platform पर नही उतर पायी...दूसरी तरफकी पटरियों पे उन्हें उतरना पडा..मै जैसेही platform पे उतरी...तेरे पिताके एक दोस्त हमें लिवाने आए थे..मुझे धीरज दिलाते हुए, एक बेंच पे बिठाया...मैंने तुझे स्तनपान कराया...कितनी भूकी प्यासी थी तू! ! मै आजतक वो दिन नही भूली...एक नन्हीं जान अपनी माँ पे कितनी निर्भर होती है..कितनी महफूज़ होती है, उसके आँचल में! !
मैं भी कभी ऐसीही महफूज़ रही हूँगी अपनी माँ के आँचल में....मुझे आजभी अपनी माँ का आँचल , हर धूपमे छाया देता है..काश मेरे जैसा नसीब तेराभी हो..कि तूभी...फिर एकबार, मेरे होते, अपने आपको उतनाही महफूज़ महसूस करे!!!काश..काश..मेरी इतने बरसों की अराधना सफल रहे....
जानती हूँ, तेरा जीवनसाथी, तेरे लिए एक विलक्षण सहारा है..वो बना रहे..तुम दोनों बने रहो..किसी अदृश्य रूपसे मेरी दुआएँ तुमतक पोहोंचतीं रहेँ...आमीन!

मै लिखना चाहूँ,तो और पता नही कितना लिख दूँगी..पर अब बस..इसके पहलेभी काफी लिख चुकी हूँ..कितना दोहराऊँ?

समाप्त।

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