Friday, May 7, 2010

अर्थी तो उठी..३ (अन्तिम)


पिछली किश्त में मैंने बताया की, तसनीम की दिमागी हालत बिगड़ती जा रहे थी...लेकिन उसकी गंभीरता मानो किसी को समझ में नही आ रही थी...

उसे फिर एकबार अपने पती के पास लौट जाने के लिया दबाव डाला जा रहा था..जब कि, पतिदेव ख़ुद नही चाहते थे कि,वो लौटे...हाँ..बेटा ज़रूर उन्हें वापस चाहिए था..!

हम लोग उन दिनों एक अन्य शहर में तबादले पे थे। दिन का समय था...मेरी तबियत ज़रा खराब थी...और मै , रसोई के काम से फ़ारिग हो, बिस्तर पे लेट गयी थी...तभी फोन बजा....लैंड लाइन..मैंने उठा लिया..दूसरी ओर से आवाज़ आयी,
" तसनीम चली गयी..." आवाज़ हमारे एक मित्र परिवार में से किसी महिला की थी...
मैंने कहा," ओह ! तो आख़िर अमेरिका लौट ही गयी..पता नही,आगे क्या होगा...!"

उधर से आवाज़ आयी," नही...अमेरिका नही..वो इस दुनियाँ से चली गयी और अपने साथ अपने बेटे को भी ले गयी...बेटी बच गयी...उसने अपने बेटे के साथ आत्महत्या कर ली..."
मै: ( अबतक अपने बिस्तर पे उठके बैठ गयी थी)" क्या? क्या कह रही हो? ये कैसे...कब हुआ? "

मेरी मती बधीर-सी हो रही थी...दिल से एक सिसकती चींख उठी...'नही...ये आत्महत्या नही..ये तो सरासर हत्या है..आत्महत्या के लिए मजबूर कर देना,ये हत्या ही तो है..'

खैर! मैंने अपने पती को इत्तेला दे दी...वे तुंरत मुंबई के लिए रवाना हो गए...
बातें साफ़ होने लगीं..तसनीम ने एक बार किसी को कहा था,' मेरी वजह से, मेरे भाई की ज़िंदगी में बेवजह तनाव पैदा हो रहे हैं..क्या करूँ? कैसे इन उलझनों को सुलझाऊँ? '

तसनीम समझ रही थी,कि, उसकी भाभी को वो तथा उसके बच्चों का वहाँ रहना बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था...उसके बच्चे भी, अपनी मामी से डरे डरे-से रहते थे..जब सारे रास्ते बंद हुए, तो उसने आत्म हत्या का रास्ता चुन लिया..पिता कैंसर के मरीज़ थे..माँ दिल की मरीज़ थी..तसनीम जानती थी,कि, इनके बाद उसका कोई नही..कोई नही जो,उसे समझ सकगा..सहारा दे सकेगा..और सिर्फ़ अकेले मर जाए तो बच्चे अनाथ हो,उनपे पता नही कितना मानसिक अत्याचार हो सकता है????

उसने अपने दोनों बच्चों के हाथ थामे,और १८ मंज़िल जहाँ , उसके माँ-पिता का घर था, छलांग लगा दी...दुर्भाग्य देखिये..बेटी किंचित बड़ी होने के कारण, उसके हाथ से छूट गयी..लेकिन उस बेटी ने क्या नज़ारा देखा ? जब नीचे झुकी तो? अपनी माँ और नन्हें भाई के खून से सने शरीर...! क्या वो बच्ची,ता-उम्र भुला पायेगी ये नज़ारा?

अब आगे क्या हुआ? तसनीम की माँ दिल की मरीज़ तो थी ही..लेकिन,जब पुलिस उनके घर तफ्तीश के लिए आयी तो इस महिला का बड़प्पन देखिये..उसने कहा," मेरी बेटी मानसिक तौर से पीड़ित थी..मेरी बहू या बेटे को कोई परेशान ना करना॥"

इतना कहना भर था,और उसे दिलका दौरा पड़ गया..जिस स्ट्रेचर पे से बेटी की लाश ऊपर लाई गयी,उसी पे माँ को अस्पताल में भरती कराया गया..तीसरे दिन उस माँ ने दम तोड़ दिया...उसके आख़री उदगार, उसकी, मृत्यु पूर्व ज़बानी( dying declaration)मानी गयी..घर के किसी अन्य सदस्य पे कोई इल्ज़ाम नही लगा...!

इस बच्ची का क्या हुआ? यास्मीन के नाम पे उसके पिता ने अपनी एक जायदाद कर रखी थी..ये जायदाद, एक मशहूर पर्वतीय इलाकेमे थी...पिता ने इस गम के मौक़े पे भी ज़हीन संजीदगी दिखायी..उन्हीं के बिल्डिंग में रहने वाले मशहूर वकील को बुला, तुंरत उस जायदाद को एक ट्रस्ट में तब्दील कर दिया, ताकि,दामाद उस पे हक ज़माने ना पहुँच जाय..
और कितना सही किया उन्हों ने...! दामाद पहुँच ही गया..उस जायदाद के लिए..बेटी को तो एक नज़र भर देखने में उसे चाव नही था...हाँ..गर बेटा बचा होता तो उसे वो ज़रूर अपने साथ ले गया होता..

उस बेटी के पास अब कोई चारा नही था..उसे अपने मामा मामी के पासही रहना पड़ गया..घर तो वैसे उसके नाना का था...! लेकिन इस हादसे के बाद जल्द ही, तसनीम के भाई ने अपने पिता को मुंबई छोड़, एक पास ही के महानगर में दो मकान लेने के लिए मजबूर कर दिया..अब ना इस बच्ची को उनसे मिलने की इजाज़त मिलती..नाही उनके अपने बच्चे उनसे मिलने जाते..उनके मनमे तो पूरा ज़हर भर दिया गया..इस वृद्ध का मानसिक संतुलन ना बिगड़ता तो अजीब बात होती..जिसने एक साथ अपनी बेटी, नवासा और पत्नी को खोया....

इस बच्ची ने अपने सामने अपनी माँ और भाई को मरते देखा..और तीसरे दिन अपनी नानी को...! इस बात को बीस साल हो गए..उस बच्ची पे उसकी मामा मामी ने जो अत्याचार किए, उसकी चश्मदीद गवाह रही हूँ..इतनी संजीदा बच्ची थी..इस असुरक्षित मौहौल ने उसे विक्षप्त बना दिया..वो ख़ुद पर से विश्वास खो बैठी...कोई घड़ी ऐसी नही होती, जब वो अपनी मामी या मामा से झिड़की नही सुनते..ताने नही सुनती....अपने मामा के बच्चे..जो उसके हम उम्र थे...वो भी, इन तानों में, झिड़कियों में शामिल हो जाते...

ये भी कहूँ,कि, आजतलक,उस बच्ची के मुँह से किसी ने उस घटना के बारेमे बात करते सुना,ना, अपनी मामा मामी या उनके बच्चों के बारेमे कुछ सुना...जैसे उसने ये सारे दर्द,उसने अपने सीनेमे दफना दिए....

ट्रस्ट में इस बात का ज़िक्र था कि, जब वो लडकी, १८ साल की हो जाय,तो उस जायदाद को उसके हवाले कर दिया जाय..वो भी नही हुआ..

मामाकी,अलगसे कोई कमाई नही थी...अपने बाप की जायदाद बेच जो पैसा मिला, उसमे से उसने,अलग,अलग जायदाद,तथा share खरीदे...और वही उन सबका उदर निर्वाह बना..और खूब अच्छे-से...बेटा बाहर मुल्क में चला गया..तसनीम की माँ के बैंक लॉकर में जो गहने-सोना था, बहू ने बेच दिया...ससुर के घर में जो चांदी के बर्तन थे, धीरे,धीरे अपने घर लाती गयी...और परदेस की पर्यटन बाज़ी उसी में से चलती रही...

अब अगर मै कहूँ,कि, काश वो बद नसीब बच्ची नही बचती तो अच्छा होता,तो क्या ग़लत होगा? उसकी पढ़ाई तो हुई..क्योंकि,अन्यथा, मित्र गण क्या कहते? इस बात का डर तो मामा मामी को था..लेकिन पढाई के लिए पैसे तो उस बच्ची के नाना दे रहे थे! उस बच्ची को बारह वी के बाद सिंगापूर एयर लाइन की शिष्य वृत्ती मिली..उसे बताया ही नही गया..ये सोच कि,वहाँ न जाने क्या गुल खिलायेगी...! जो गुल उसने नही खिलाये, वो इनकी अपनी औलाद ने खिला दिए..इनकी अपनी बेटी ने क्या कुछ नही करतब दिखाए?

इन हालातों में तसनीम के पास आत्म हत्या के अलावा क्या पर्याय था? वो तो अपने भाई का घर बिखरने से बचाना चाह रही थी...! गर उसकी मानसिक हालत को लेके,उसके सगे सम्बन्धियों सही समय पे दक्षता दिखायी होती,तो ये सब नही होता...पर वो अपने पती के घर लौट जाय,यही सलाह उसे बार बार मिली...और अंत में उसने ईश्वर के घर जाना पसंद कर लिया...मजबूर होके!

उस बच्ची का अबतक तो ब्याह नही हुआ..आगे की कहानी क्या मोड़ लेगी नही पता..लेकिन इस कहानी को बयाँ किया..यही सोच,कि, क्यों एक औरत को हर हाल में समझौता कर लेने के लिए मजबूर किया जाता है? इस आत्महत्या को न मै कायरता समझती हूँ,ना गुनाह..हाँ,एक ज़ुल्म,एक हत्या ज़रूर समझती हूँ...ज़ुल्म उस बच्ची के प्रती भी...जिसने आज तलक अपना मुँह नही खोला..हर दर्द अंदरही अन्दर पी गयी...

8 comments:

hem pandey said...

आत्म ह्त्या किसी परिस्थिति में उचित नहीं ठहराई जा सकती. आत्महत्या का निर्णय यह साबित करता है कि व्यक्ति परिस्थितियों से मानसिक रूप से घबडा गया है. जीवन की विपरीत परिस्थितियों से जूझना बहुत कुछ 'श्रीमद्भगवद्गीता' सिखाती है.

Vinashaay sharma said...

हेम पान्डेय जी आपकी बात से सहमत हूँ,लेकिन निरन्तर विपरीत परिस्थतिया इन्सान के मस्तिषक को इतना कुन्ढित कर देती है,वोह कुछ सोच नहीं पाता और आत्महत्या कर लेता है,और मुझे इस वाक्या से
लगा कि समाज की गलत परम्पराये इसके लिये दोषी हैं ।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

इन्सान आत्महत्या के बारे में तभी सोचता है जब वो पूरी तरह से निराश हो चूका होता है, जब उसे कोई और रास्ता न दिखाई दे रहा हो । हाँ ये ज़रूर है की निराशा किसे कितनी जल्दी घेर लेगी, या कोई निराशा से कितनी जल्दी घबरा जायेगा, ये उस व्यक्ति के ऊपर है । पर हम ये नकार नहीं सकते हैं कि निराशाजनक परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए अक्सर समाज की दकियानूसी सोच और घटिया परम्पराएँ ही ज़िम्मेदार होते हैं ।

Asha Joglekar said...

लडकी के नाम जो पैसा ट्रस्ट में था वह तो लडकी के अलावा और कोी नही ले सकता था वह उसे क्यूं नही मिला ।

शोभा said...

निशब्द:

Manoj said...

tasneem k sath jo bhi hua galat hua.

abhi aapne likha hai k ye sb aapne apni aankho se dekha hai..mujhe 1 baat btayie k kya aapko uski help nhi krni chahiye thi.abhi to aap tasneem k sath bhout samwedna dikha rhi hai kash apne ye pehle dikhayi hoti to shayad tasneem aaj jinda hoti.
reply me on guestheart@hotmail.com

Unknown said...

aurat hi aurat ki dusman---

रमेश शर्मा said...

us bachchee ko ek behtar zindgee dena hi insaniyat kaa takaazaa hai aur yhee uskee marhoom maa kee bhee khwahish rahee hogee.

to be frenkley zulm ka pratikar hona chahie aur is zulm kee kahaanee me sirf lekhan se baat banne waalee nahee.