Tuesday, June 16, 2009

माँ ! प्यारी माँ ! ६

"अम्मा ! आप कुछ देर बाहर गयीं हैं, तो मैंने आगे लिखने का मौक़ा हथिया लिया...! जानती हूँ, आपके घरमे रहते मै, नेट पे बैठ जाती हूँ, तो आपको बड़ा घुस्सा आता है...!

"कुछ रोज़ पूर्व, चंद अल्फाज़ लिखे थे....शायद हर बेटी को यही महसूस होता हो...या फिर जिन बेटियों को ये महसूस होता है, उनकी माँ उस क़ाबिल होती हो!

"मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!

"अम्मा ! आपके इतिहास की पुनुराव्रुत्ती मेरे साथ हुई...हम दोनों ने जब कभी, किसी औरको सहारा देके उठाना चाहा, उसने हम ही को गिराया...वो उठा या नही, ये नही पता...लेकिन हम ज़रूर आहत हुए....बार, बार जीवन ने हमारे संग ये खेल खेला...आज तक नही समझ सकी, कि, दो समांतर रेषायों की भाँती हमारी ज़िंदगी कैसे चली??

"कैसे, कैसे दर्द समेटे हम दोनों चलते रहे...रहगुज़र करते रहे...?सिलसिला है,कि, थमता नही....दोनों के जीवन में बेशुमार ग़लत फेहमियाँ शामिल रहीं...एक से निपट लेते तो दूसरी हाज़िर...! ये कैसे इत्तेफ़ाक़ रहे?

"बोहोत कुछ लिखना चाह रही हूँ..लेकिन, सारी उम्र कम पड़ सकती है...और किस उम्र की बात करूँ?? आपकी अनगिनत यादें लिख चुकी हूँ...फिरभी लगता है, अभी तो कुछ नही कहा...! कुछ भी नही! ये समापन किश्त है, या और सफर बाक़ी है, मेरे लेखन का...आपके लिए...??गर होगा तो, उसे कुछ अन्य नाम दे दूँगी...शुक्र गुज़ार हूँ, अम्मा आपकी, के मुझे ऐसा अनुभव आपके रहते मिला...के ऐसी माँ मिली...आपसे होके जो राह गुज़री, उसमे शामिल हर ममता को नमन....हर ममता को सलाम !"

समाप्त ।

Friday, June 5, 2009

माँ! प्यारी माँ ! ५

"अम्मा! कल शामको आपसे बात हुई...बड़ा ही उदास-सा महसूस हो रहा था...अपने पलंग पे बैठे, बैठे, एक किताब के पन्ने, उलट पुलट करती रही...

रेडियो चल रहा था..'छाया गीत"...उसपे वही गीत बजा, जिसे मै अपनी बेटीकी बिदाई के समय बजाना चाह रही थी...ये दुआएँ उसके लिए कई बार कर चुकी थी,लेकिन बजा ना सकी...जब मै अपने नैहर से बिदा हुई, तो लगा, मेरे सारे अपनों के दिलसे वही दुआ निकल रही है मेरे लिए...'बाबुल की दुआएँ लेती जा , जा तुझको सुखी संसार मिले, मैके की कभी ना याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले...!'

"रफी ने इसे रो रोके गाया था...संगीत निर्देशक इस गानेको धनिमुद्रित कर रहे थे, तो गाते समय, रफी साहब सिसक,सिसक के रोने लगे.....उनसे पूछा गया, कि वे क्यों रोने लगे?
उन्हों ने कहा,'हालही में मेरी बेटीकी मँगनी हुई है...सोचने लगा,कि, वो चली जायेगी, तो मुझे कैसा लगेगा??....यही सारी दुआएँ मेरे मनसे निकलेंगी...'
सगीत दिग्दर्शक ने उनसे कहा, 'आप इसी तरह गा लीजिये...गीत ऐसेही ध्वनि मुद्रित होगा...!'
और वो गीत रफी साहबने सचमे रो, रो के गाया है!!

"अम्मा ! मुझे नही पता, कि, आपने इस गीतको कभी गौरसे सुना या नही...अबकी आओगी तो ज़रूर सुनाऊँगी.....
क्या गज़ब गाया है..सचमे अपनी बेटीके लिए उसके प्रिय जनों के मनमे यही सब आता होगा...और अब जाना, जब मेरी बिटिया ब्याही गयी.......मेरे मनमे भी यही सब आया..."मेरे बाग़ की अए नाज़ुक डाली !तुझे हरपल नयी बहार मिले...!"

"मै सारा गीत यहाँ लिख सकती हूँ,ऐसे भावपूर्ण अल्फाज़ हैं, और उन्हीँ भावों को समेटे गाया गया है....
आप अपने घरसे बिदा हुईं तब आपके अपनों के मनमे भी यही सब आया होगा...'काँटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओं में ........'... हैना?
जानती हूँ, कि, आपके सारी उम्र काटों पे चलके कटी.....आपने, खासकर आपके साथ,साथ, दादा-दादी अम्माने, मेरे लिए ऐसीही दुआएँ माँगी...जानती हूँ...फिरभी मेरा सफर काँटों की राहों से गुजरा....के राह मैंने ख़ुद चुनी थी...आपके लिए तो चुनी गयी थी....

"आप अपने खानदाँ की सबसे सुंदर हुनरमंद बेटी थीं...फिरभी राहोंमे फूल बिखरें हो...मुझे तो नज़र नही आए...अफ़सोस के ऐसी दुआ आपको लगी नही...नानी अम्मा को कितना दुःख होता होगा हैना? जानती हूँ, समझ सकती हूँ, मुझे देख आपको कितना दुःख होता रहा ..मैंने देखा है....

"चश्मे-बद-दूर...! शायद आपकी नवासी को ये दुआ लगी....या वो अधिक परिपक्व और संजीदा निकली...जोभी हो...ईश्वर उसे वो सब दे, जिसकी वो हक़दार है...
"अम्मा ! सारी उम्र भी आपके बारेमे लिखने के लिए कम है....हर रोज़ कुछ ना कुछ याद आताही है...आज आपकी बेटी, अपनी माँ के स्वास्थ्य के लिए दुआएँ माँग रही है.....कमसे कम आपको दर्द और तकलीफ तो ना हो...क्या ऊपरवाला मेरी इतनी दुआ सुनेगा?"

आ गयीं..बरखा रानी!!

कलही बरखा रानी को याद किया और आज बरस रही हैं...नीचे बच्चे खूब भीग भीग के शोर मचा रहे हैं..बादल गरज रहे हैं, और मुझे अपने बचपनकी बारिश, बचपन का आँगन, और बचपन का घर इस शिद्दत के साथ याद आ रहा है...

और बागवानी की वो शाम भी..पिछले जून माह की..... जब मेरी बिटिया साथ थी...और मैंने बागवानी शुरू कर दी थी...
आज वही बिटिया, तन और मन से दूर है...मेरे मनसे नही..लेकिन मै उसके मनसे...अभी,अभी, खिड़कियाँ बंद करके लौटी और लिखने लग गयी....
उस शाम की तरह, मेरी बिटिया रानी, तुझे आजभी दुआएँ देती हूँ...और देते,देते, आँखे भी भी पोंछ लेती हूँ...!

कैसा अजीब मौसम होता है ये...कभी तो बिटिया याद दिला देता है...कभी माँ, और माँ का घर, वो दादा, वो दादी...!...कभी बच्चों का बचपन तो कभी अपना बचपन....! और बचपनका आँगन !
एक आँख से रुलाता है...एकसे हँसाता है...!
समझ नही पा रही, कि, ये बातें, "बागवानी " इस ब्लॉग पे पोस्ट करूँ, या "संस्मरणों"मे....!

"माँ, प्यारी माँ", ये संस्मरण तो जारी है..." बागवानी" की याद , यहाँ, पोस्ट करनेसे खुदको रोक नही पाई...

Thursday, June 4, 2009

माँ, प्यारी माँ! ४

" अम्मा ! आज जो ख़बर दी आपने, दिल एकबार फिरसे धक्-सा रह गया है...अम्मा अभी तो आपसे कितना कुछ कहना है...लिखना शुरू किया तभी, ऊपरवालेसे दुआ की थी, कि, आप मेरा लिखा पढ़ सकें, इतनी मोहलत तो मिले मुझे...

"आपका एक ख़त अपने सामने लिए बैठी हूँ...एक माँ ने अपनी बेटी को दिया प्रशस्ती पत्रक....बोहोत,बोहोत पहले मेरी बेटी ने मुझे, बडेही भोले भावोंसे, कुछ लिखके पकडाया था....मेरे लिए वो नायब tribute था....मैंने उस छोटेसे निबंध को उसकी teacher के पास पढनेके ख़ातिर दिया और मुझे वापस नही मिला...अब मैंने आपके इस खतको laminate करके रखा है...पहले तो उसकी प्रतियाँ निकाल लीं....

" आप लिखती है,'उस रोज़, मै ऐसेही फुरसत से सोचते बैठी थी...बरामदा खामोश था....कई ख़याल दिलकी राहोँ से गुज़रते रहे.....और जाना कि, उनका रुख तुम्हारी ओर हुआ....मै अनायास तुम्हारी कई सारी बातें याद करती रही...

"याद आता रहा, कि, तुमने हम सभी के लिए कितना कुछ किया है...खुले,बड़े दिलसे, बदलेमे कोई अपेक्षा न रखते हुए.....खुशीसे ओतप्रोत होते हुए....एक सम्पूर्णता से बस निछावर ही निछावर करती गयीं....

"चाहे वो मेरी अनगिनत बीमारियाँ हो, तुम्हारी छोटी बेहेनका ब्याह हो या, छोटे भाई का ब्याह हो...दादी अम्माकी सर्जरीस हों....या और कुछ....जोभी हो... खुले दिल और हाथोंसे तुम सभी को देतीही देती गयीं....सिर्फ़ हमीं लोगों को नहीं...तुम्हारे संपर्क में आनेवाले हरेक को तुमने खुले दिलसे दिया ही दिया...अपना-पराया,ये भेद किए बिना...जिसने जब माँगा, और गर वो युम्हारे पास था, उसे मिलही जाता...इतनी निरपेक्ष?

"जब, फुरसत के लम्हात होते हैं, मै तुम्हारेही बारेमे सोचने लग जाती हूँ....तुम्हारे लिए दुआएँ करती रहती हूँ...ख़ास करके , सूनी-सी दोपहर में या रातको सोनेसे पूर्व...मनसे ढेरों दुआएँ निकलती हैं....

"तुम मेरी सबसे अधिक, ख़याल रखनेवाली, सबसे अधिक समझदार बेटी हो...सबसे अधिक ज़िम्मेदार......
ढेरों प्यार सहित
अम्मा' "

"अम्मा! और लिखना बाकी है...इत्तेफ़ाक़ देखिये! अभी, अभी, लिखते,लिखते,एक गीत लताके सुरों में सुन रही थी...मानो अपना कलेजा उँडेल दिया उसमे लाताजी ने........अल्फाज़ कुछ इस तरह के थे,'
वो जो औरों की ख़ातिर जिए मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला? उन्हें क्या मिला?
जैसे बादल बरसता हुआ,
प्यास सबकी बुझाता हुआ,
जैसे चंदन सभीके लिए,
अपनी खुषबू लुटाता रहा...
वहीँ तुम, अपना जीवन लुटाती रहीं....

पर तुम्हें प्यार किसका मिला,
ख्वाब देखे हमारे लिए,
एक पलभी अगर सो गयीं,
तुम हो माँ सारे परिवार की,
सबकी फिकरों में तुम खो गयीं..

तुम ना ब्याही, ना मेहंदी रची,
और न माथेको टीका मिला '
वो जो औरोंके ख़ातिर जिए,मिटे,
सोचती हूँ, उन्हें क्या मिला, क्या sssss मिला sssss?

" अम्मा ये ख़त पढ़ ,मेरी आँखों में कई बार आसूँ छलके...कई बार इसे सीनेसे लगाया... पता नही ,और कितनी बार लगाए रखूँगी.......
"खैर! आप ब्याही तो गयीं...और इसीलिये तो मेरी, और मेरे भाई बेहेन की माँ बनी.....लेकिन इसके अलावा, हर वो क़ुरबानी दी, जो इस गीत से बयाँ होती है....और उससे भी अधिक...

अभी तो कितनी बातें करनी हैं...कईं बातों की माफ़ी भी माँग लेनी है...
क्रमश:

Monday, June 1, 2009

माँ, प्यारी माँ...!३

"अम्मा, आज बेहद थक गयी हूँ...फिरभी रायभान के बारेमे लिखनेका मोह टाल नही पा रही हूँ...
हाँ, वही क़िस्सा बयाँ करनेके खातिर आज लिखना शुरू किया....

पता नही क्यों,रायभान को बस्ती परके सारे बच्चे, हिक़ारत से देखते थे...उसके साथ बुरी तरहसे पेश आते थे...जैसे कि,वो बतख की कहानी...उन बतखों मे एक हँस था..जिसे सब कुरूप कहते थे....रायभान की माँ, हमारे घरमे काम करती थी....

"सब बच्चे हमारी घरकी सीढियों पे बैठ, कुछ खेल रहे थे...मै बगीचे से आयी और सीढीयाँ लाघते हुए, रायभानको एक लात मार दी...बेचारेने," अरे, हटता हूँ, हटता हूँ," कहा और हट गया...
अम्मा, आप सब देख रहीँ थीं...आपने अन्य बच्चों को एक तरफ़ बिठा दिया ...मुझे और रायभानको अपने सामने बुलाया...
"मुझसे बोलीं," इसके सामने कान पकडके १० बार उठक बैठक करो, और हर बार माफी माँगो...कहो,कि, ऐसी हरकत फिरसे कभी नही करोगी..!"
"बेचारा रायभान बडाही सकुचाया-सा एक कोनेमे खड़ा हो गया...
"आपके आगे मना करनेका तो सवालही नही था..जैसा आपने कहा वैसाही मैंने किया......

उसके बाद आपने सब बच्चों को अपने,अपने घर भेज दिया...
मुझे अपने पास,प्यारसे लेके बैठीं और कहा," देखो बेटा, खुदाके आगे सब बच्चे एक जैसे होते हैं...और तुम्हें उसे लात मारके ख़ुशी मिली? तुमने हरकोई उसके साथ ऐसीही चाल चलता है ये देखा और वैसाही किया...हैना? '
"अम्मा, ये शत प्रतिशत सच था...मै खामोश बैठी रही...मेरी उम्र थी कुछ ३ सालकी...लेकिन मैंने ग़लत बात की है, ये मै खूब समझ गयी...

"उस रात मेरे गलेसे खाना उतरा नही..दादा पूछते रहे,कि, मै क्यों खाना नही खा रही...
आपने कहा," कोई बात नही गर एक रात नही खायेगी तो...उसने शामको दूध तो लेही लिया है...फलभी खाया है...नही खा पा रही,तो उसे सो जाने देते हैं।'

"दूसरे दिन सुबह हुई,तो मैंने अपनी माँ और पिताको घरसे नदारत पाया....दादी को पुकारने लगी...वो आ गयीं....
मैंने उनसे पूछा," अम्मा और बाबा कहाँ गए हैं? और वनुमासी,(रायभान की माँ,) क्यों नही आयी? आप क्यों नाश्ता बना रहीं हैं?"

दादीअम्मा ने कहा," तुम्हारे अम्मा -बाबा किसी वजहसे अस्पताल गए हैं...!"

बाबा तो कुछ देर बाद लौट आए...आप नही लौटी....
शाम हुई तो मैंने ज़िद की," दादी अम्मा मुझे बस्ती परके बच्चों के साथ खेलना है...उन्हें बुलाओ ना...और रायभान से मुझे,'डम डम डिगा,डिगा ये गाना भी सुनना है..."

दादी अम्माने मुझे समझाते हुए कहा, " आज नही...अभी कल देखेंगे....! चलो आज मैही तुम्हें कहानी भी सुना दूँगी, और खाना भी खिला दूँगी.."

"अम्मा आप देर रात किसी वक़्त आयीं ...मुझे ठीकसे पता नही चला, लेकिन आपको मेरी बग़ल मे पाके बड़ा सुरक्षित लगा..

"सुबह मेरी आँखें खुली, तो फिर आप मेरे पास नही थीं ...मुझे बस्ती परसे रोने धोनेकी आवाजें आ रहीं थीं...मै कुछ समझ नही सकी...जानती थी,कि, बस्तीपरके कई मर्द अपनी बीबिओं को मारते हैं..ऐसेमे वो रोती,रोती माँ या दादी के पास आती थीं..अब जब माँ ख़ुद बस्तीपे मौजूद है,ये मुझे बताया गया, तो मुझे बेहद हैरानी हुई,...माँ के होते हुए भी क्या उन औरतोंको मारा जा रहा है?

मैंने दादी अम्मासे कहा," मुझे बस्तीपे जाना है...मुझे जाने दो ना.....!"

"दादीअम्मा ने मुझे अपनी गोदीमे लेके कहा," अभी नही...शामको देखेंगे......"
"लेकिन आप कलसे मुझे रोक रहीं हैं..मुझे वो गाना सुनना है रायभान से...उसे तो बुला लो ना..!"मैंने अपनी ज़िद कायम रखी......
"अंतमे दादी अम्मा ने शायद सोचा कि, मुझे चंद बातें औरोसे पता चलें, उस बनिस्बत, वो खुद्ही बता दें तो बेहतर होगा......
"वो कहने लगीं,तो मैंने गौरसे उनके चेहरेकी ओर देखा...उनकी आँखों मे पानी था..होंठ काँप रहे थे,....... उन्हों ने कहना शुरू किया," बच्चे, रायभान अब फिरसे यहाँ कभी नही आयेगा.......!"
"लेकिन क्यों? मैंने उसे लात मारी थी इसलिए? मैंने माफी तो माँगी थी..दादी अम्मा आप उससे कहो ना,कि, मै फिरसे ऐसा नही करूँगी.." मुझे अब रुलाई-सी आने लगी थी...

"दादी अम्माके आँखों से अब पानी बहने लगा था...वो बोलीं," रायभान अब भगवान् जी के पास चला गया है! वो दोबारा हमें कभी नही दिखेगा....!"
मेरा मन एकदमसे धक्-सा रह गया..मै इतना जानती थी,कि, एकबार जब कोई "भगवान्" या "खुदाके" पास जाता है तो फिर कभी नही लौटता...! मुझे यक़ीन हो गया कि,वो मुझीसे रूठके चला गया....मेरे बाल मनपे जो उस समय गुज़री, उसका बयान करना कठिन है.....

"बादमे पता चलता रहा...वनुबाई ने चुल्हेपे बड़े-से पतीलेमे, नहानेके लिए पानी गरम करने चढाया था...रायभान और उसकी छोटी बेहेन छबी, वहीँ पे शायद कुछ उधम मचा रहे थे...वो खौलता पानी, चुल्हेपरसे उलट गया और दोनों बच्चों पे जा गिरा...छबू तो बच गयी...रायभान ईश्वर को प्यारा हो गया....

"मुझे याद है, मै, बोहोद दिनों तक सदमेमे चली गयी थी..खानेके लिए जैसे मुझे बिठाया जाता था, मुझे उबकाई आ जाती थी..मुझे अन्य एक बच्चे ने बताया था,कि, रायभान को भूक लगी थी, इसलिए वो अपनी माँ के पास पोहोंचा था..रोटी माँगते हुए...मुझे अब तो याद नही,कि, मै कितने दिन खाना नही खा पायी....

"अम्मा, अगर आप उस शाम मुझसे माफी ना मँगवाती,तो ताउम्र मै पश्च्यातापकी अग्नीमे जलती रहती...कभी खुदको माफ़ करही नही पाती...आजभी वो सारी बातें मेरे मनमे ऐसे अंकित हैं, जैसे कल परसों घटी हों....

सोचती हूँ, मैंने ऐसी हरकत कीही कैसे? क्या सवार था मुझपे? सिर्फ़ किसी अन्य की देखा देखी कर दी? लेकिन,जब कभी मुझे ये बात याद आती है तो शर्मसार हो जाती हूँ...जब कभी, डम डम डिगा, डिगा ये गीत बजता है,तो रायभान का भोला-सा चेरा सामने आ जाता है..."
क्रमश:

वर्तनी के लिए माफी चाहती हूँ..कोशिश तो की है, फिरभी गर कुछ typos रह गए हों,तो क्षमाप्रार्थी हूँ!
प्रस्तुतकर्ता shama पर 11:39 AM संदेश का संपादन करें">
लेबल: पश्च्याताप, प्यारी माँ, माँ, माफी., शमा, संस्मरण, हिन्दी

माँ, प्यारी माँ ! २

आजसे अपनी माँ के साथ, सीधा संभाषण ही करूँगी...जैसे अपनी बेटीसे करती रही हूँ...मूक...वो सुने ना सुने...चाहती हूँ, कि, ये आलेख मेरी माँ ज़रूर पढ़ें...ईश्वर, ये मौक़ा मुझे ज़रूर देना...ये सँवाद अनसुना ना रह जाय...

"अम्मा...आपकी आजकल, पहले शायद कभी नही आती थी, इतनी याद आने लगी है...
आपकी नवासी का एक छोटा-सा किस्सा सुनाती हूँ आपको..शायद पहले ज़रूर सुनाया होगा, पर फिर एकबार...

कुछ ४ साल की आयु थी उसकी...किसी बातपे मुझसे नाराज़ हुई, और अपना पलंग ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगी...
मैंने कहा," बेटा, जानती हो ये कितना पुराना पलंग है? जब तुम्हारे नाना छोटे थे, तो वो इसमे सोते थे....उसके बाद जब मै छोटी थी, तो मुझे इसमे सुलाया जाता था...बादमे तुम्हारी,मासी, मामा, सब इसीमे सोते रहे...आज वो तुम्हें मिला है..."
जैसे, जैसे मै उसे बता रही थी, वो स्तब्ध होती जा रही थी...आँखें फटी जा रही थीं....! पलंग हिलाना भी बंद हो गया...!
मुझसे बोली," माँ! जब तुम छोटी थीं, तो हम दोनों की देखभाल कौन करता था?"
मै जोरसे हँस पडी,बोली," जब मै छोटी थी,तो तुम दोनों इस दुनियामे नही थे!"
उसकी आँखें औरभी गोल, गोल हो गयीं...बोली," तो फिर हम कहाँ थे?"
"तुम भगवानजी के पास थे,"मेरा उत्तर ....
बेटी: "तो फिर हमें वहाँसे यहाँ कौन लाया?"
मै: " तुम दोनों हमें बोहोत पसंद आ गए...इसलिए तुम्हें हम भगवानजी से माँग के इस दुनियामे ले आए.."

कैसा निष्पाप, भोला बचपन था उसका....
अम्मा ! जब मै छोटी थी, तो मुझेभी ऐसाही लगता था...अपनी माँ हमेशा बड़ी ही रही होगी...याद है आपको मै आपसे कैसे,कैसे सवाल किया करती थी?

मेरी कँघी कर रहीँ थीं आप..मुझे इतना याद है, कि, मेरी छोटी बेहेन का जन्म तब नही हुआ था...मैंने पता नही क्या बात कही, और आप जोरसे हँस पड़ीं..
मैंने आपसे, बड़े अचरज से पूछा," अम्मा, जब आपकी माँ आपके पास नही हैं, तो आप हँस कैसे सकती हैं? आपको रोना नही आता?"
आप फिर एकबार हँस पड़ीं, बोलीं:"एक दिन तूभी मुझसे दूर होगी और फिरभी तू हँस पायेगी...खुदा करे, ऐसा हो....!"

मै खामोश हो गयी...ऐसाभी कभी हो सकता है? माँ साथ न हो? घरमे रिकॉर्ड प्लेएर पे एक गीत हमेशा सुना करती थी मै...शमशाद बेगम का गाया हुआ...."छोड़ बाबुल का घर, मोहे पीके नगर, आज जाना पडा,आज जाना पडा, याद करके ये घर, रोयीं आँखें मगर ,मुस्कुराना पडा, आज जाना पडा.."
याद है,मैंने आपसे पूछा था," अम्मा ! 'बाबुल" का " घर क्या होता है?"
अम्मा: ""बाबुल"का घर मतलब अपनी माँ घर, अपने पिता का घर..."
मै:" और 'पीका' घर मतलब?"
अम्मा:" पीका" घर मतलब, जैसे,ये घर मेरे लिए है...ये घर मेरी माँ का घर नही..मै शादी करके,फिर यहाँ रहने आयी....ये मेरे 'पतीका" मतलब 'पीका" घर है....तेरे 'बाबा' मेरे 'पी' हैं..!"
मै:" क्यों? आपको अपना घर क्यों छोड़ना पडा? नानीअम्मा को बुरा नही लगा आपको यहाँ भेज देना? और वो गानेवाली को क्यों जाना पडा? उसके साथ किसीने ज़बरदस्ती की? उसको रोना भी आया फिरभी उसको क्यों जाना पडा?"

मुझे याद है, आप बोलीं थीं:"एक दिन तुझेभी जाना पडेगा..इसी तरह...और शायद तू खुशीसे जायेगी...हो सकता है, जाते समय रो दे......"
मैंने वो ख़याल अपने मनसे पूरी तरह झाड़ दिया...ऐसा होही नही सकता...मै अपनी माँ, दादा, दादी और इस घर को छोड़ के कहीँ भी नही जा सकती...बल्कि, नही ही जाऊँगी...!

लेकिन, चलीही गयी...हाँ, रोई तो बोहोत...घरको तो भूल पाना ....वो तो खैर , नामुमकिन है...!..उस घरमे कितनेही बदलाव हो गए, लेकिन मुझे, वो घर वैसाही दिखता है, अपने सपनों में, जैसा तब था..जब आपका और मेरा ये सम्भाषण हुआ था...

इतने बरसों बादभी,मुझे "अपने घरके" तौरपे वही घर दिखता है! मुझे अपने ससुराल वालेभी गर सपनेमे दिखते हैं, तो उसी घरमे....! मुझे आजतक कोई अन्य घर दिखाही नही!
और ये बात आपकी छोटी बेटीके साथभी होती है...इतनाही नही..हमें किहीम भी और वहाँ का समंदर भी ( मेरे परदादाका एक घर किहीम, इस गाँव के, समंदरके किनारे, था....मुम्बईके पास), अपने खेतको लगी ज़मीनपे दिखता है...और सिर्फ़ मुझे और कुन्नुको नहीँ...आपके बेटेको भी किहीम का समंदर वहीँ नज़र आता है,अपने सपनोंमे... !!!उसे अपना घर छोड़, अन्य घर जाना नही पडा, तो उसे बचपनका घर सपनेमे दिखना लाज़िम है..लेकिन हम दोनों लड़कियोंको???

पता है आपको अम्मा...जब दादा के गुज़र जानेके बाद, दादीअम्मा कुछ रोज़ मेरे पास आके रहीँ,तो हमारी ये सपनों में घर दिखने वाली बात निकली...हैरान रह वो बोलीं," मुझे मेरा मायका छोडे ७२ सालसे अधिक हो गए...लेकिन, सपनेमे मुझे वही खम्बात का घर दिखता है..!"

सोचो तो ज़रा...दादाके साथ उनकी ज़िंदगी कितनी खुश गँवार गुज़री...! जिस दिन दादा गुज़र गए, वो उन दोनोकी शादीकी ७२ वी सालगिरह थी...! जिस दिन साथ जुड़े , उसी दिन बिछडे...!
लड़कियाँ क्यों "पराया धन" कहलातीं हैं? उनकी जड़ें कितनी अधिक उस भूमी, उस घरसे जुडी होती हैं, जहाँ, उनका बचपन गुजरता है...जहाँ उन्हें अपने यौवन मे पनाह मिली होती है..!!!जहाँ उन्हें सुरक्षित महसूस कराया जाता है...या जाना चाहिए...

वो एक शाम मुझे आजतलक नहीँ भूली...मै अपने दादा-दादीके साथ खेतपे घूमने गयी थी...वहाँसे लौटी तो आप रसोईकी सीढीपे खड़ी मिली..मै आपके क़रीब गयी,तो आपने मेरा माथा चूमा....उस एक प्यारे चुम्बनने मुझे कितना सुरक्षित महसूस कराया...मै इतने बरसों बादभी नही भूली...!

और एक बात के लिए मै आपकी ताउम्र शुक्र गुज़ार रहूँगी....ना जाने उस वक़्त आप मुझसे वैसा नही करवाती ,तो, मै ज़िंदगीभर कितना अधिक पछताती...३ सालकी उम्र होगी मेरी...फिरभी वो वाक़या मेरे ज़हन मे अंकित होके रह गया...नाभी रेहता, गर उसके अगले दिन जो घटा ,वो, ना घटा होता...आजभी सिहर जाती हूँ..आजभी अपनी प्यारी माँ के आगे नतमस्तक हो जाती हूँ...
आपके सदाही रुण मे रहना चाहती हूँ...चाहूँगी..."

क्रमश:

माँ, प्यारी,माँ! १

माँ, प्यारी,माँ! १

बेटीपे लिखा..एक माँ ने..अब एक बेटी अपनी माँ को याद कर ,उसके बारेमे लिखना चाह रही...
चाह तो बड़े दिनों से थी..और ऐसा नही,कि, पेहले लिखा नही..पर ये कुछ नए सिरेसे..एक बेटी, जो,माँ होनेका दर्द झेल रही है....और अपनी माँ का दर्द समझ रही है..उसका बड़प्पन याद कर रही है..उसकी कई बातें, आज मेरे सामने एक दीप शिखा बन खड़ी हो गयीं हैं...

कई बार चाहा,कि, एक औलाद, मुझेभी, याद करे,कुछ इसीतरह, जब भी, किसी अन्य को अपनी माँ को याद करते हुए,पढा,या सुना...शायद, वो मेरी किस्मत नही...
इस आलेखमे, कुछ उन्हीं के अल्फाज़ ,जो,खतों के रूपमे मेरे पास हैं...या बोलोंके रूपमे मुझे याद हैं...उन्हीं को ,उजागर करना चाह रही हूँ..लेकिन,सिर्फ़ उतनाही नही...औरभी बोहोत कुछ...

वोभी मेरे लिए,कितनीही बार फानूस बनी...अपने हाथ जला लिए,ऐसा करते, करते...ज़रूरी नही था,कि, मैनेही उन्हें जलाया हो...लेकिन,हाँ, जाने-अनजाने ये ख़ता मैंने ज़रूर की है...

उनका हर किया,अनुकरणीय ही था,ऐसाभी नही...लेकिन, वो नही था, येभी,कई बार, उन्होंने ने ख़ुद दिखलाया...
आज इससे अधिक लिखनेका समय नही....उनके बारेमे,इत्मिनानसे ही लिखना होगा..दिल भर,भर आता है...
उनपे, उतारा गुस्साभी याद आता है..अपनी हताशा भी याद आती है....

क्रमशः
Posted by Shama at 9:18 AM
Labels: प्यारी, फानूस., माँ, लेख, शमा, संस्मरण, हिन्दी