Sunday, January 31, 2010

सासू माँ..! एक संस्मरण ! २( अंतिम)

इस घटनाके बाद दिन बीत ते गए....मेरे पतीने बता दिया कि, उन्हों ने किसी कारन, मुम्बई मे पदभार सम्भालाही नही....उन दिनों वे तकरीबन एक माह बिना किसी पदके रहे....अंत में,उनकी दोबारा अकादमी मेही पोस्टिंग हो गयी...

एक सप्ताह के भीतर,पुलिस सायन्स कांग्रेस का आयोजन करना था...ऑल इंडिया स्तर का आयोजन....वोभी सफल हो गया..उस के पश्च्यात, ३/४ माह के अन्दर,अन्दर, मेरे पती का मुम्बई में ही तबादला हुआ...हाँ...इस वक़्त पोस्ट अलग थी...वे आगे निकल गए...

बात एक शाम की है.....मै, विमला और उसके पतीसे मिलने उनके घर गयी थी...याद नही कि ,किस सन्दर्भ मे ये बात छिडी जो मै लिखने जा रही हूँ...जिसने मुझे स्तंभित कर दिया और इस्क़दर असहायभी....! लगा, काश ! यही बात बीजी,खुले आम, अपने मृत्यू के पूर्व, मुझसेही नही, मेरे पतीसे भी कह देतीं....जो उन्हों ने विमला तथा उनके पतीसे कुछही रोज़ पहले कही थी...वो गिरीं उसके केवल ४ दिन पूर्व...!

विमला तथा उनके पतीसे वे खुलके बात किया करतीं ....मेरी भी कोशिश रहती कि, कुछ लोग हों, जिनसे, वे खुलके बतियाँ सकें....ऐसेमे अक्सर मै वहाँसे हट जाया करती...विमलाके पती मुझसे बोले, " जानती हो, उन्हों ने मुझसे क्या कहा ???"
" नही तो...! मुझे कैसे पता होगा ??" मैंने जवाब दिया...
विमलाके पती बोले," उन्होंने कहा, कि, मैंने इस बहू के साथ, पहले दिनसे, बेहद नाइंसाफी की है....अपनेही बेटे का घर तोडके रख देनेमे कोई कसर नही छोडी....जब कि, इसने मेरी सबसे अधिक खिदमत की.....गुस्से में आके,इस पे हम सभी ने तरह,तरह के, लांछन लगाये......आज बेहद शर्म सार हूँ..अपने बेटे से भी कहना चाह रही हूँ,कि, इसकी इज्ज़त हमेशा करना...ये बेहद सरल स्वभाव की औरत है..."

उन्हों ने औरभी काफ़ी कुछ कहा....यह भी, के, कभी आगे उनकी बहू पे कोई भी लांछन लगे और गर वो बात,इन पती-पत्नी को पता चले, तो, वो, बहू का साथ निभाएँ......

अजीब इत्तेफ़ाक़ रहा कि,बाद मे, उन पती पत्नीसे, उन्हीं दोनोकी व्यस्तताके कारण, मेरा अधिक संपर्क नही रहा....विमलाके पती अक्सर विदोशों मे भ्रमण करते रहे और मुझे उनसे अपने बारेमे कुछभी इस तरह से कहना अच्छा नही लगा....हमेशा लगा कि, ये मेरी गरिमा के ख़िलाफ़ है.....

बीजीको गुज़रे अगले माह १५ साल हो जायेंगे.....जो भी हुआ ज़िन्दगीमे.....बोहोत से शिकवे रहे...मेरी अपनी बेटीको लेके सबसे अधिक.....जो मैंने उनसे कभी नही कहे....लेकिन आज उनकी बड़ी याद आ रही है..

मेरी बेटीको उनसे आजभी सख्त नफ़रत है...पर आज शाम उसे मैंने ये बात बतायी....उसने कह दिया," अब क्या फायदा? अब तो कितनी देर हो चुकी....समय रहते उन्हों ने क्यों ये बात नही कही?? आज तुम मेरे आगे कितने ही स्तुती स्त्रोत गा लोगी, मुझे कोई फ़र्क़ नही पड़ने वाला.......जो तुम्हारे साथ या मेरे साथ होना था हो गया....मुझे ये सब बताओ भी मत माँ.... उनपे और अधिक गुस्सा आता है..."

मै खामोश हो गयी....मेरे पास उसे देनेके लिए कोई जवाब नही था......जैसे उनके मृत्यु के बाद महसूस हुआ...जैसे, जिस दिन विमला के पतीने मुझसे कुछ कहा, उसी तरह कल और आज, या पता नही पिछले कितने साल ये महसूस हुआ....ज़िंदगी फिर एकबार आगे बढ़ गयी...छल गयी...मै देखती रही...कुछ ना कर सकी.....दोस्त दुश्मन बन गए....ग़लत फेहमियों का अम्बार खड़ा होता रहा....

मै, मेरे अपनों के लिए, जीवनकी क्षमा माँगती रही....हर बला आजभी मुझे स्वीकार है...गर मेरे अपने महफूज़ रहें......जानती हूँ, कि, इस संदेश को शायद ,अपनी मृत्यु के बाद, अपने पती या बच्चों को पढने के लिए कहूँगी....मेरा हर पासवर्ड मेरी बेटी के पास है.........

आज सुबह ३ बजे मैंने अपना dying declaration भी पोस्ट कर दिया है....हर काम मै अपने इंस्टिक्ट से करती हूँ....उस वक़्त अपने आपको चाह कर भी, रोक नही पाती...जैसे कोई अज्ञात शक्ती मुझे आदेश दे रही हो, जिसका मुझे पालन करनाही है...उसके जोभी परिणाम हो, भुगतने ही हैं....यही मेरा प्राक्तन है, जिसे कोई बदल नही सकता....ना अपनी राह बदल सकती हूँ, ना पीछे मुड़ के चल सकती हूँ...हर किसी की तरह आगेही चलना है....आगे क्या है वो दिख भी रहा है, लेकिन टाला नही जा सकता....पढने वालों को अजीब-सा लगेगा, लेकिन यही इस पलका सत्य है....
समाप्त।

Thursday, January 28, 2010

सासू माँ:एक संस्मरण ! १

अजीब रिश्ता रहा हम दोनोका ! किसी गाफिल पल, उन्हें मुझपे बेहद प्यारभी आता और फिर अचानक अजीबसा संताप !
एक विचित्र वाक़या घटा और मुझे उनके बारेमे अलगसे कुछ लिखनेका मन कर गया। उसका बयान नही करूँगी क्योंकि ये संस्मरण बेवजह विस्तारमे चला जाएगा।

१९९३ वे की एक शाम। केवल एक ही रोज़ पूर्व, मेरे पती की मुम्बई पोस्टिंग हुई , मतलब वे अपना पदभार स्वीकारने मुंबई चले गए थे। महाराष्ट्र पुलिस अकादमी के संचालक पदसे, तबादला हो, मध्यवर्ती सरकारमे डेप्युटेशन पे। पदभार मुम्बई मे संभालना था। आर्डर मौखिक थे। सरकारी छुट्टियाँ थी, और कहा गया था कि, वो मुम्बई पोहोंच जायें ....जिस दिन दफ़्तर मे पदभार लेने आयेंगे, लिखित आर्डर दे दिए जायेंगे।

उनका समारोप समारंभ हो गया था। मुम्बई मे उस पोस्ट के लिए मकान भी मौजूद था। मैंने सोच रखा था, कि, जैसेही इन्हें आर्डर मिलेंगे मै सामान बाँधना शुरू कर दूँगी....
उस शाम की जिसकी मै बात कर रही हूँ, मेरी एक काफ़ी क़रीबी सहेली, मुझे अपने घर ले जाने आयीं। उनका घर शेहेरसे कुछ २५ किलोमीटर की दूरीपे था।

मै उनके साथ जानेके लिए, अपने पहली मंज़िल के कमरेसे नीचे उतरी, तो देखा, बीजी, एक महिला से, अपने पैरकी मालिश करवा रहीँ थीं।वो महिला हमारे घर दिनमे झाडू लगा दिया करती तथा घरके पिछवाडे बने सरकारी कमरोंमे रहती। बड़ा-सा बरामदा था....वहीँ पे एक सोफेपे वे बैठीं थीं।

उनका कमरा मैंने ख़ास निचली मंज़िल पेही रखा था। एक तो वो नाबीना हो चुकीं थीं..... दूसरा , फोन के अर्दली उस कमरेके बाहर ही बैठते थे ......सबसे बड़ा कारन था, उनका ओस्टोपोरोसिस। पत्थरकी बनी, पुराने ज़मानेकी , ऊँची, ऊँची सीढियाँ चढ़ना, उनके बसका ही नही था।

मै मनही मन शुक्रगुज़ार थी कि, नीचे एक अच्छा कमरा था, वरना मैंने ऐसे घर देखे थे, जहाँ सारे शयनकक्ष ऊपर और बैठक, खानेका कमरा तथा रसोई नीचे...!
सहेलीके साथ बाहर जानेके पहले मुझे पता नही क्या सूझ गयी, जो मैंने बीजीसे कहा," बीजी, आप जब बाहर घूमने जाएँ, तो घरके अहातेमेही घूमना। आज मै घरपे नही हूँ। विमलाके साथ उनके घर जा रही हूँ। दो घंटों के भीतर लौट्ही आऊँगी।"
बीजी ने जवाबमे कहा," ना...मुझे तो अकादमी के अहातेमे घूमना है। यहीँ के यहीँ घूमनेमे ना तो मुझे मज़ा आता है ना घुमानेवालेको......!"

ऐसा नही कि, वे कभी घरका अहाता छोड़, बाहर घूमने नही जातीं थीं, लेकिन ऐसे समय मै घरपे मौजूद रहती। घरके बाहरका अहाता ज़रा पथरीला था। उनके गिरनेका मुझे बेहद भय रहता। उन्हें मधुमेह्का रोगभी था। ज़ख्म ठीक होना मुश्किल ......मधुमेह्के कारन ही वे, रेटिनल detachment की शिकार हो, नाबीना हो गयीं थीं। उनपे हर मुमकिन सर्जरी हो चुकी थी...केवल भारत के नहीं, दुनियाके बेहतरीन नेत्र तग्य से....

मैंने फिर एकबार गुहार लगाई," बीजी, सिर्फ़ आजके दिन...मुझे विमलाके बगीचे का landscaping हर हालमे आज पूरा करना है....सिर्फ़ आजके दिन...आपको पता है, मै इसतरह आपको कभी नही टोकती...!"
मेरे साथ विमलाने भी उनसे वही कहा...वो हलकेसे हँस दी और बोली," चलो विमला, तुम कहती हो तो मान लेती हूँ...!"

मै विमलाके साथ निकल पड़ीं। उन दिनों मोबाइल फोन तो थे नही! हम दोनों उसके घरके गेट के भीतर प्रवेश ही कर रहे थे, कि, अन्दर फोन की घंटी सुनाई पड़ीं। जबतक विमला अन्दर गयीं, वो बंद हो गयी। विमला फोनसे अलग होनेही वाली थी , कि, मैंने उसे टोक दिया," विमला, ये फिरसे बजेगा...रुको कुछ पल..."
मेरा इतना कहनाही था कि, फ़ोन दोबारा बज गया। विमलाने उठा लिया....पलट के मुझे बोलीं," तुम्हारे लिए है...तुम्हारे घरसे.....अर्दली बोल रहा है....कुछ घबराया-सा है....."

मैंने लपक के फोन अपने हाथ मे ले लिया....दूसरी ओरसे आवाज़ आयी," माताजी गिर पड़ीं हैं.....घरमेही....आप तुंरत आ जाईये..."
मैंने उसी फोनसे एक डॉक्टर दोस्त का नंबर घुमाते हुए, विमलाको स्थिती बता दी...उसी डॉक्टर से इल्तिजा कर दी, कि, एक अम्ब्युलंस तुंरत घर भेज दें......वहाँ के एक सबसे बेहतर अस्पताल मेके , अस्थि तज्ञ को इत्तेला दें.... कमरा भी बुक कर लें.......अस्थी तज्ञ जानेमानेही थे, क्योंकि, मै बीजीको नियमित रूपसे चेक अप कराने ले जाया करती, या, कई बार वो घर पे आ जाया करते।

जबतक घर पोहोंची, अम्ब्युलंस हमारे फॅमिली डॉक्टर के साथ हाज़िर थी..... बीजीको लेके मै अस्पताल पोहोंच गयी। मुझे आजतक समयका भान नही....कब उनका x-ray लिया...कब डॉक्टर ने अपना निदान बताया...मेरे पतीको कब और किसने ख़बर की...वो उसी रात आ गए या अगले दिन.....?

हाँ ! निदान याद है," उनकी हिप बोन टूट गयी है....हड्डी टूटने के कारण वो गिरीं....गिरनेके कारण हड्डी नहीं टूटी....लेकिन वो बिना अपनी लकडी या किसीका सहारा लिए, तेज़ी से चलीं हैं.....इतना आपका अर्दली मुझे बता चुका है....उन्हें घूमने जानेकी जल्दी थी....आपके घर लौटनेसे पहले वे घूमना चाह रहीँ थीं...अर्द्लीको उन्हों ने बर्फ का ठंडा पानी लाने भेजा...लेकिन उन्हों ने उसके लौटनेका इंतज़ार नही किया....अपने कमरेसे उसे आवाज़ें लगा, अकेलीही आगे बढ़ गयीं और गिर गयीं..."

मै इस बातको नकार भी नही सकती थी...नाही किसी अर्दलीपे नाराज़ हो सकती थी....सभी बेहद भरोसेमंद थे...और बीजी ख़ुद ये बात स्वीकार कर चुकी थीं... मेरे बच्चे भी घरपे थे.....बेटीने उन्हें गिरते समय देखा था....वो उनके पास दौड़ी तबतक देर हो चुकी थी....

मेरे आगे दो पर्याय रखे गए," सर्जरी के बिना हिप बोन जोड़ नही सकते......सर्जरी मे क्या यश मिलेगा येभी नही कह सकते....सर्जरी नही की, तो, वे कभी चल नही पाएँगी...उन्हें बेड सोर्स हो जायेंगे...तथा ज़ख्म ठीक ना होनेके कारण अन्य कई complications ...आप निर्णय ले सकती हैं?"

मनमे आया....हे ईश्वर ! येभी कोई पर्याय हैं???मै डॉक्टर से क्या कहूँ?? मैंने असहाय चेहरेसे कमरेमे इकट्ठे हुए अन्य डॉक्टर मित्रों तथा, मेरी दो तीन सहेलियों की ओर देखा.....कमरेमे पूर्ण स्तब्धता थी.....एक तरफ़ कुआँ दूसरी ओर खाई....मैंने क्या तय करना चाहिए...? मेरे पती होते तो क्या तय करते???

लेकिन मुझे तय करनेकी ज़रूरत नही पड़ीं....ख़ुद डॉक्टर ने कह दिया," मै आपकी समस्या समझ सकता हूँ.....आपके पती को ख़बर भेज दी गयी है..लेकिन मेरी सलाह होगी, सर्जरी बेहतर पर्याय है..."

मैंने केवल गर्दन हिला दी...मेरे हाथमे बीजीका हाथ था, जो उन्हों ने कसके पकडा हुआ था...याद आ रहा है, कि, मैंने उनसे पूछा,' बीजी, मै दो मिनिट मे बाथरूम हो आऊँ??"
उन्हों ने औरभी कसके हाथ थाम लिया और कहा ," नही...तुम मुझे एक पलके लिएभी मत छोड़ना....मेरा बेटा हो ना हो, तुम नही हिलोगी....मुझे और किसीपे विश्वास नही..."

सुननेवाले किंचित हैरान हो गए, क्योंकि बीजीका मिज़ाज जानते थे....लेकिन विमला और उसके पती केवल मुस्कुरा दिए.......उनके चेहरेपे एक विलक्षण शांती थी....विमलाने केवल इशारा किया....जैसे कह रही हैं.......वही सत्य है....

मुझे याद नही पड़ रहा,कि ,मै बाथरूम कब गयी....जब गयी तब बीजीका हाथ किसने थामा...?
मुझे आज याद नही, कि, मेरे पती कब पोहोंचे.....दूसरे दिन सुबह??उसी रात?? शायद उन्हें पूछ लूँ तो बता देंगे...पर क्या फ़र्क़ पड़ता है ?

मुम्बई से एक बेहतरीन सर्जन, जो इत्तेफाक़न, भारत आए हुए थे( थे तो वो भारतीय ही), अपने साथ लेते आए....जहाँ हम थे, वो महानगर नही था....उसका ये एक फायदा था.... अस्पताल से जुड़े ना होते हुए भी , उस अस्थी तज्ञ को, उस अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर मे, सर्जरी करनेकी इजाज़त मिल गयी.....सर्जरी शुरू हो गयी...अव्वल तो मै घंटों बाहर खडी रही...फिर एक सहेलीने ज़बरदस्ती की, के, कुछ देर मै घर चली जाऊँ......

वो बीजी को दाखिल किए दूसरा दिन था??या तीसरा ? वो कब हुआ जब मै उनके पलंग के पास खडी जारोज़ार रो रही थी...? जब किसीने मुझे धाडस बँधाया था...? कोई उनके मूहमे जूस डाल रहा था??

मै घर तो गयी, लेकिन कितनी देरके लिए...? मुझे कब वो ख़बर मिली कि वो नही रहीँ??के अत्याधिक रक्त स्त्राव होनेके कारण उनकी मृत्यु ओपरेशन टेबल पेही हो गयी??खूनकी अनगिनत बोतलें चढीं ,लेकिन मधुमेह्के कारण रक्त स्त्राव रुकाही नही??के देखनेवालों ने कहा, सर्जरी तो अप्रतीम हुई...गज़ब हाथ था उस इंग्लॅण्ड से आए सर्जन का...लेकिन क़िस्मत देखो....!

उनका अंत्य विधी उसी शाम हो गया?? या दूसरे दिन?? दूसरेही दिन...क्योंकि माँ, पिताजी तथा हमारे अन्य कुछ रिश्तेदार पधार गए थे....?नही याद आ रहा.... मुझे तो येभी नही याद रहा कि बच्चे भी घरमे हैं....या थे....इस वक़्त लिख रही हूँ तो याद आ रहा है कि बच्चे तो घरमेही थे....बिटिया ९ वी क्लास मे और बेटा ७ वी क्लास मे....

क्रमश:

Monday, January 25, 2010

जिन्हें नाज़ है हिंद पे...!

(Ye lekh 26/11 ke hamle ke pashchyat likha tha)
पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे डाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !
अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?

कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री। धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नॅशनल पोलिस कमिशन के तेहेत, कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-।भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे... यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके ज़िम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!

इन में से कई लोगों का हमारे घर, एक परिवार की तरह आना जाना लगा रहा करता... एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।

रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...

सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....

Tuesday, January 12, 2010

माँ ! प्यारी माँ ! ६

"अम्मा ! आप कुछ देर बाहर गयीं हैं, तो मैंने आगे लिखने का मौक़ा हथिया लिया...! जानती हूँ, आपके घरमे रहते मै, नेट पे बैठ जाती हूँ, तो आपको बड़ा घुस्सा आता है...!

"कुछ रोज़ पूर्व, चंद अल्फाज़ लिखे थे....शायद हर बेटी को यही महसूस होता हो...या फिर जिन बेटियों को ये महसूस होता है, उनकी माँ उस क़ाबिल होती हो!

"मिलेगी कोई गोद यूँ,
जहाँ सर रख लूँ?
माँ! मै थक गयी हूँ!
कहाँ सर रख दूँ?

तीनो जहाँ ना चाहूँ..
रहूँ, तो रहूँ,
बन भिकारन रहूँ...
तेरीही गोद चाहूँ...

ना छुडाना हाथ यूँ,
तुझबिन क्या करुँ?
अभी एक क़दम भी
चल ना पायी हूँ !

दर बदर भटकी है तू,
मै खूब जानती हूँ,
तेरी भी खोयी राहेँ,
पर मेरी तो रहनुमा तू!

"अम्मा ! आपके इतिहास की पुनुराव्रुत्ती मेरे साथ हुई...हम दोनों ने जब कभी, किसी औरको सहारा देके उठाना चाहा, उसने हम ही को गिराया...वो उठा या नही, ये नही पता...लेकिन हम ज़रूर आहत हुए....बार, बार जीवन ने हमारे संग ये खेल खेला...आज तक नही समझ सकी, कि, दो समांतर रेषायों की भाँती हमारी ज़िंदगी कैसे चली??

"कैसे, कैसे दर्द समेटे हम दोनों चलते रहे...रहगुज़र करते रहे...?सिलसिला है,कि, थमता नही....दोनों के जीवन में बेशुमार ग़लत फेहमियाँ शामिल रहीं...एक से निपट लेते तो दूसरी हाज़िर...! ये कैसे इत्तेफ़ाक़ रहे?

"बोहोत कुछ लिखना चाह रही हूँ..लेकिन, सारी उम्र कम पड़ सकती है...और किस उम्र की बात करूँ?? आपकी अनगिनत यादें लिख चुकी हूँ...फिरभी लगता है, अभी तो कुछ नही कहा...! कुछ भी नही! ये समापन किश्त है, या और सफर बाक़ी है, मेरे लेखन का...आपके लिए...??गर होगा तो, उसे कुछ अन्य नाम दे दूँगी...शुक्र गुज़ार हूँ, अम्मा आपकी, के मुझे ऐसा अनुभव आपके रहते मिला...के ऐसी माँ मिली...आपसे होके जो राह गुज़री, उसमे शामिल हर ममता को नमन....हर ममता को सलाम !"

समाप्त ।

Thursday, January 7, 2010

माँ! प्यारी माँ ! ५

"अम्मा! कल शामको आपसे बात हुई...बड़ा ही उदास-सा महसूस हो रहा था...अपने पलंग पे बैठे, बैठे, एक किताब के पन्ने, उलट पुलट करती रही...

रेडियो चल रहा था..'छाया गीत"...उसपे वही गीत बजा, जिसे मै अपनी बेटीकी बिदाई के समय बजाना चाह रही थी...ये दुआएँ उसके लिए कई बार कर चुकी थी,लेकिन बजा ना सकी...जब मै अपने नैहर से बिदा हुई, तो लगा, मेरे सारे अपनों के दिलसे वही दुआ निकल रही है मेरे लिए...'बाबुल की दुआएँ लेती जा , जा तुझको सुखी संसार मिले, मैके की कभी ना याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले...!'

"रफी ने इसे रो रोके गाया था...संगीत निर्देशक इस गानेको धनिमुद्रित कर रहे थे, तो गाते समय, रफी साहब सिसक,सिसक के रोने लगे.....उनसे पूछा गया, कि वे क्यों रोने लगे?
उन्हों ने कहा,'हालही में मेरी बेटीकी मँगनी हुई है...सोचने लगा,कि, वो चली जायेगी, तो मुझे कैसा लगेगा??....यही सारी दुआएँ मेरे मनसे निकलेंगी...'
सगीत दिग्दर्शक ने उनसे कहा, 'आप इसी तरह गा लीजिये...गीत ऐसेही ध्वनि मुद्रित होगा...!'
और वो गीत रफी साहबने सचमे रो, रो के गाया है!!

"अम्मा ! मुझे नही पता, कि, आपने इस गीतको कभी गौरसे सुना या नही...अबकी आओगी तो ज़रूर सुनाऊँगी.....
क्या गज़ब गाया है..सचमे अपनी बेटीके लिए उसके प्रिय जनों के मनमे यही सब आता होगा...और अब जाना, जब मेरी बिटिया ब्याही गयी.......मेरे मनमे भी यही सब आया..."मेरे बाग़ की अए नाज़ुक डाली !तुझे हरपल नयी बहार मिले...!"

"मै सारा गीत यहाँ लिख सकती हूँ,ऐसे भावपूर्ण अल्फाज़ हैं, और उन्हीँ भावों को समेटे गाया गया है....
आप अपने घरसे बिदा हुईं तब आपके अपनों के मनमे भी यही सब आया होगा...'काँटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओं में ........'... हैना?
जानती हूँ, कि, आपके सारी उम्र काटों पे चलके कटी.....आपने, खासकर आपके साथ,साथ, दादा-दादी अम्माने, मेरे लिए ऐसीही दुआएँ माँगी...जानती हूँ...फिरभी मेरा सफर काँटों की राहों से गुजरा....के राह मैंने ख़ुद चुनी थी...आपके लिए तो चुनी गयी थी....

"आप अपने खानदाँ की सबसे सुंदर हुनरमंद बेटी थीं...फिरभी राहोंमे फूल बिखरें हो...मुझे तो नज़र नही आए...अफ़सोस के ऐसी दुआ आपको लगी नही...नानी अम्मा को कितना दुःख होता होगा हैना? जानती हूँ, समझ सकती हूँ, मुझे देख आपको कितना दुःख होता रहा ..मैंने देखा है....

"चश्मे-बद-दूर...! शायद आपकी नवासी को ये दुआ लगी....या वो अधिक परिपक्व और संजीदा निकली...जोभी हो...ईश्वर उसे वो सब दे, जिसकी वो हक़दार है...
"अम्मा ! सारी उम्र भी आपके बारेमे लिखने के लिए कम है....हर रोज़ कुछ ना कुछ याद आताही है...आज आपकी बेटी, अपनी माँ के स्वास्थ्य के लिए दुआएँ माँग रही है.....कमसे कम आपको दर्द और तकलीफ तो ना हो...क्या ऊपरवाला मेरी इतनी दुआ सुनेगा?"