Tuesday, May 26, 2009

मात्रु दिवस...१

Saturday, May 9, 2009

कई बार ऐसी यादें घिर आती हैं अतीतके गर्दिशमेसे उभरके...के बेसाख्ता बह निकलती हूँ...
येभी नही समझमे आता कि किस क्रममे लिखूँ..इस्तरह्से एक बाढ़ आती है....
शायद जो क़रीबका अतीत होता है,वो ज्यादा छलता है...
इसीपे एक मालिका शुरू करने जा रही हूँ..जहाँ एक मुक्तीधारा बेहेने दूँगी..अनिर्बंधित...लेकिन, साफ़ इतनी के जिसकी गहरायीका एहसास ना हो...पूरी पारदर्शक....लेकिन सिर्फ़ अपनेआपको कुरेदूँगी.....किसी औरको नही...के ज़िंदगी ने समझाया, वो मेरा अधिकार नही...


सुनती आयी हूँ, मात्रु दिवस के बारेमे, पिछ्ले कुछ सालोंसे....
मेरी अपनी बेटीके जनम दिवस के पासही होता है..बल्कि,उसी दिन....
जिस दिन वो जन्मी, एक माँ जन्मी....इसलिए हम दोनोका जन्म दिन तो एकही दिन होना चाहिए...
शायद मेरी माँ और मेरा जनम दिन भी एकही दिन होना चाहिए..कि मैही उनकी पहली औलाद थी...


उस दिन वो, मेरी लाडली, मुझे कितना याद करती है, करतीभी है या नही, मुझे नही मालूम...
हाँ, मुझे ज़रूर याद आती है...दिल करता है उसे पूछूँ ," क्या मैभी तुझे याद आती हूँ, मेरी बिटिया? या तेरी ज़िंदगी की तेज़ रफ़्तार तुझे इतनी मोहलत ही नही देती....ना देती हो तो, शिकायत भी नही..
तेरा जन्मदिवस तो मै भूलही नही सकती...कि एक माँ का उस दिन जन्म हुआ था..मातृत्व क्या होता है,इसका एहसास हुआ था...
बोहोत कुछ बताने कहनेका मन है तुझे...लेकिन डर भी जाती हूँ...अब तू बड़ी हो गयी है...शायद मुझसे अधिक सयानी....


बचपनको याद करती हूँ तेरे..तो अनायास आँखें भरही आती हैं...बोहोत तेज़ीसे फिसल गया मेरे हाथोंसे..मेरी बाहोंसे...अपनी बाहों में तो तुझे ठीकसे भरभी नही पाई..ये ज़िंदगी की ज़ंजीरे थीं, जो मेरे हाथ बाँधे हुई थीं..लेकिन मनकी अतृप्त इच्छाएँ, कभी तो अपने खूने जिगरसे, अपने जिगरके तुकडेके नाम ज़रूर लिखूँगी....
लिखूँगी, के, तेरे साथ क्या, क्या खेल रचाना चाहती थी...तेरे साथ खेलके तुझे खिलखिलाना चाहती थी..और चुपचाप अपने आँचल से अपने आँसू पोंछ लेना चाहती थी..

गुड्डे गुड्डी के ब्याह रचाना चाहती थी...झूट मूटकी शादी...झूट मूट की बिदाई...झूट मूट की दावतें...झूट मूट के खाने, वो निवाले,जो तू मुझे खिलती, और पूछती," माँ, अच्छा लगा?"
मै गर कहती,"हाँ, बोहोत अच्छा लगा,"तो तू झट कहती,
"तो लो मुँह खोलो, और खाओ",...फिर एक झूठ मूट का कौर...
हूँ...ये खेल तो खेलेही नही गए...और अब क्या खेलेंगे?

क्रमश:

1 comments:

ललितमोहन त्रिवेदी, May 10, 2009 7:50 AM

शमा जी ,मेरे गीत पर आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !आपके आलेख ध्यान से पढ़ रहा हूँ और चमत्कृत होता जा रहा हूँ ! माँ ,बेटी ,दादा के परम आत्मीय संस्मरणों से लेकर police reforms जैसे जटिल विषय पर कलम चलाना इतना आसान तो नहीं होता परन्तु आपने इसका निर्वाह बहुत ही कुशलता से किया है और आप निश्चय ही इसके लिए प्रशंसा की पात्र हैं ! मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकारें !

मात्रु दिवस २

Sunday, May 10, 2009

मात्रु दिवस २

" बिटिया...तुझसे रोज़ एक मूक-सा सँवाद करती रहती हूँ...ये पहली बार नही ,कि, इसके बारेमे मैंने बताया हो...पर तूने नही सुना....दुनियाने सुना पर तेरे कानोंतक नही पोहोंचा...या पोहोंचाभी, तो उसमेके भाव तेरे दिलतक नही उतरे...

मुझे हर माँ ने बताया,कि, जबतक एक औरत माँ नही बनती, वो अपनी माँ के दिलके भाव नही समझ सकती... तू माँ नही बनना चाहती...शायद तेरे बचपनके एहसास हैं, या कि अन्य अनुभव, तुझे बच्चों से मानो चिढ-सी है...ना वो ज़िम्मेदारी तुझे चाहिए, नाही उसके साथ आनेवाले बंधन...जबभी घरमे बच्चे आते हैं...और उस वक़्त तू वहाँ मौजूद होती है...चाहे वो किसीकाभी घर क्यों न हो, तू अपने बच्चे ना होनेकी खैर मानती है...और अब तुझे कुछभी सलाह मशवेरा देनेका अधिकार मुझे नही है...

वो ज़माने बीत गए जब माँ अपनी औलाद्को चंद मामलोंमे अच्छा बुरा बता सकती थी....हाँ, हैं, आजभी ऐसी खुशकिस्मत माएँ, जिनके पास बेटियाँ जाती हैं, जब दुनियासे कुछ पल अपने माँ के आँचल में पनाह चाहती हैं......
तेरे ब्याह्के बादका एकभी दिन मुझे याद नही, जब तूने खुलके मुझे गले लगाया हो.....या लगाने दिया हो....

और जब तू चाहती थी, तेरे लड़कपन के दिनोंमे ...हर रात सोनेसे पूर्व तू ज़िद करके मेरे गले लगने आती...और चाहती कि मै तेरे दोनों गाल चूम लूँ...मै चूमभी लेती...लेकिन अन्य परिवारकी निगाहेँ मुझपे टिकी रहतीं.....जैसे मै कोई बड़ा अपराध करने जा रही हूँ...लड़कियोंको इतना ज़्यादा अपनेसे चिपकाके रखना नही चाहिए...ये बात मेरे ज़ेहेन्मे दबे सुरमे सुनायी देती ...एक अपराध बोध के तले मै झट तुझसे दूर हो जाती...मेरे ससुरालमे तू तीसरी कन्या थी....

"तुम तो ऐसे बर्ताव करती हो,कि, दुनियाकी पहली माँ हो,"...ये अल्फाज़ अनंत बार मैंने सुने...कभी कहनेका साहस नही हुआ, कि, कह दूँ, मै दुनियाकी पहली माँ ना सही, मै तो इस दुनियामे पहली बार माँ बनी हूँ....क्या यही काफी नही था,कि, मै तेरा जन्म एक उत्सव के तरह मना पाऊँ?उत्सव की परिभाषा भी कितनी-सी? तुझे हँस खेल नेहला लूँ....चंद पल तेरे साथ कुछ छोटे खेल खेलके बिताऊँ.........देख रही थी,कि, समय कितना तेज़ीसे फिसलता जा रहा है...पर... .इसी "पर" पे आके रुक जाना पड़ जाता.....

मेरे बच्चे...मै अपनेआपको कितना असहाय महसूस करती कि क्या बताऊँ.....? उस अपराधबोध को बिसराने...उस असहायताको भुलाने, मै ना जाने और कितने कलात्मक कामोंमे लगा लेती अपनेआपको.....लेकिन वो पर्याय तो नही था...

मेरे पीहरमे तेरे जनमका उत्सव ज़रूर मना...तू मेरे दादा-दादा-दादीकी पहली परपोती थी...सबसे अधिक प्यार तुझे मेरे नैहरमे मिला...मै उसके लिए जिंदगीसे शुक्रगुजार हूँ...मेरी दादी तुझपे वारी न्यारी जाती.....तेरी नानी, तेरी हर कठिन बीमारीमे दौडी चली आती....

लेकिन क्या उस प्यारने तुझे कहीँ ऐसा महसूस करा दिया कि, उसके बदले तुझसे उम्मीदें रखी जाएँगी? लाडली ऐसा कुछभी नही था...लेकिन, तेरी मनोदशा पिछले चंद सालोंसे कुछ अजीब-सी बनाती चली गयी...एक विद्रोही...मै नही तो और कौन समझेगा, तुझे मिले सदमोंका असर? लेकिन मैभी अपनी मर्यादायों को समझती थी.....चक्कीके दो पाटोंमे तूभी पीसी मैभी पीसी....

जो अल्फाज़ मेरे कानोंने सुने, जो एक तेज़ाब की तरह मेरे कनोंमे उतरे और दिल जलाके पैवस्त हो गए....." माँ ! तुमने पैदा होतेही मेरा गला क्यों ना घोंट दिया.....मैंने नही कहा था, मुझे इस दुनियामे लाओ..."

तुझे गले लगानेकी कोशिश की, लेकिन तूने एक झटके से मुझे परे कर दिया, अपनी पलकोंपे आँसू तोलती मै कमरेके बाहर जाने लगी तो तूने खींचके फिर बुलाया," नही जाने दूँगी बाहर ...मेरी बात सुनके जाओ...जवाब देके जाओ....

"बेटे इस वक़्त मुझे माफ़ कर ..तेरी गुनहगार तो हूँ, लेकिन इतनी नही कि, अपनी सबसे प्यारी, फूल-सी नाज़ुक-सी नन्हीका गला घोट दती...? उसके पहेले मै ना मर जाती? तेरी एक हलकी-सी चुलबुला हट से मेरे सीनेमे दूध उतर आता....तू कुछ दूरीपे होती और तेरी आवाज़, जिसमे भूख होती, मेरे सीनेमे दूध उतार देती.........एक अविरल धारा जो तेरे होटोको छूती और मुझे तृप्त कर जाती....क्या ये माँ और उसकी औलाद्का कुदरत ने बनाया एक अटूट ,विलक्षण बंधन नही?"

मै इतना लम्बा तो नही बोल पाई...."बस, मुझे एकबार माफ़ कर ...." इतनेही अल्फाज़ बडीही मुश्किलसे कह पायी...लेकिन बरसों दबी एक विलक्षण अभिमान और खुशीकी याद, एक टीस बनके सीनेमे उभर आयी......
वो यादगार मुझे मेरी दादी तथा दादाने सुनायी थी...

मेरे जनमकी जब उन्हें डाकिये ने ख़बर दी...( मेरा जन्म मेरे नानिहालमे हुआ था), तो उस ज़मानेमे, तकरीबन अर्धशतक से अधिक पहेले, सेहेरपे निकले मेरे दादा-दादीने डाकिये को २५ रुपये थमाए...उसकी प्रतिक्रया हुई," समझ गया ...आपको पोता हुआ...."

मेरे दादा बोले," अरे पागल, तू क्या समझेगा कि हम एक लड़कीके लिए कितना तरस रहे थे...इसका जोभी नाम रखा जाएगा, उसके पहेले "लक्ष्मी " ज़रूर जुडेगा ...ये तो पैदाभी लक्ष्मी पू़जन के दिन हुई है...और वो नाम जुडाभी...

वो बात मुझे उस वक़्त ऐसे शिद्दत से याद आ गयी...लगा गर , मेरे जनम के दिन मेरी माता मेरा गला घोंट देतीं , तो मुझे ये अल्फाज़ तो सुनने नही पड़ते...और ग़म तो इस बातकाभी नही था...वो महिला दिवस था..उसके ठीक एक साल पहेले एक समारोहमे मैंने एक बडीही फूर्तीली कविता, तभी तभी रचके सुनाई थी...

आज लगा, कहीँ किसी दूसरी दुनियासे , मेरे दादा-दादी, गर अपनी इतनी लाडली पोतीको, अपनीही निहायत लाडली परपोतीके मुहसे निकले या अल्फाज़ सुन रहे होंगे, तो उनके कलेजे ज़रूर फट गए होंगे.....ये कैसी विडम्बना की मेरी जिन्दगीने मेरे साथ....पर जैसे मै अपनी फूलसी बेटीका गला घोंटना क्या, उसपे गर्दन पे बैठी, मख्ही भी बर्दाश्त नही कर सकती, तो क्या मेरी माँ, ऐसा ज़ालिम काम कर सकती ?

ना जाने ये कथा किसकी और व्यथा कौन भुगत रहा...नही पताके उसके कहे इन अल्फाजोंकी गूँज कितने दिन मेरे कानोंमे गूँजती रहेगी...ना जाने मेरी बिटिया,तू इन्हें भुलायेगी, या इसी शिकायत के साथ ताउम्र तड़पेगी?और शिकायतों में कमी नही, इज़ाफा करती रहेगी? ना, मेरे बच्चे ,मत तड़प तू इतना...तेरी माँ इतनीभी गुनेहगार नही...हालातकी मारी सही....
मै क्या करूँ,कि, तू चैन पाये....?अपनी दुनियाँ तुझपे वार देनेके लिए तैयार हूँ...तू गर स्वीकारे.....गर तुझे वो चैन दे...
बता मेरे बच्चे, मेरे सपनेमे आके बता, के सामने तो तू नही बताएगी...के मै क्या करूँ? मै ऐसे बोझको लेके कैसे शांतीसे मर पाऊँगी?

क्या अबके मिलेगी तो बिछड़ने से पहले एकबार मुझे कसके गला लेगी?"

क्रमश:

2 comments:

ललितमोहन त्रिवेदी, May 11, 2009 11:21 AM

शमा जी , आप कलेजा उडेल देती हैं रचना में ! अंतर की हूक और पीडा की ऐसी मर्मान्तक अभिव्यक्ति कहाँ से लाती हैं आप !
बहुत भावपूर्ण लिखा है आपने .........अस्तु, मेरे गीत 'चितवन'पर आपकी टिप्पणी से अभिभूत हूँ मैं और आभारी भी ,इच्छा तो मेरी भी है की कोई इसे संगीत में पिरो गाके सुना सके !आप ज़हीन हैं और एक अच्छी इन्सान भी !आतंक विषय पर फिल्म बनाने केआपके विचार की बहुत कद्र करता हूँ मैं !अर्थ के लिए पागल इस भीड़ में यदि कोई व्यक्ति कभी सही और हटकर दिखाई देता है तो लोग उसे बेवकूफ समझते हैं ,ऐसी बेवकूफी को धन्य समझता हूँ मैं ,परन्तु उद्देश्य सही हो तो अर्थार्जन भी बुरा नहीं है वशर्ते "अर्थपूर्णता "से समझौता न करना पड़े ! मेरा झुकाव भी नाटक और फिल्मों के प्रति स्वभावतः ही रहा है ,इसी क्रम में कई गीत नाटिकाएँ लिखीं और मंचित भी की हैं !आज आपका कहानी ब्लॉग देखूंगा !आपका ईमेल तो है नहीं लिहाज़ा अपना पोस्टल एड्रेस यहीं दे रहा हूँ !
....ललित मोहन त्रिवेदी
LIG-९६३ दर्पण कालोनी ,ठाठीपुर -ग्वालियर (म.प्र.) email -lmtri.02@gmail.com

hitaspad, May 13, 2009 8:06 PM

antartam man kee ghaneebhuti abhivyakti !

मात्रु दिवस ३

Tuesday, May 12, 2009

बिटिया आज तेरा जनमदिन...आज एक माँ का भी जनमदिन...के तूने मुझे माँ बनाया...

बनारसकी चिलचिलाती दोपहरी....सिज़ेरिअन सेक्शन से तेरा जनम होगा ये तय कर लिया गया था..मेरी मानसिक हालत और तेरे पैर आगे देख, यही वैद्यक शास्त्र की दृष्टीसे सही था..
मेरे होमिओपथ ने काफी कोशिश की ये सर्जरी टल जाय...दवाई देके तेरा सर घुमानेकी ...ये तो खैर पता तो नही था कि, लड़का है या लडकी....लेकिन मुझे कोई फर्क नही पड़नेवाला था...हाँ, मेरे ससुरालवालों को पड़नेवाला था...और पडाभी.....तेरे आगमन की ख़बर तेरे पिताने एक बडेही अपराध बोधसे ,तेरी दादीको सुनाई......और मेरा मन छलनी,छलनी हो गया...किसीने उन्हें बता रखा था, की, मुझे २ लड़केही होंगे...

मुझे याद, OT में तेरी "तैय्या"को अन्दर नही आने दिया तो मैंने कितना उधम मचा दिया था...एक डॉक्टर और मेरी शुभ चिन्तक की हैसियत से मेरा सिर्फ़ मेरी उस जेठानीपे ही विश्वास रहा था...मुझे, शायद, बहलाए रखनेके लिए, भरोसा दिया गया था,कि, भाभी को OT में आने दिया जायेगा...
पता चला कि, मेरी डॉक्टर को तो ऐतराज़ नही था..लेकिन अनेस्थीशिया देनेवाले डॉक्टर की मर्जी नही थी...मुझे ज़बरदस्ती पकड़ रखा गया और बेहोशीकी दवा सुंघाई गयी...पता नही मैंने कितनी देर साँस रोके राखी थी...
जब होश आया तो मै OT के बाहर थी...

वो ward,जहाँ मुझे रखा जानेवाला था, दूसरी इमारतमे था...तुझे तो बिना किसी आवरण केही मेरी माँ के हाथ पकड़ा दिया गया था...उन्होंने एक आयासे उसका एप्रन माँगा...!
दोपेहेरकी, बनारसकी गरमी...१ बजके २० मिनट पे तेरा जन्म...२ बजेके करीब, मुझे दूसरी इमारत में ले जाना था..अजीब आवाज़ें मेरे कानोंमे आ रही थीं.."इस बिल्डिंग से उस बिल्डिंग में हम स्ट्रेचर नही देते...आपको वहाँ से मँगवाना होगा.."
भाभी बरस पड़ीं," अरे तो क्या इस औरत को चलाके भेजोगे? वो भी नही दे रहे स्ट्रेचर...! और सिज़ेरिअन का बच्चा तो इतना नाज़ुक समझा जाता है...उसकी तो किसीको चिंताही नही..."

खैर..इतना याद है,कि, मुझे दो बार एक स्ट्रेचर परसे दूसरेपे डाला गया..मतलब उस बिल्डिंग से OT की बिल्डिंग के बीछ, एक स्ट्रेचर आया ..वहाँसे मुझे उसपे शिफ्ट किया गया...ये सब बादमे पता चला...

और दिनों डॉक्टरों की स्ट्राईक चल रही थी...उनका कहना था,कि, गर प्राइवेट ward के मरीज़ों से अधिक पैसे लिए जाते हैं, तो डॉक्टर्स कोभी उसी मुताबिक तनख्वाह या मेहताना मिलना चाहिए...
दूसरी ओर १२ से १५ घंटे बिजलीका गुल होना साधारण बात थी...और मुझे जिस पलंग पे रखा गया उसको सटके एक टीबी की मरीज़ थी..ये तो भाभीकी आदत थी ,कि, वो अन्य मरीज़ोंके बारेमे अपनी जानकारी रखतीं..गर वो ना होती तो किसकी सुनवाई नही होती..!

इसके पूर्व मुझे जो जगह दी गयी,थी वो एक छोटा -सा अलग ward था...भाभी ने पूछताछ की," यहाँ पहले कौन था?"
एक नर्स ने बताया," यहाँ एक सेप्टिक का मरीज़ था...कुछ घंटों पूर्व उसकी मौत हो ......"
भाभी तकरीबन चींख पडी," अरे ये क्या बकवासबाज़ी लगा रखी है..! इस मरीज़ कोभी मार देना है क्या? इससे तो जनरल ward ठीक है..हमें क्या पता था,कि, यहाँ इतनी अंधेर नगरी है....! इस अस्पताल के management की तो मत मारी गयी है..सिज़ेरियन का बच्चा तो वैसेही इतना नाज़ुक होता है..और बच्चों के बनिस्बत उसमे प्रतिकारशक्ती कम होती है...और यहाँ तो सीधे सेप्टिक ward में उसे रखा जा रहा है...इसे disinfect भी किया था के नही.....? या ऐसेही सीधे अगले मरीज़ को घुसा दिया....?"
नर्सने कुछ कहनेसे मनाही कर दिया..ज़ाहिर था...कमरेको sterilize नही किया था...!
ये अंधेर नगरी ही थी....!!!

आज मुड के देखती हूँ, तो लगता है, गर भाभी,( जिन्हें तू बादमे, तैय्या कहने लगी, क्योंकि, ताईजी बोलना नही आता था), और मेरी माँ नही होती, मेरे साथ, तो शायद तू मेरे हाथ नही लगती...
माँ तो अपना घरबार छोड़ मेरे पास महीनों आके रुकही गयीं थीं...पहले ३ गर्भपातका इतिहास था...और भाभीभी अपने ८/९ सालके बच्चे को छोड़ लगातार मेरे पास दौडे चली आतीं...वो दिल्लीमे कार्यरत थीं...और उनकी पेड़ छुट्टी ख़त्म हो गयी तो उन्होंने बिना तनख्वाह छुट्टी ले ली थी....नही पता कि हमारे किन जन्मोंके रिश्ते थे...जो वो निभा रही थीं...

देखा जाय तो तेरी तैय्या, मेरी सासकी सौतेली बेहेनकी बहु थीं...लेकिन हमारे परिवारमे मै उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी..उन्होंने वैसेतो हमारे घरके हर व्यक्तीके लिए बड़े कष्ट उठाये,लेकिन, उनपे इल्ज़ाम ज़रूर धरा गया कि, मै अधिक लाडली हूँ...प्यार नाप तौलके तो किया नही जाता...अपने फ़र्ज़ तो वो हमेशा बेक़ायदी से निभाती रहीं...
इसी बातपरसे एक बात याद गयी तो वो बताते चलती हूँ....

हम तब दिल्लीमेही थे...मेरे ब्याह को शायद एकही साल हुआ था...हम एशिया हाउस जहाँ भाभी रहती थीं, वो जगह छोड़ बंगाली मार्केट के इलाकेके टोडरमल squaire में शिफ्ट हो गए...यहाँ दो कमरे अधिक थे....
एक दिन तेरे पिताकी रातमे अचानक से तबियत बिगड़ी....भाभीका फोन लग नही रहा था...हम सभी परेशान थे , कि de- hydration ना हो जाय....इन्हें क़ै और मतली हुई जा रही थी..साथ,साथ दस्तभी.....कार तो मैभी चला सकती...के जाके भाभीको ले आऊँ...पर उस दौरान इन्हें कौन देखता? और अव्वल तो मेरे ससुराल का मेरी driving पे भरोसा नही था....!

मै ट्राफिक के नियमों नुसार गाडी चलाती...और दिल्लीमे ऐसा कोई चलन नही था...!
सभीको लगता गर,मै रेड सिग्नल पे रुक गयी, इशारा देकेभी, कोई ना कोई पीछेसे आके धड़क लेगा...गाली गलौच अलग होगी सो होगी...!मेरा क्या नुकसान होगा, इसकी परवाह तो नही थी, लेकिन कार को कुछ होता है,तो नुकसान उठाना पडेगा...ये डर!!

इसमे फैसला हुआ, दिनेश भैया को प्रचारण कर, हालत बताके,उन्हें अपनी byke पे एशिया हाउस भेजा जाय और,उनके पीछे बैठ भाभी आ जायें !
अब भाभीने इनके दोस्त दिनेश को, तो देखाही नही था!
दिनेश अपना परिचय जताते हुए, भाभीके घर पोहोंचा.....भाभीका फो बंद होनेके कारण हम तो इत्तेला देही नही सके थे....मैंने भाभीको एक छोटी -सी चिट्ठी लिख दी...बस वही एक प्रमाण....रातके २ बज चुके थे...दिल्ली शेहेरकी ख्याती तो सब जानतेही थे...मुम्बई में एक अकेली लडकी/औरत, बेझिझक टैक्सी पकड़, अपनी निर्धारित जगह जा सकती थी...लेकिन यहाँ?

भाभी हिम्मतवाली...उनसे बढ़के उनके पती काभी उनपे विश्वास...!
चली आयीं...दिनेशके पीछे सवार हो..लेकिन उतरी तो दखा, एक हाथमे चप्पल पकड़ रखी थी...!
कहने लगीँ," हमने सोच लिया था,कि, गर ये ज़राभी रास्ता बदलता तो मै उसे चप्पल जूती जो हाथ लग जाता, जमके पिटाई तो करही देती.....चलो...... भाई दिनेश , अब तू तो हमें माफ़ करही दे....मै तो हूँही ऐसी...!"

दिनेशने अपनी खैर मनायी......!उसकी ज़रा-सी गलती, और सिरपे जूती...!लेकिन भाभीकी हिम्मतका कायल हो गया........!प्रेमा भाभीका नाम सुनतेही,वो कहता है," हाँ...चप्पलवाली भाभी.....! उन्हें कैसे भूल सकता हूँ??सिर्फ़ सिरपे क्या, क्या पड़ता, वो बात छोडो, भाभी तो उन्हें पटकी खिला देतीं और दिनेश अपना ठीकसे बचाव भी नही कर पाता, ये जानते हुए,कि, भाभी किसकी हैं?

पतीको तो वो फिर एक रातके लिए भरती करवाकेही आयीं...
आज मेरे मनमे सवाल उठता है...भाभीकी हिम्मतकी सभीने तारीफ़ की...आजतक करते हैं....गर ये बात मुझे करनी पड़ती तो क्या मुझे इसतरह से जाने दिया होता? नही...ये दोहरी प्रतिक्रया है...मै चाहे कितनीही भले कामके लिए हल्का-सा खतरा मोल लूँ..तो उफ़! इतनी जवाबदेही..!

तो ऐसी तैय्या तेरे पास मौजूद थीं....मेरे पास मौजूद थीं ... जैसे फ़रिश्ता कोई हमारी रक्षा कर रहा हो....
काफी विषयांतर हो गया..लेकिन असलमे ये विषयांतर नही..ये व्यक्ति चित्रण है...

तो लौटी हूँ, उन्हीँ लम्होंमे..समय देखा जाए तो घड़ी पास आ रही है...इस वक्त...तेरे जन्मको बस १२ घंटे होनेवाले हैं...
माँ ने अपने हाथोंसे तुझे नेहलाया...
भाभीने जब मुझे, ले जाया रहा था, तेरे जनमके बाद तो पूछा," जानना चाहती हो है लड़का है या लडकी?
मैंने "नामे" सर हिला दिया.....उनकी बातें,जो मेरे कानपे आ टकरा जो गयीं थीं....
"तुम उसका चेहरा देखना चाहोगी?"
" अभी नही..." मैंने जवाब दिया...
मुझे मन था, जब इसे अपने आँचल में लूँगी, तभी जी भरके देख लूँगी...तब दुआओं के अलावा मनसे क्या निकलता?
एकेक बारीकी याद है मुझे.....कुछ भी नही भूली...कुछभी नही....
कैसे गुज़रे वो चंद दिन? मेरा घोर डिप्रेशन कहाँ गया? अब अगली बार.....
मेरे बच्चे, तुझे इतना कुछ कह देना है...किस छोरको पकडूँ, किस छोरको छोड़ दूँ?कैसे कहूँ,कि तूही मेरी दुनियाँ बन गयी...क्योंकि....तुझे इस बेदर्द ज़मानेसे मुझेही बचाना था/ होगा...हर गुज़रते लम्हे के साथ, इस एहसास की संगीनता नज़र आ रही थी....
क्रमशः

4 comments:

hitaspad, May 13, 2009 7:59 PM

bahut hee hraysparshee manobhav . bina jiye samajhna isamjhana mushkil . matridivas par har matritva ko salam . aapke naam .

ललितमोहन त्रिवेदी, May 15, 2009 2:24 AM

मेरे बच्चे, तुझे इतना कुछ कह देना है...किस छोरको पकडूँ, किस छोरको छोड़ दूँ?कैसे कहूँ,कि तूही मेरी दुनियाँ बन गयी...क्योंकि....तुझे इस बेदर्द ज़मानेसे मुझेही बचाना था/ होगा...
कितना सहज और कितना भावपूर्ण लिखती हैं आप शमा जी कि मन बहता ही चला जाता है प्रवाह में !बहुत खूब ! मेरे ब्लॉग पर कि गयी टिप्पणी में अर्थ के सम्बन्ध आपके विचारों का मैं सम्मान करता हूँ और सहमत भी हूँ !आपकी कहानियां पढ़ रहा हूँ आजकल !

Vijay Kumar Sappatti, May 15, 2009 2:40 AM

shama ji , maa aur beti ke rishte ko aapne bahut hi achhe shabdo me darshaya hai .. man bheeg gaya aapke likhe shbdo se...

नीरज गोस्वामी, May 15, 2009 3:12 AM

शमा जी आप इतना डूब के लिखती हैं की पाठक आपके साथ भावनाओं के सागर में गोते खाने लगता है...ये लेखन ही आपकी शक्ति है...जितना लिखेंगी उतनी ही ख़ुशी हासिल करेंगी...सुख के क्षणों को याद कर और दुःख के क्षणों को तटस्थ भाव से लिखें तो ही आनंद आएगा...क्यूँ की दुःख के क्षण लिखते समय अगर उसमें बह गयीं तो लेखन के साथ अन्याय होगा...
कभी ऐसे भी क्षण जरूर आये होंगे जब जीवन सार्थक लगने लगा होगा...उन क्षणों से भी तो पर्दा उठाईये कभी...
शुभकामनाओं सहित.
नीरज

मात्रु दिवस ४

Monday, May 18, 2009

रिश्ता था हमदोनोका ऐसा अभिन्न न्यारा
घुलमिल आपसमे,जैसा दिया और बातीका!
झिलमिलाये संग,संग,जले तोभी संग रहा,
पकड़ हाथ किया मुकाबला तूफानोंका !
बना रहा वो रिश्ता प्यारा ,न्यारा...

वक़्त ऐसाभी आया,साथ खुशीके दर्दभी लाया,
दियेसे बाती दूर कर गया,दिया रो,रो दिया,
बन साया,उसने दूरतलक आँचल फैलाया,
धर दी बातीपे अपनी शीतल छाया,कर दुआ,
रहे लौ सलामत सदा,दियेने जीवन वारा!!

जीवनने फिर एक अजब रंग दिखलाया,
आँखोंमे अपनों की, धूल फेंक गया,
बातीने तब सब न्योछावर कर अपना,
दिएको बुझने न दिया, यूँ निभाया रिश्ता,
बातीने दियेसे अपना,अभिन्न न्यारा प्यारा,


तब उठी आँधी ऐसी,रिश्ताही भरमाया
तेज़ चली हवा तूफानी,कभी न सोचा था,
गज़ब ऐसा ढा गया, बना दुश्मन ज़माना,
इन्तेक़ाम की अग्नी में,कौन कहाँ पोहोंचा!
स्नेहिल बाती बन उठी भयंकर ज्वाला!

दिएको दूर कर दिया,एक ऐसा वार कर दिया,
फानूस बने हाथोंको दियेके, पलमे जला दिया!
कैसा बंधन था,ये क्या हुआ, हाय,रिश्ता नज़राया!
ज़ालिम किस्मत ने घाव लगाया,दोनोको जुदा कर गया!
ममताने उसे बचाना चाहा, आँचल में छुपाना चाहा!!

बाती धधगती आग थी, आँचल ख़ाक हो गया,
स्वीकार नही लाडली को कोई आशीष,कोई दुआ,
दिया, दर्दमे कराह जलके ख़ाक हुआ,भस्म हुआ,
उस निर्दयी आँधीने एक माँ का बली चढाया,
बलशाली रिश्तेका नाज़ ख़त्म हुआ, वो टूट गया...

रिश्ता तेरा मेरा ऐसा लडखडाया, टूटा,
लिए आस, रुकी है माया, कभी जुडेगा,
अन्तिम साँसोसे पहले साथ हो, बाती दिया,
और ज़ियादा क्या माँगे, वो दिया?
बने एकबार फ़िर न्यारा,रिश्ता,तेरा मेरा?

जानती है, १२ मईको "तैय्याका" फोन आया था? वो तेरे बारेमे पूछ रही थीं! मुझसे रहा न गया...दिल भर आया ..मैं कुछ देर खामोश रही...तैय्या बार, बार पूछती गयीं...अंतमे भर्राई आवाज़मे मैंने कह दिया," भाभी वो मुझसे बेहद रूठी हुई है...पता नही वो मुझसे कभी सामान्य हो पायेगी या नही? "

तैय्याको ३१ साल पूर्व का वो बनारससे ,देहलीतक किया सफर याद आ गया....३० मईको मै तुझे लेके तैय्याके साथ, बनारससे देहली निकली थी...बिना आरक्षण किए...३रे दर्जेकी बोगीमे...देहली स्टेशन पे एक ऐसी भीड़ दिब्बेमे घुस पडी,की, मै और तैय्या तो बिछड़ ही गए...मै, बोगीके passege में तुझे ले गिर पडी...अपने शरीरको १२ दिनोकी एक नाज़ुकसी कलीपे ढाल बनाये रखा...मेरे उपरसे भीड़ गुज़र रही थी..तू डर और भूखसे जारोज़ार रो रही थी..एक मुसाफिरने मेरी हालत देखी...मानो फ़रिश्ता बन वो सामने या...हम दोनोको उसने खड़ा किया और कहा," अब मै अन्दर घुसनेवाली भीडको एक ज़ोरदार धक्का लगा दूँगा...आप उस वक्त डिब्बेसे उतर जाना...!"

गर वो ना होता तो पता नही, ज़िंदगी ने हमें वहीँ रौन्दके रख दिया होता.....तेरे कपड़े डिब्बेमे छूट गए..मेरे पैरोंमे चप्पल नही रही...

तैय्या platform पर नही उतर पायी...दूसरी तरफकी पटरियों पे उन्हें उतरना पडा..मै जैसेही platform पे उतरी...तेरे पिताके एक दोस्त हमें लिवाने आए थे..मुझे धीरज दिलाते हुए, एक बेंच पे बिठाया...मैंने तुझे स्तनपान कराया...कितनी भूकी प्यासी थी तू! ! मै आजतक वो दिन नही भूली...एक नन्हीं जान अपनी माँ पे कितनी निर्भर होती है..कितनी महफूज़ होती है, उसके आँचल में! !
मैं भी कभी ऐसीही महफूज़ रही हूँगी अपनी माँ के आँचल में....मुझे आजभी अपनी माँ का आँचल , हर धूपमे छाया देता है..काश मेरे जैसा नसीब तेराभी हो..कि तूभी...फिर एकबार, मेरे होते, अपने आपको उतनाही महफूज़ महसूस करे!!!काश..काश..मेरी इतने बरसों की अराधना सफल रहे....
जानती हूँ, तेरा जीवनसाथी, तेरे लिए एक विलक्षण सहारा है..वो बना रहे..तुम दोनों बने रहो..किसी अदृश्य रूपसे मेरी दुआएँ तुमतक पोहोंचतीं रहेँ...आमीन!

मै लिखना चाहूँ,तो और पता नही कितना लिख दूँगी..पर अब बस..इसके पहलेभी काफी लिख चुकी हूँ..कितना दोहराऊँ?

समाप्त।